यह बॉलीवुड की कड़वी ‘हकीकत’ है। अगर कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए, तो हिंदी फिल्म इंडस्ट्री युद्ध पर आधारित विश्वसनीय फिल्में बनाने में असफल रही है। बॉक्स ऑफिस की कथित मांग, स्क्रिप्ट में अनावश्यक मसालों का उपयोग, वास्तविकता से दूरी और अत्यधिक नाटकीयता जैसे तमाम पुराने और घिसे पिटे प्रयोगों के कारण ये दर्शकों पर छाप छोड़ने में सफल नहीं हो पाती हैं। इसके बावजूद, हिंदी सिनेमा के ‘शेरशाह’ ऐसी फिल्में बनाने से बाज नहीं आते। पिछले दिनों तथाकथित युद्ध पर आधारित दो फिल्में – अजय देवगन की भुज: द प्राइड ऑफ इंडिया और करण जौहर की शेरशाह ओटीटी प्लेटफॉर्म पर प्रदर्शित हुई और दोनों ने निराश किया। हालांकि दोनों फिल्मों का कथानक किसी भी ‘वॉर मूवी’ की दृष्टि से उपयुक्त समझा जा सकता है। सिद्धार्थ मल्होत्रा-अभिनीत शेरशाह परमवीर चक्र विजेता और 1999 के कारगिल युद्ध के जांबाज शहीदों में से एक विक्रम बत्रा के जीवन से प्रेरित थी, तो भुज 1971 के पाकिस्तान से युद्ध के दौरान हुई एक रोमांचक घटना और भारतीय वायु सेना के स्क्वाड्रन लीडर विजय कर्णिक की वीरता से। लेकिन लचर पटकथा, साधारण अभिनय और कल्पनाविहीन दिग्दर्शन के कारण दोनों फिल्में प्रभाव छोड़ने में सफल नहीं हो पाईं। इन फिल्मों के फ्लॉप होने का हालांकि एक कारण यह भी था ये दोनों सीधे ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज हुईं। वॉर मूवीज को बड़े परदे पर देखने का रोमांच अलग होता है। भुज के लिए महीनों तक कंप्यूटर ग्राफिक्स के जरिये युद्ध के दृश्य फिल्माए गए, लेकिन छोटे स्क्रीन पर उनका प्रभाव नाकाफी रहा। कोरोना महामारी के कारण थिएटरों के लंबे समय तक बंद रहने के कारण इनके निर्माताओं को डिजिटल प्रदर्शन का विकल्प ढूंढ़ना पड़ा।
युद्ध आधारित फिल्मों में रचनात्मकता दिखाने और व्यावसायिक सफलता पाने की असीम संभावनाएं होती हैं, इसलिए हिंदी सिनेमा के मुगलों ने समय-समय पर ऐसी फिल्में बनाई हैं, चाहे उनकी पृष्ठभूमि 1962 की भारत-चीन की लड़ाई हो या 1999 का कारगिल युद्ध। अगर देखा जाए तो चेतन आनंद द्वारा निर्मित 1964 में प्रदर्शित हकीकत को अब भी फिल्म इतिहासकार इस शैली की सबसे बेहतरीन सिनेमाई कृति मानते हैं।
इसमें शक नहीं कि 1997 में प्रदर्शित जे पी दत्ता की बॉर्डर और 2019 में आई आदित्य दर की उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक ने टिकट खिड़की पर सफलता के नए कीर्तिमान गढ़ दिए। इन फिल्मों ने अति राष्ट्रवाद की थीम को परदे पर पुरजोर तरीके से भुनाया। बॉर्डर पाकिस्तान के साथ 1971 के युद्ध के दौरान लोंगोवाल की लड़ाई पर आधारित थी, जिसमें भारतीय थल और वायु सेना ने कमाल किया था। उरी 2016 में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में आतंकवादी ठिकानों पर हिंदुस्तानी सेना द्वारा की गई सर्जिकल स्ट्राइक पर आधारित थी। इसके बावजूद चेतन आनंद की श्वेत-श्याम फिल्म, हकीकत क्लासिक फिल्मों में शुमार की जाती है और इसे अब भी रंगीन सिनेमा के दौर में बने किसी अन्य युद्ध फिल्म से बेहतर समझा जाता है।
गौरतलब है, हकीकत उस दौर में बनी और प्रदर्शित हुई जब शम्मी कपूर की जंगली (1961) और राज कपूर की संगम (1964) जैसी फिल्मों ने रंगीन सिनेमा का जादू बिखेरना शुरू कर दिया था। इसके बावजूद दर्शक युद्ध पर आधारित एक रोमांचक फिल्म देखने थिएटर तक पहुंचे। हालांकि चेतन आनंद फिर वैसी कोई अन्य ‘वॉर मूवी’ बनाने में सफल न हो पाए। वर्ष 1973 में प्रदर्शित भारत-पाकिस्तान युद्ध पर आधारित हिंदुस्तान की कसम में उन्होंने एक ईमानदार कोशिश जरूर की, लेकिन दर्शकों ने उसे नकार दिया। इसी फिल्म से शोले (1975) में गब्बर सिंह के किरदार से लोकप्रियता पाए अमजद खान ने अपने फिल्मी करिअर का आगाज किया था। देवानंद के बड़े भाई, चेतन संवेदनशील फिल्मकार थे जिनकी युद्ध आधारित सिनेमा में खास दिलचस्पी थी। अस्सी के दशक में जब दूरदर्शन पर रंगीन सीरियलों का जमाना आया तो वो परमवीर चक्र (1988) नामक सीरियल लेकर आए जो देश के परमवीर चक्र विजेताओं की जिंदगी और देश के लिए दी गई उनकी कुर्बानियों से प्रेरित था। करण जौहर द्वारा निर्मित शेरशाह में इस सीरियल का उल्लेख मिलता है कि विक्रम बत्रा को सेना में जाने की प्रेरणा इसी को देखने के बाद मिली थी। यह बात और है कि शेरशाह फिल्म का एक बड़ा हिस्सा विक्रम बत्रा के युद्ध के मैदान में दिखाए गए जौहर की बजाय उनकी निजी जिंदगी के सिनेमाई रूपांतरण पर केंद्रित है। शायद यही कारण है कि फिल्म से दर्शकों के मन में उस तरह का ‘जोश’ नहीं उभरा जैसा बॉर्डर या उरी ने किया था।
हकीकत के बाद की वॉर मूवीज की लिस्ट में जे. ओम प्रकाश की आक्रमण (1975) और शशि कपूर की विजेता (1982) जैसी कुछ फिल्में तो शामिल हैं लेकिन उनमें से अधिकांश असफल रहीं। दूसरी ओर, बॉर्डर की गिनती आज भी हिंदी सिनेमा के इतिहास की सफलतम फिल्मों में होती है। किंतु, चेतन आनंद की तरह जे.पी. दत्ता भी फिर बॉर्डर जैसी कोई दूसरी कामयाब फिल्म नहीं बना सके। कारगिल युद्ध के दौरान ‘ऑपरेशन विजय’ पर आधारित एलओसी: कारगिल (2003) में उन्होंने सितारों का कारवां सजा दिया, लेकिन दूसरी बॉर्डर देखने की ख्वाहिश लेकर गए दर्शकों को निराशा ही हाथ लगी। वर्ष 2018 में प्रदर्शित पलटन 1967 में नाथू-ला और चो-ला पर भारतीय और चीनी सेना के बीच झड़पों पर आधारित थी, लेकिन छोटे सितारों को लेकर बनी यह फिल्म भी कोई प्रभाव छोड़ने में असफल रही।
नई सदी में गदर: एक प्रेम कथा (2001) की अपार सफलता के बाद बॉलीवुड में भारत-पाकिस्तान संबंधों पर आधारित अनेक फिल्में बनीं, जिनमें अमिताभ बच्चन की दीवार (2004), बॉबी देओल की अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों (2004) और ऐश्वर्या राय बच्चन की सरबजीत (2016) शामिल हैं। लेकिन इन सब में सबसे अच्छी मनोज बाजपेयी अभिनीत 2007 में रिलीज हुई 1971 रही। यह पाकिस्तानी सेना के कब्जे से भागे छह भारतीय सैनिकों की रोमांचक दास्तान है, लेकिन इसके बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिर जाने के कारण कोई चर्चा नहीं हुई। लगभग एक दशक बाद इस फिल्म को यूट्यूब पर वह प्रसिद्धि मिली, जिसकी वह वाकई हकदार थी। अब तक इस फिल्म तो 3.2 करोड़ से अधिक लोग देख चुके हैं।
उरी की अप्रत्याशित सफलता ने बॉलीवुड में वॉर मूवीज का चलन फिर बढ़ा दिया है। शेरशाह से पहले करण जौहर ने 2017 में द गाजी अटैक और 2020 में गुंजन सक्सेना: द कारगिल गर्ल का निर्माण किया था। भारत की पहली महिला युद्ध पायलट की बायोपिक में तथ्यों से कथित छेड़छाड़ के कारण भारतीय वायु सेना ने आपत्ति दर्ज की थी।
उरी के ‘हाउ इज द जोश’ संवाद से लोकप्रिय हुए विकी कौशल मेघना गुलजार द्वारा बनाई जा रही फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ की बायोपिक में काम कर रहे हैं। वहीं, श्रीराम राघवन की फिल्म में वरुण धवन 1971 के युद्ध नायक और सबसे कम उम्र में परमवीर चक्र से नवाजे गए अरुण खेत्रपाल की भूमिका निभा रहे हैं। कंगना रनौत भी अपनी आगामी फिल्म, तेजस में इंडियन एयर फोर्स की पायलट बनी हैं। उम्मीद है बॉलीवुड के नए फिल्मकार सिनेमाई स्वतंत्रता के नाम पर किसी वॉर मूवी में तथ्यों से छेड़छाड़ नहीं करेंगे और हकीकत जैसी बेहतर फिल्म बनाने में सफलता हासिल करेंगे जो सेना और सैनिक की जिंदगी की हकीकत बयां करेंगी।