पत्रकार और इतिहासकार अरविंद मोहन की जातियों का लोकतंत्र शृंखला की महत्वपूर्ण पुस्तक है, जाति और चुनाव। विशेष कर 18वीं लोकसभा के चुनाव के मौके पर इसका महत्व और बढ़ जाता है। जिस तरह अमीबा के बारे में कहा जाता है कि उसका विखंडन नहीं होता वैसे ही भारतीय समाज की बुनियादी इकाई यानी जाति हर स्थिति में अजर अमर बनी हुई है। वैसे तो इसका कारोबार हर मौसम में चलता है लेकिन चुनाव आते ही उसमें नई कोपलें फूटने लगती हैं। कोई भी चुनाव सिर्फ एक जाति के आधार पर नहीं लड़ा जा सकता, इसलिए तमाम जातियां, जो सामाजिक रूप से एक-दूसरे से अलग खड़ी होती हैं, चुनाव में एकजुट हो जाती हैं।
पुस्तक के उद्देश्य के रूप में चुनाव में जातियों की भूमिका समझने का संकल्प करने वाला लेखक स्वयं स्वीकार करता है कि एक सामाजिक शक्ति के रूप में जाति को समझना आसान नहीं है। एक ओर जहां आधुनिक शिक्षा का विस्तार हुआ है, वहीं समझदारी का भूमंडलीय विस्तार हुआ है, इसके बावजूद जाति जहां थी वहीं है। सभी मान चुके हैं कि चुनाव में उसकी निर्णायक भूमिका है। उससे भी बड़ी बात, जातिवार जनगणना अब चुनावी एजेंडा बन चुका है और 'इंडिया' गठबंधन के विभिन्न दलों ने उसे अपने घोषणापत्र में शामिल किया है। बिहार जैसा राज्य अपने क्षेत्राधिकार के भीतर जाति जनगणना कर चुका है और उसके आधार पर आरक्षण की सीमा भी बढ़ा चुका है। यानी अब भारतीय लोकतंत्र में जाति नई भूमिका की तैयारी में है। अरविंद मोहन ने पुस्तक के माध्यम से जाति के अध्ययन की नई संभावना व्यक्त की है। वे यह भी मानते हैं कि जिस देश में साढ़े चार हजार से ज्यादा समुदाय जातियां हों वहां इस सवाल को लेकर समाज में उतरना समुद्र में उतरने जैसा है।
भारत में जातियों की उपस्थिति अखिल भारतीय भी है, स्थानीय भी। अरविंद मोहन ने यह अध्ययन राज्यवार जातियों की उपस्थिति और चुनावी व्यवहार के तौर पर किया है। वे मानते हैं कि उत्तर प्रदेश के यादव और बिहार के यादव न तो एक पार्टी या व्यक्ति को नेता मानते हैं न उनके हित समान हैं। इसी तरह दक्षिण भारत के ब्राह्मणों और उत्तर भारत के ब्राह्मणों में बड़ा अंतर होने के बावजूद सैद्धांतिक स्तर पर कई सहमतियां भी हैं। इन विषयों को उन्होंने दो अन्य पुस्तकों में समाहित किया है।
भारतीय राजनीति और उसकी जातियों के राज्यवार अध्ययन पर सत्तर के दशक में आई माइरन वीनर और इकबाल नारायण की पुस्तकें इस प्रकार के अध्ययन का एक आधार तैयार करती हैं लेकिन अरविंद ने जातियों के व्यवहार को एक सक्रिय चुनाव विश्लेषक के तौर पर देखा है इसलिए उसमें वोट, वोट बैंक और नए समीकरण देखने की कोशिश है। यह स्वीकार्य भी है कि वास्तव में जाति के प्रामाणिक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए जो भी अध्ययन होते हैं उन पर संदेह बने रहते हैं।
लेखक ने उल्लेख किया है कि 1985 में एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया के विवरण के अनुसार भारत में 4,635 समुदाय के लोग थे, जिनमें कुछ तो पूरे देश में पाए जाते हैं और कुछ सीमित इलाकों में। चुनाव ने जातियों के इस जंगल में कहीं पर आग लगाई है, तो कहीं उन्हें राजनीतिक हितों की लताओं से बांध कर एकजुट किया है। वे कहते हैं, ‘‘ब्राह्मणों की सैकड़ों उपजातियां सिर्फ शादी विवाह के मामले में ही नहीं बल्कि वोट के मामले में भी एकजुट हुई हैं। तो कहीं पर विभाजन बढ़ा है। बिहार में मैथिल और सरयूपारी का विभाजन है, तो उत्तर प्रदेश में कनौजिया और सरयूपारी का। जबकि वैश्य नाम से अब बिहार वगैरह में बनिया से लेकर कलवार और भड़भूंज तक अब एक दल को वोट देते हैं।’’
अलग-अलग प्रदेशों की जाति संरचना की विविधता और चेतना की एक झलक वे पश्चिम बंगाल के उदाहरण से पेश करते हैं। वहां लाख कोशिश के बावजूद भारतीय जनता पार्टी उस तरह का जातिगत विभाजन नहीं कर सकी जैसा अन्य प्रदेशों, विशेषकर उत्तर प्रदेश और गुजरात में करने में सफल रही है। वजह साफ है कि वहां का समाज न तो अस्पृश्यता से ज्यादा ग्रस्त है न जातिगत विभाजन को चेतना के गहरे स्तर पर स्वीकार करता है।
इसी तरह वे केरल की राजनीति की सच्चाई को पकड़ते हुए कहते हैं कि वहां एक किस्म का संतुलित जातिवाद है। ‘अच्छी राजनीति, सच्ची राजनीति, अच्छे राजनेता और अच्छी सरकारी नीतियों का क्या फल होता है, यह देखना-समझना हो, तो केरल से बढ़िया उदाहरण कोई नहीं है।’ केरल और उत्तर प्रदेश में जाति, समुदाय और लोकतंत्र की चेतना के स्तर के अंतर को वे एक जीवंत संस्मरण के माध्यम से पेश करते हैं जो उत्तर और दक्षिण के अंतर को स्पष्ट कर देता है। अलीगढ़ मूल के अमेरिकी प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय सांप्रदायिक हिंसा का अध्ययन करने के लिए अपने कुछ सर्वेक्षण करने वालों को अलीगढ़ भेजते हैं। वहां के अखबार खबर छापते हैं कि सीआइए इस इलाके में दंगा कराना चाहता है इसलिए सर्वेक्षण करा रहा है, जबकि केरल में मोपाला विद्रोह के इकलौते साक्षी से मिलने जब आशुतोष वार्ष्णेय जाते हैं, तो वहां खबर छपती है कि ‘हिस्टोरियन मीट्स हिस्ट्री।’
केरल के सामाजिक न्याय की नीतियों में जो समझदारी है उसकी तारीफ करते हुए अरविंद मोहन लिखते हैं कि नंबूदिरीपाद, नयनार, अच्युतानंदन और एंटनी जैसे लोग प्रधानमंत्री की गद्दी संभालते, तो बेहतर नतीजे आए होते। निश्चित तौर पर भारत में जातियों, संप्रदायों और वर्गों के बीच समझदारी पूर्ण और संवेदनशील अन्योन्य क्रिया होनी अभी बाकी है। लेकिन उसके लिए जरूरत है अरविंद जैसे समझदार अध्येता और नंबूदिरीपाद जैसे संवेदनशील और प्रतिबद्ध नेता की। पुस्तक समाजशास्त्रियों, पत्रकारों, विद्यार्थियों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरक और उपयोगी है। आशा है कि जाति जनगणना के प्रामाणिक आंकड़ों के आने के बाद अरविंद इस तरह के अध्ययन को नया विस्तार दे सकेंगे, जो ज्ञान के साथ-साथ समाज के लिए भी उपयोगी होगा।
जातियों का लोकतंत्रः जाति और चुनाव
अरविंद मोहन
प्रकाशक |राजकमल पेपरबैक्स
पृष्ठः 252 पृष्ठ | मूल्यः 350 रुपये