इस संग्रह का महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि कवि यहां अस्तित्ववाद के प्रश्नों से रूबरू होते हैं। निजी और वृहत्तर तौर पर जीवन को इस विमर्श के घेरे में लाकर कवि अस्तित्व से संबंधित प्रश्नों का उत्तर पाने का प्रयास करता है। इसमें कई कविताएं समय के करवट लेने की शाश्वत सच्चाई को व्यक्त करती हैं। जीवनानुभवों के साथ व्यक्ति की उदासी भी रेखांकित होती है। एक जगह कवि कहते हैं, ‘‘धीरे-धीरे रीतती है करुणा, धीरे-धीरे संवेदनाएं बदलने लगती हैं प्रस्तर में, धीरे-धीरे सूख जाती है भावुकता की नदी, धीरे-धीरे मनुष्य परिवर्तित हो जाता है किसी यंत्र में।’’
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में आर्थिक विषमता की बात ‘कभी किसी क्षण’ कविता में की गई है। दुनियादारी नाम की शय व्यक्ति को क्या-क्या करने को मजबूर कर देती है। एक व्यक्ति की जरूरत दूसरे व्यक्ति की अवसरवादिता को जन्म देती है। दुनियावी उपलब्धियों की महत्वाकांक्षा का रास्ता बड़ी क्रूर गलियों से होकर गुजरता हैं।
‘प्रेम के अस्थि फूल’ कविता दर्शाती है कि प्यार और ब्रेकअप की दुनिया में प्रेम की मूल अवधारणा क्या है; किस तरह जो आधुनिकता से तारतम्य नहीं बिठा पाता, अपने प्रेम की अस्थियां इकट्ठी करता है।
कोरोना ने न जाने कितने लोगों को हमसे छीन लिया जो भविष्य की बड़ी संभावना थे। इस समय को कविताओं में दर्ज करना भविष्य के लिए एक दस्तावेज उपलब्ध कराना है। संग्रह का अंतिम भाग कोरोना से कवि के जूझने के अनुभवों पर आधारित है। कविताओं का एक सकारात्मक पक्ष नरभक्षी वायरस पर मनुष्यता की विजय है।
कोरोना के बाद की दुनिया में शेष प्रभाव जानने की उत्सुकता है जो दरस-परस की हिचक से लेकर मनुष्य के फेफड़ों तक में मौजूद है। इस संग्रह में विषय विविधता और लयात्मकता की भरपूर उपस्थिति है। कई महत्वपूर्ण विमर्श इन कविताओं को जरूरी बनाते हैं।
काल मृग की पीठ पर
जितेंद्र श्रीवास्तव
प्रकाशक | वाणी
पृष्ठः 127 | मूल्यः 225