वरिष्ठ कवयित्री सविता सिंह का नया संग्रह ‘वासना एक नदी का नाम है’ स्त्री-विमर्श को नई ऊंचाई पर ले जाता है। वर्ष 2001 में प्रकाशित उनके पहले कविता-संग्रह ‘अपने जैसा जीवन’ में पाठकों ने सविता सिंह के रूप में उस आधुनिक स्त्री-चेतना को देखा जो अवसाद, चिंताओं, कामनाओं को परखने की काबिलियत रखती है। जिसके पास ऐसी स्त्री-दृष्टि है, जो पितृसत्तात्मक संरचना में अपनी भागीदारी को लेकर सवाल पूछती है और उस सवाल का जवाब देने का माद्दा भी रखती है।
उनका कविता संसार बताता है कि दरअसल स्त्री चेतना की यह यात्रा, “मैं किसकी औरत हूं/ कौन है मेरा परमेश्वर से शुरू होकर, मैं किसी की औरत नहीं हूं/ अपनी औरत हूं/ अपना खाती हूं/ जब जी चाहता है, तब खाती हूं/ मैं किसी की मार नहीं सहती/ और मेरा परमेश्वर कोई नहीं, तक की है। इसी सवाल और जवाब के बीच सारा स्त्री-विमर्श समाहित है। उन्नीसवीं सदी के अंत तक स्त्री को अपने अस्तित्व, समाज, परिवार, परिवेश से अलहदा करके रेखांकित करना बड़ी चुनौती थी। बीसवीं सदी में वैश्वीकरण में बाजार ने स्त्री को अपने हिसाब से गढ़ना शुरू कर दिया था। इसी दौर में लिखी गई कविताएं स्त्री के अस्तित्व की अलग पहचान को पुख्ता कर रही थी। अब नया कविता-संग्रह वैश्विक महामारी के साक्षी होने के बाद प्रकृति के साथ स्त्री की हार्मनी स्थापित करने की इस जरूरत को रेखांकित करता है।
नए संग्रह में पाठक कवयित्री की चेतना को भिन्न पड़ावों से होकर गुजरने की यात्रा को बखूबी देख सकते हैं। सच है, स्त्री अपने अस्तित्व की पहचान के बाद ही अपने संताप, उद्विगनता, चिंताओं, आघातों के साथ अपनी वासना को परख सकती है। सविता सिंह जिस ‘स्वप्न’ को अपने पिछले कविता-संग्रहों में डिकोड करती आई हैं, वह स्वप्न, संग्रह में व्याख्यायित हुआ है। इस स्वप्न के सरोकार के केंद्र में दरअसल प्रकृति का साहचर्य ही है, जिसे पाना आज के समय में कठिन से कठिनतर होता जा रहा है। आत्म एकांत में डूबी हुई स्त्री या पुरुष ही उसे पा सकता है
ऐसा लगता है, जैसे इस नए संग्रह में सविता सिंह को अपनी ‘पोएटिक जर्नी’ का एक महत्वपूर्ण पड़ाव मिल गया है। इस पोएटिक हैबिटैट में वे स्वच्छंद होकर विचरण कर सकती हैं। अपने स्त्री-तत्व में डूबी हुई वह स्त्री (जो अपनी तमाम वासनाओं पर पर्दा नहीं डालती), कितनी सुंदर हो सकती है,
वह स्त्री अपने मनोरम होने के सत्य को जानती थी
ऐसी ढेर सारी और भी बातों को वह जानती रही है
उसके झरनों, पहाड़ों और चिड़ियों के बारे में बहुत कुछ सोचा
घास की सिहरती देह के बारे में उसके पास विरल ज्ञान है ( मनोरम, वासना एक नदी का नाम है)
सविता सिंह ने इस संग्रह के जरिए यह दिखाया है कि स्त्री की वासना किस तरह से अलग है। यह वासना के पूर्वपरिभाषित अर्थ से कहीं अलग है। इसमें मांसलता नहीं बल्कि प्रकृति का साहचर्य है, जहां सिर्फ उसके एकांत में प्रकृति का प्रवेश है जहां वह अपनी कामनाओं, अपनी वासनाओं को उसके साथ साझा कर सकती है। यह कविता-संग्रह ब्रह्मांड के उस रहस्य को और घना करता है जिसके केंद्र में प्रकृति और स्त्री है। इसी रहस्य में बंध कर यह कायनात गतिमान है। यह रहस्य कुछ और नहीं स्त्री के मन का भेद है, जहां अनेक वासनाएं फलीभूत होने के इंतजार में चक्कर काट रही हैं।
वासना एक नदी का नाम है
सविता सिंह
प्रकाशक | वाणी
पृष्ठः 100 | मूल्यः 225