आखिर लंबे अरसे बाद पिछले वर्ष नवंबर में बॉलीवुड में शैम्पेन की बोतलें खुलीं। दिवाली के अवसर पर रिलीज हुई रोहित शेट्टी की सूर्यवंशी ने महीने का अंत होते-होते देश भर में लगभग दो सौ करोड़ रुपये की कमाई कर ली। ऐसे समय में जब मुंबई समेत कई प्रमुख क्षेत्रों में सिनेमा हॉलों को या तो बंद कर दिया गया या दर्शकों की संख्या को सीमित रखा गया था, इसके बॉक्स ऑफिस आंकड़े सुकून देने वाले थे। लगभग दो साल से महामारी के कारण मंदी की मार झेल रही हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को सूर्यवंशी की सफलता ने नई उर्जा प्रदान की। उम्मीद जगी कि 2021 के अंत तक मनोरंजन जगत के अच्छे दिन लौट आएंगे। ऐसे संकेत मिलने भी लगे थे। 16 दिसंबर को रिलीज होने वाली हॉलीवुड की बहुप्रतीक्षित फिल्म स्पायडरमैन: नो वे होम की एडवांस बुकिंग के लिए जबरदस्त उत्साह देखा गया। एक सप्ताह बाद प्रदर्शित होने वाली हिंदी फिल्म ’83 के लिए भी दर्शक बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। 1983 में भारत ने वेस्ट इंडीज को रोमांचक फाइनल में शिकस्त देकर पहली बार क्रिकेट का एकदिवसीय विश्व कप जीता था। कबीर खान द्वारा निर्देशित ’83 उसी ऐतिहासिक जीत पर आधारित थी, जिसमें रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण जैसे कलाकार प्रमुख भूमिकाओं में थे। प्रदर्शन के पूर्व समीक्षकों से मिली तारीफों से ऐसा मान लिया गया कि फिल्म रिकॉर्डतोड़ कारोबार करेगी।
स्पायडरमैन: नो वे होम और ’83 पर हो रहे शोरशराबे के बीच बॉलीवुड में शायद ही किसी का ध्यान उस दौरान प्रदर्शित होने वाली एक और फिल्म पुष्पा: द राइज पर गया, जो बगैर किसी तामझाम के प्रदर्शित हुई। यह तेलुगु फिल्म है, जिसमें दक्षिण भारतीय सिनेमा के अल्लु अर्जुन, रश्मिका मंडाना, और फहद फासिल जैसे चर्चित सितारे प्रमुख भूमिकाओं में हैं। इसे हिंदी में डब कर रिलीज़ किया गया, बॉलीवुड में किसी ने इसे गंभीरता से नहीं लिया, इसके बावजूद कि कुछ अरसा पहले ही बाहुबली: द बिगनिंग (2015) और उसके सीक्वल बाहुबली: द कनक्लूजन (2017) जैसी तेलुगु फिल्मों के हिंदी संस्करण ने देशभर में टिकट खिड़कियों पर भूचाल ला दिया था। जाहिर है, बाहुबली की सफलता को या तो अपवाद समझा गया या उसका सारा श्रेय निर्देशक एस.एस. राजामौली को दिया गया। बॉलीवुड के फिल्मकारों को शायद लगा कि हर डब की गई फिल्म बाहुबली नहीं हो सकती है और हर दक्षिण भारतीय निर्देशक राजामौली नहीं हो सकता है। लेकिन अगले दो-तीन हफ्तों में जो हुआ, वह हैरान करने वाला था। ’83, जिसके प्रमोशन में क्रिकेटर कपिल देव और सुनील गावस्कर जैसे महानायक जुड़े, ने निराशाजनक प्रदर्शन किया। लॉकडाउन के कारण इसका प्रदर्शन डेढ़ वर्षों तक रोक कर रखा गया था। इसे ओटीटी पर भी यह कर रिलीज नहीं किया कि इसका आनंद बड़े परदे पर ही लिया जा सकता है। उम्मीदें तो बहुत थीं लेकिन आखिरकार ’83 ऊंची दुकान, फीकी पकवान साबित हुई। और तो और, कई हिंदी भाषी राज्यों में दर्शकों की भारी मांग के कारण ’83 को हटाकर पुष्पा की स्क्रीनिंग करायी गई। कुछ सिनेमा हॉल तो ऐसे थे, जहां पुष्पा को एक सप्ताह तक दिखाया गया लेकिन '83 की रिलीज के बाद हटा दिया गया था। मूल रूप से दक्षिण भारतीय भाषा की डब की गई किसी फिल्म का हिंदी पट्टी में एक बड़े बजट की बॉलीवुड फिल्म पर भारी पड़ना अभूतपूर्व घटना थी, वह भी तब जब उसमें काम कर रहे किसी अभिनेता-अभिनेत्री की कोई हिंदी फिल्म अभी तक बनी ही नहीं है।
अल्लु अर्जुन का डांस खूब पसंद किया जा रहा है
हाल के वर्षों में अपने कई सुपरस्टारों के फिल्मों के फ्लॉप होने का दंश झेलने वाले बॉलीवुड को जब तक इसका इल्म हुआ, पुष्पा की सफलता का रथ बहुत आगे निकल चुका था। तकरीबन सात सप्ताह में इसके सिर्फ हिंदी संस्करण ने लगभग 100 करोड़ रुपये की कमाई कर ली और इसका विश्वव्यापी कलेक्शन 350 करोड़ रुपये के पार चला गया। इस बीच फिल्म को ओटीटी प्लेटफॉर्म अमेजन प्राइम वीडियो पर भी स्ट्रीम कर दिया गया, लेकिन इसके लिए लोगों के जुनून में कमी नहीं आई। आम दर्शक से लेकर चर्चित हस्तियां तक इस फिल्म के दीवाने दिखे। पुष्पा की अप्रत्याशित सफलता के बाद इसमें शीर्षक भूमिका निभाने वाले अल्लु अर्जुन नए वर्ष में राष्ट्रीय स्तर के सुपरस्टार के रूप में उभर कर सामने आए। फिल्म में ‘श्रीवल्ली’ जैसे गानों के दौरान बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के थिएटरों में उसी दीवानगी से तालियां और सीटियां बजती रहीं, जैसी तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में सुनी गईं। इन सिनेमा हॉलों में ऐसा मंजर वर्षों से नहीं दिखा था। भाषाई दीवार दरकती हुई दिखी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि अल्लु अर्जुन ने अभी तक किसी हिंदी फिल्म में काम नहीं किया है। फिल्म ने पहले ही दिन तीन करोड़ रुपये कमाए। आश्चर्यजनक बात यह रही कि इसके हिंदी संस्करण ने मौलिक तेलुगु वर्जन से बेहतर व्यवसाय किया। जाहिर है, जिस टिकट खिड़की पर बॉलीवुड ने उन्हें फ्लावर (पुष्प) समझा, वहां वह फायर (आग) सिद्ध हुई।
गौरतलब है कि अतीत में दक्षिण के रजनीकांत और कमल हासन सरीखे दिग्गज अभिनेता भी हिंदी सिनेमा में अपनी पैठ बनाने में सफल नहीं हो सके (देखें दिग्गजों के लिए भी अभेद्य किला)। तो क्या पुष्पा के सुपरहिट होने को अपवाद मात्र कहा जा सकता है? फिल्म व्यापार विशेषज्ञों के अनुसार, ऐसा समझना भूल होगी। उनका मानना है कि बाहुबली और केजीएफ: चैप्टर 1 के बाद हिंदी पट्टी में पुष्पा की शानदार सफलता ने भारतीय सिनेमा में उत्तर-दक्षिण की दूरी को पाट दिया है, जिसके दूरगामी परिणाम होंगे। अब प्रादेशिक कहे जाने वाले कलाकार सिर्फ अपनी भाषा की सिनेमा के स्टार नहीं रहे, वे पूरे देश में सुपरस्टार बन गए हैं।
अल्लु अर्जुन का उदाहरण सामने है। एक भी हिंदी फिल्म में काम नहीं करने के बावजूद हिंदी पट्टी में उनके प्रशंसकों की भरमार है, जो उनके एक्शन और डांस करने की प्रतिभा के साथ-साथ उनकी अभिनय क्षमता के भी कायल हैं और उनकी हर नई फिल्म के हिंदी में डब होने का का बेसब्री का इंतजार करते हैं, जिन्हें आम तौर पर सैटेलाइट टीवी चैनलों और यू-टयूब पर दिखाया जाता है। लेकिन, पुष्पा के सीधे थिएटर में रिलीज होने के बाद उनकी लोकप्रियता नई ऊचाइयों पर पहुंच गई। हाल में जब घोषणा हुई कि पुष्पा के बाद उनकी हिट तेलुगु फिल्म, अला वैकुंठपुरमलो, जिसने दो वर्ष पूर्व करीब 270 करोड़ रुपये का व्यवसाय किया था, को हिंदी में डब कर 26 जनवरी को देशभर में रिलीज किया जाएगा तो उनके प्रशंसकों के बीच जश्न-सा माहौल बन गया।
हालांकि पुष्पा की सफलता से सशंकित बॉलीवुड को शायद यह रास न आया। दरअसल, इस फिल्म का रीमेक फिलहाल हिंदी में शहजादा नाम से बनाया जा रहा है, जिसमें कार्तिक आर्यन वही भूमिका निभा रहे हैं, जो ऑरिजिनल में अल्लु अर्जुन ने निभाया है। शहजादा के निर्माताओं और कार्तिक आर्यन की कथित आपत्तियों के बाद उठे विवादों के बीच गोल्डमाइंस टेलीफिल्म्स के कर्ता-धर्ता मनीष शाह, जिनके पास इसके डबिंग अधिकार हैं, ने इसे सिर्फ अपने सैटेलाइट चैनल पर स्ट्रीम करने की योजना बनाई है।
आखिर पुष्पा में ऐसी क्या बात है, जिसने हिंदी भाषी दर्शकों का मन मोह लिया? शाह, जिन्होंने इसे हिंदी में डब करवा कर देश भर में 17 दिसंबर को प्रदर्शित किया, का मानना है कि पारिवारिक दर्शक बॉलीवुड फिल्मों से दूर हो गए है क्योंकि उनमें अपशब्दों और अश्लीलता की भरमार होती है। इसके विपरीत, दक्षिण भारतीय फिल्में अब भी पूरे परिवार के साथ देखने के लायक बनाई जाती हैं (देखें इंटरव्यू)।
देखा जाए तो पुष्पा कोई कालजयी, क्लासिक सिनेमा नहीं है। यह एक विशुद्ध मसाला फिल्म है, जिसे उसी पुराने सांचे में ढाला गया है, जिसमें सत्तर और अस्सी के दशक में अमिताभ बच्चन की फिल्में बनाई जाती थीं। त्रिशूल (1977) और लावारिस (1981) से लेकर अग्निपथ (1990) तक ऐसी कई एंटी-हीरो फिल्में बनीं, जिसमें नायक अपनी मां के साथ हुई ज्यादतियों का बदला लेने के लिए बागी बन जाता है। स्मगलिंग जैसी थीम तो दक्षिण भारतीय सिनेमा में मणिरत्नम के नायकन (1987) से भी पहले से चली आ रही है। फर्क सिर्फ इतना है कि सोने के बिस्किट और ड्रग्स की जगह पुष्पा में रक्त चंदन ने ले ली। फिर भी, इसका श्रेय सुकुमार के निर्देशन को जरूर देना चाहिए, जिन्होंने पुष्पा जैसी पुरानी शराब को बिलकुल नई बोतल में पेश किया, जो बॉलीवुड में बहुत पहले बेस्वाद हो चुकी थी। सशक्त संवादों, कसी पटकथा, नयनाभिराम छायांकन, बेहतरीन एक्शन और दर्शकों को थिरकने के लिए मजबूर करने वाले गीत-संगीत ने ऐसा मसाला तैयार किया, जिसे दर्शकों ने हाथोहाथ लिया। गौरतलब है कि हाल के वर्षों में सलमान खान की दबंग (2010) जैसी कुछ फिल्मों को छोड़ दें तो बॉलीवुड ने ऐसी फिल्मों को बनाना नब्बे के दशक में ही छोड़ दिया था।
पिछले दो दशक में बॉलीवुड ने मसाला फिल्मों की जगह असल जिंदगी से जुड़ी कहानियों को प्रश्रय दिया और परदे पर वैसे डॉयलाग गौण हो गए, जिन पर सीटियां बजा करती थीं। पुष्पा में सब कुछ पुरानी मसाला फिल्मों की तरह था, बिना किसी मिलावट के। इसका नायक तीस-तीस गुंडों से अकेले टक्कर ले सकता है। आज के दौर में जब यथार्थवादी सिनेमा का मारा बॉलीवुड का आम नायक नामर्दी, गंजेपन और बौनेपन जैसी समस्याओं से जूझ रहा है, पुष्पा में नायक का वही पुराना सर्वशक्तिमान रूप नजर आता है। वह भले ही तेलुगु फिल्म का नायक है पर उसने हिंदी पट्टी के छोटे शहरों में दर्शकों को उन दिनों की याद दिला दी है जब सिनेमा देखने का मतलब फंतासी के दुनिया में जाकर निजी जिंदगी की समस्याओं को भूलकर मनोरंजन की दुनिया में ढाई-तीन घंटे के लिए खो जाना था। मल्टीप्लेक्स के प्रादुर्भाव के बाद तो बॉलीवुड महानगरों पर और भी केंद्रित हो गया और देश के सुदूर इलाकों में स्थित एकल-स्क्रीन के दर्शकों की पसंद की फिल्में बनना बंद हो गईं। पिछले एक दशक में बॉलीवुड में अवश्य छोटे शहरों की कहानियों पर फिल्में बनना शुरू तो हुईं लेकिन उनके नायक आम आदमी जैसे ही थे, न कि करिश्माई सुपरमैन। पुष्पा में दर्शकों को उनका खोया हुआ महानायक मिला। ‘पुष्पा झुकेगा नहीं’ कहकर अपनी हाथों की उंगलियों को अपनी गर्दन पर फिराने जैसी भंगिमाएं बॉलीवुड में नए मिजाज के फिल्मकारों और कलाकारों को आज भले ही घिसीपिटी और स्तरहीन लगें, लेकिन पुष्पा ने साबित किया है कि दर्शकों को बड़े पैमाने पर आकर्षित करने के लिए ऐसे औजार अब भी बखूबी काम कर रहे हैं।
पुष्पा के सफल होने की शायद सबसे बड़ी वजह स्वयं अल्लु अर्जुन ही हैं, जिनकी हिंदी में डब की गई तेलुगु फिल्में सैटेलाइट चैनलों और अन्य डिजिटल माध्यमों से हिंदी भाषी दर्शकों तक पहुंचती रही हैं। इस दृष्टि से अल्लु अर्जुन हिंदी दर्शकों के लिए अनजान नहीं हैं। पुष्पा की सफलता के बाद यह तो स्पष्ट है कि उनके पास बॉलीवुड से कई नई फिल्मों के प्रस्ताव मिलेंगे, लेकिन जैसा कि उन्होंने हाल में बताया, वे हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में तभी कदम जमाएंगे, जब कोई अच्छी स्क्रिप्ट उनके हाथ लगेगी।
फिलहाल तो वे पुष्पा: द राइज की सीक्वल, पुष्पा: द रूल की तैयारियों में जुटेंगे, जिसके इस साल के अंत तक प्रदर्शित होने की संभावना है। यह भी चर्चा है कि उन्हें एटली द्वारा निर्देशित एक अन्य फिल्म के लिए 100 करोड़ रुपये का ऑफर मिला है। ऐसी रकम बॉलीवुड और दक्षिण के सिर्फ गिने-चुने सितारों को पेशकश की जाती है। इससे 39 वर्षीय गैर-हिंदी भाषी कलाकार के स्टारडम का पता चलता है।
आज के दौर में हालांकि अल्लु अर्जुन दक्षिण भारतीय सिनेमा से उभरे इकलौते स्टार नहीं है, जिन्होंने बगैर बॉलीवुड का रुख किए अपना लोहा राष्ट्रीय स्तर पर मनवाया है। बाहुबली के दो संस्करणों के बाद तेलुगु सिनेमा के प्रभाष की लोकप्रियता भी राष्ट्रव्यापी है। बाहुबली के बाद उनकी बहुभाषाई फिल्म साहो (2018) ने भी जबरदस्त कमाई की। इस साल उनकी दो फिल्मों, राधेश्याम और आदिपुरुष का हिंदी दर्शकों को बेसब्री से इंतजार है। आदिपुरुष को भारतीय सिनेमा की अब तक की सबसे महंगी फिल्म कहा जा रहा है।
लेकिन फिलहाल नजरें बाहुबली के बाद राजामौली की जल्द ही प्रदर्शित होने वाली फिल्म आरआरआर पर टिकी हैं, जिसमें रामचरण और एनटीआर जूनियर जैसे तेलुगु अभिनेता काम कर रहे हैं।
इसमें शक नहीं कि राजामौली के बाहुबली ने ही डब की गई दक्षिण भारतीय फिल्मों को नए और बड़े बाजारों का रास्ता दिखाया। प्रभाष का मानना है कि बाहुबली ने निश्चित रूप से अखिल भारतीय और वैश्विक मंच पर क्षेत्रीय सिनेमा के लिए दरवाजे खोले हैं। इसी साल, कन्नड़ अभिनेता यश की केजीएफ: चैप्टर 2 भी प्रदर्शित होनी है, जिसके पहले भाग के हिंदी संस्करण ने 2018 में बेहतरीन व्यवसाय कर लोगों को चौंका दिया था। इन फिल्मों के बाद पुष्पा के हिट होने के कारण अब कई पुरानी दक्षिण भारतीय फिल्मों को हिंदी में डब कर के देशभर में थिएटर में रिलीज करने की तैयारी चल रही है, जिसमें 2018 में प्रदर्शित रामचरण की रंगस्थलम और थलापति विजय की मर्सल (2017) शामिल हैं। ऐसी फिल्में पहले सिर्फ टीवी चैनलों पर रिलीज की जाती थीं और उनके हिंदी फिल्मों के अधिकार बॉलीवुड निर्माताओं को बेच दिए जाते थे, जैसा अल्लु अर्जुन की अला वैकुंठपुरमलो के साथ हुआ।
इसमें कोई शक नहीं कि इन फिल्मों की देशव्यापी लोकप्रियता के कारण अब बॉलीवुड और दक्षिण भारतीय सिनेमा के बीच की दूरी कम होने लगी है और दोनों इंडस्ट्रीज के बीच आपसी तालमेल से फिल्में बनाई जाने लगी हैं। आज दक्षिण के सुपरस्टार रामचरण कियारा अडवाणी के साथ विश्वम्भर में, विजय सेतुपति कटरीना कैफ के साथ मेरी क्रिसमस में और विजय देवरकोंडा अनन्या पाण्डेय के साथ लाईगर में बॉलीवुड में काम कर रहे हैं। इसी तरह, ऐसी दक्षिण की कई फिल्में हैं जिनमें हिंदी सिनेमा के मशहूर कलाकार काम कर रहे हैं। राजामौली की आरआरआर में अजय देवगन और अलिया भट्ट प्रमुख भूमिकाओं में हैं तो केजीएफ: चैप्टर 2 में संजय दत्त और रवीना टंडन काफी अरसे बाद साथ-साथ काम कर रहे हैं। इसी तरह खुदा गवाह (1992) के बाद नागार्जुन इस वर्ष प्रदर्शित होने वाली रणबीर कपूर अभिनीत ब्रह्मास्त्र में अमिताभ बच्चन के साथ परदे पर दिखेंगे। नागार्जुन के पुत्र नाग चैतन्य आमिर खान की आगामी फिल्म लाल सिंह चड्ढा से हिंदी फिल्म में अपने करियर का आगाज करेंगे।
इसके बावजूद, हर बड़ा दक्षिण भारतीय अभिनेता हिंदी फिल्मों में आने के लिए आतुर नहीं दिखता। तेलुगु सुपरस्टार महेश बाबु के लिए फिल्मों की भाषा नहीं, सिर्फ दर्शकों का प्यार ही मायने रखता है, चाहे वे कहीं के हों। वे कहते हैं, ‘‘मुझे नहीं लगता कि साउथ या बॉलीवुड मायने रखता है अगर आपका काम दर्शकों तक पहुंचता है।’’
अल्लु अर्जुन की तरह महेश बाबु ने भी अभी तक किसी हिंदी फिल्म में काम नहीं किया है, लेकिन उनकी डब की गई कई फिल्में न सिर्फ अच्छी कमाई करती हैं, बल्कि उन्हें टीवी पर रिकॉर्डतोड़ टीआरपी भी मिलती है।
क्या हिंदी भाषी क्षेत्रों में दक्षिण भारतीय सिनेमा की बढ़ती लोकप्रियता से बॉलीवुड कोई सबक ले सकता है? बॉलीवुड अभिनेत्री कंगना रनौत के अनुसार, दक्षिण भारतीय सिनेमा के कंटेंट और वहां के सुपरस्टार इसलिए अति-लोकप्रिय हैं क्योंकि वे भारतीय संस्कृति से जुड़े हुए हैं। सोशल मीडिया पर अपने एक पोस्ट में उन्होंने पुष्पा की सफलता पर कहा कि वे अपने परिवार को प्यार करते हैं और उनके रिश्ते पारंपरिक होते हैं, न कि पाश्चात्य ढर्रे वाले। उन्होंने कहा, ‘‘काम के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और जूनून की कोई बराबरी नहीं कर सकता है। उन्हें बॉलीवुड को उसे भ्रष्ट करने की इजाजत नहीं देनी चाहिए।’’
जो भी हो, बॉलीवुड के समक्ष अब बड़ा सवाल यह है कि क्या हिंदी में बड़े सितारों को लेकर बनने वाली दक्षिण भारतीय फिल्मों के रीमेक अधिकार लेने पर इसका असर पड़ेगा? सिनेमा के श्वेत-श्याम युग से लेकर अभी तक अनगिनत तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम फिल्मों के रीमेक बनते रहे हैं। सलमान खान की वांटेड (2008) और बॉडीगार्ड (2011) और शाहिद कपूर की कबीर सिंह (2018) ऐसी ही हिट रीमेक थीं। लेकिन, क्या अब दक्षिण भारतीय फिल्मकार और कलाकार अपनी देशव्यापी कामयाबी के मद्देनजर हिंदी निर्माताओं को अपनी फिल्मों का रीमेक राइट्स देना बंद कर स्वयं ही उनके हिंदी संस्करणों पर काम करेंगे?
फिल्म आलोचक मुर्तजा अली खान का कहना है कि लंबे समय तक हिंदी सिनेमा में दक्षिण की फिल्मों के रीमेक बने हैं, लेकिन अब क्षेत्रीय उद्योगों की फिल्मों को राष्ट्रीय स्तर पर दर्शक मिलने लगे हैं। वे कहते हैं, ‘‘डबिंग की गुणवत्ता में बहुत सुधार हुआ है और उसने भी निश्चित रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पुष्पा उस नए चलन का बेहतरीन उदाहरण है, जो बाहुबली: द बिगनिंग से शुरू हुआ था।’’
हालांकि, उनके अनुसार, राजामौली की बड़े स्केल पर बनाई गई आरआआर की सफलता पर बहुत कुछ निर्भर करता है कि भविष्य में बॉलीवुड और दक्षिण भाषाई फिल्म इंडस्ट्री का गठबंधन किस तरह जारी रहेगा। ‘‘पुष्पा और वेब पर मिन्नल मुरली का हिट होना इस धारणा को दूर करता है कि बाहुबली की सफलता अपवाद मात्र थी। आज प्रभास और अल्लु अर्जुन जैसे स्टार खुद को उसी स्थान पर पाते हैं जहां अमिताभ बच्चन ’70 और ’80 के दशक में थे, जब उनकी कई एक्शन फिल्में दक्षिण में भी उल्लेखनीय कारोबार किया करती थीं।’’
खान की तरह बॉलीवुड पर नजर रखने वालों का यह भी मानना है कि नए जमाने के दर्शकों के लिए फिल्मों की भाषा प्राथमिकता नहीं है। आज ओटीटी प्लेटफॉर्म पर बेहतरीन विश्व सिनेमा की उपलब्धता और फिल्मकारों की नई पीढ़ी के उद्भव ने गुणवत्ता वाली फिल्मों के लिए दर्शकों की भूख को बढ़ा दिया है, भले ही वे पुष्पा जैसी विशुद्ध मसाला फिल्में ही क्यों न हों।
पुष्पा की अपार सफलता ने एक और बात को पुन: रेखांकित किया है कि अगर किसी भी शैली के सिनेमा में दर्शकों को बांधने की शक्ति हो तो फिल्म को बिना किसी बड़े स्टार के भी हिट किया जा सकता है। पुष्पा हो या बाहुबली, उत्तर हो या दक्षिण, फिल्मों का कंटेंट ही अब सबसे ज्यादा बिकने वाला स्टार है। पुष्पा का आने वाला सीक्वल बाहुबली 2 का रिकॉर्ड बॉक्स ऑफिस पर तोड़े या नहीं, बॉलीवुड को यह समझने की जरूरत है कि अब दक्षिण भारतीय सिनेमा के उत्तर भारत में विस्तार को रोकना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन दिखता है। पुष्पा में अल्लु अर्जुन के किरदार की तरह, यह झुकेगा नहीं।