आज जब भारत सहित पूरा विश्व आर्थिक मंदी की आशंका से जूझ रहा है, चीन इसका अपवाद तो नहीं है, लेकिन अर्थव्यवस्था का आकलन करने वाली विश्वसनीय एजेंसियां मानती हैं कि चीन इस संकट से अन्य अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले कहीं ज्यादा आसानी से निपट सकेगा। जहां तक भारत और चीन के व्यापारिक संबंधों का प्रश्न है तो कहा जा सकता है कि तमाम तरह के राजनैतिक बड़बोलेपन और दशकों पुराने सीमा-विवाद के बावजूद पिछले छह साल से चीन हमारा सबसे बड़ा व्यापारिक पार्टनर है। यह अलग बात है कि व्यापार संतुलन चीन के पक्ष में है। फिर भी हमारे यहां के आम और खास लोग इस पड़ोसी के साथ सदियों पुराने रिश्ते के बारे में कुछ नहीं जानते।
पेंगुईन पोर्टफोलियो ने सैबल दासगुप्ता की पुस्तक रनिंग विद द ड्रैगन– हाउ इंडिया शुड डू बिजनेस विद चाईना प्रकाशित की है जो न केवल चीन के साथ व्यापार संबंधी जटिलताओं की गुत्थियों को सुलझाती है, बल्कि चीन की सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों को भी बताती चलती है। इससे पहेली बने इस देश को समझना आसान हो जाता है। इस पुस्तक को पढ़ते समय ऐसा लगा कि इतने महत्वपूर्ण विषय पर ऐसी कोई पुस्तक पहले क्यों नहीं आई? पुस्तक के लेखक सैबल दासगुप्ता पिछले लगभग डेढ़ दशक से चीन में टाइम्स ऑफ इंडिया के विशेष संवाददाता के तौर पर काम कर रहे हैं और इस तरह उन्होंने लंबे समय तक चीन में चल रहे घटनाक्रम को करीब से देखा है। यही वजह है कि पुस्तक पढ़ते समय कई बार एहसास होता है कि इसमें उपलब्ध जानकारियां कहीं और मिलना मुश्किल है।
पुस्तक पढ़ने से समीक्षक की इस भ्रांति का भी निवारण हुआ है कि चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के सख्त प्रशासनिक नियंत्रण के कारण वहां के उद्यमी पूरी तरह सरकार द्वारा तय किए गए मानकों पर ही चलते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। सैबल पुस्तक के पहले ही अध्याय में लिखते हैं कि इसके उलट, चीन के उद्यमियों को फैसले लेने की पूरी स्वतंत्रता है। यदि ऐसा न होता तो क्या यह संभव था कि आज पूरी दुनिया में चीनी उद्यमी इतनी सफलतापूर्वक व्यापार कर रहे होते?
चीन और भारत के बीच व्यापारिक असंतुलन का जिक्र पुस्तक में बार-बार आता है और लेखक को इस बात का अफसोस है कि भारतीय कंपनियां अपनी दब्बू प्रवृत्ति के कारण चीन में मिल रहे बेइंतेहा मौके गंवा रही हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर की आर्थिक मामलों की जानकार एजेंसियों के हवाले से पुस्तक बताती है कि अगले दस वर्षों में यानी वर्ष 2030 तक चीन द्वारा किए जाने वाले कंजमशन का मूल्य बढ़कर 6 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर होने वाला है, यानी छह लाख करोड़ डॉलर प्रतिवर्ष। चीन की ऐसी भारी-भरकम अर्थव्यवस्था कमाने के भी ढेर अवसर दे रही है, लेकिन लेखक के विचार में भारतीय कंपनियां चीन से दूरी बनाए रखती हैं। यहां तक कि भारत के सार्वजनिक उपक्रम भी चीन के मामले में सकुचाए लगते हैं। उदाहरण के लिए पुस्तक बताती है कि पिछले कुछ वर्षों में कई बैंकों ने और स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया ने चीन में अपने दफ्तर बंद किए हैं। यह बात सही है कि चीन में प्रॉफिट-मार्जिन काफी कम होता है लेकिन यदि स्थानीय रीति-रिवाजों को समझने का अच्छे से प्रयास किया जाए तो कोई कारण नहीं कि भारतीय कंपनियों को सफलता न मिले।
लेखक का मत है कि यदि भारत सरकार और हमारे निर्यातक प्रयास करें तो लगभग 2,700 ऐसे उत्पाद हैं, जिन्हें भारत चीन को निर्यात कर सकता है। इसका उलट भी उतना ही सच है यानी अगर भारत सरकार और व्यापारिक प्रतिष्ठान मिलकर प्रयास करें तो कितने ही ऐसे उत्पाद निकल आएंगे जिनका आयात बंद किया जा सकता है, जिससे न केवल भारत के छोटे एवं मध्यम दर्जे के उद्योगों को लाभ पहुंचेगा, बल्कि नकारात्मक व्यापार असंतुलन को भी कुछ हद तक साधा जा सकेगा।
लेकिन यह सब होगा कैसे? लेखक ने पुस्तक में कई सारी केस-स्टडी और वास्तविक उदाहरण देकर महत्वपूर्ण टिप्स दी हैं। इस समीक्षक की राय में ये टिप्स और भी महत्वपूर्ण हो जाती हैं क्योंकि हम भारतीय लोगों को ब्रिटिश दासता के कारण या यूं कहें पश्चिमी दुनिया का एक्स्पोजर अधिक रहा और हम चीन को निकट का पड़ोसी होते हुए भी बिलकुल नहीं समझ पाए। ऐसे पड़ोसी से व्यापार और प्यार तो दूर, अच्छे से दुश्मनी करना भी मुश्किल हो जाता है।
सैबल ने वहां की संस्कृति में सामाजिक अंतरसंबंधों के अर्थ और महत्व पर पुस्तक के पांचवें अध्याय में लिखा है। चीन के लोग दूसरी संस्कृतियों को समझने में खूब समय और पैसा लगाते हैं जबकि हम भारतीय हॉलीवुड की फिल्मों या पश्चिम में फैले ‘इंडियन डायस्पोरा’ से मिले ‘ज्ञान’ को ही पर्याप्त मानकर कूप-मंडूक बने हुए हैं। पुस्तक में निराशा व्यक्त करते हुए सैबल कहते हैं, “देश में उद्योगों का प्रतिनिधित्व करने के लिए सैंकड़ों एसोसिएशन हैं, लेकिन चीन में इनमें से एक को छोड़कर किसी का दफ्तर नहीं है।” वह लिखते हैं कि भारतीय कंपनियां और सरकारी लोग अपना व्यापार बढ़ाने के लिए जितना प्रयास अमेरिका और अन्य विकसित देशों में करते हैं, उसका दस प्रतिशत भी चीन में कर लें तो कहीं ज्यादा लाभ हो।
पुस्तक में इक्का-दुक्का कमियां भी नजर आती हैं। हालांकि ये इतनी छोटी हैं कि इन्हें बताना भी जरूरी नहीं, क्योंकि पुस्तक की व्यावहारिक उपयोगिता है और ऐसे में उन कमियों का कोई नकारात्मक प्रभाव पुस्तक पर नहीं पड़ता। चीन के बारे में आम भारतीय की अज्ञानता के कारण हम चीन के साथ अभी तक जिस तरह के घाटे का व्यापार कर रहे हैं, उसे देखते हुए यह पुस्तक भारत सरकार के हर नीति-निर्धारक और औद्योगिक प्रतिष्ठान को ही नहीं, बल्कि आम पाठक को भी पढ़नी चाहिए।
----------------
रनिंग विद द ड्रैगन– हाउ इंडिया शुड डू बिजनेस विद चाईना
सैबल दासगुप्ता
प्रकाशक | पेंगुईन इंडिया
मूल्य ः 599 रुपये | पृष्ठ ः 240