चार साल पहले एक सैलाब आया था। वह बहुत कुछ बहा कर ले गया। इतिहास गवाह है कि हर महामारी के बाद दुनिया की शक्ल बदली है। हम नहीं जानते कि कोविड-19 नाम की महामारी के बाद निरंतर बदल रही दुनिया की परियोजना अभी मुकम्मल हुई है या नहीं, कब तक होगी और कैसे होगी, लेकिन इतना तय है कि 2020 के मार्च में रातोरात किया गया महामारी का राष्ट्रीय ऐलान और उसके परिणामस्वरूप की गई राष्ट्रीय तालाबंदी ने सबके जीवन पर दीर्घकालिक और बुनियादी असर अवश्य डाला है। उसकी आहट आज भी हर दिन हो रही असामान्य मौतों, उद्घाटनों और सुर्खियों में देखने को मिल रही हैं।
अभी दो महीने पहले तक भारत में लगाए गए दो कोविड टीकों कोविशील्ड और कोवैक्सिन के नकारात्मक प्रभावों से समाचारों की सुर्खियां भरी हुई थीं। बीते तीन साल से लोग हंसते-खेलते, नाचते-गाते लगातार असामान्य हृदयाघात का शिकार हो रहे थे और वैक्सीन को लेकर जनमानस में शंकाएं घर कर ही रही थीं। लोकसभा चुनाव आते-आते गांव-गांव तक लोगों में यह बात इस रूप में फैल चुकी थी कि सरकार ने ‘अच्छा वाला’ टीका विदेश भेज दिया और खराब वाला अपने नागरिकों को लगवा दिया। इसके ठीक उलट, चुनाव के बीचोबीच सातवें चरण से पहले एक समाचार एजेंसी को दिए इंटरव्यू में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दावा किया कि डिजिटल भुगतान की प्रणाली ने भारतीयों को कोविड से लड़ने में दुनिया के मुकाबले कहीं बेहतर बनाया। तब तक अमेरिका में कोरोना के नए संस्करण ‘फ्लर्ट’ की चर्चा जोर पकड़ चुकी थी। अब ताजा खबर यह है कि अमेरिका में डॉक्टर एंथनी फाउची सहित कई ऐसे प्रशासकों और वैज्ञानिकों के खिलाफ हत्या, आतंकवाद, मानव तस्करी आदि का मुकदमा कायम हुआ है जिन्होंने कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों के लिए रेमडेसिविर की पैरवी की थी।
यानी एक ओर कोविड का वायरस रंग बदलने में जुटा है, तो दूसरी ओर वह हमारे राजनीतिक और सामाजिक विमर्श से लेकर हमारे दु:स्वप्नों और शारीरिक प्रभावों में जिंदा है। जब दुनिया कोरोना से ठप पड़ी थी, तब इन प्रभावों, भविष्य के दु:स्वप्नों और आकार लेते विमर्श के बारे में बहुत से लोगों ने अपने-अपने ढंग से लगातार चेताया था। ग्लोबल अफेयर्स पर 2019 से ही लिख रहे माइकल चोस्सुदोव्सकी इनमें अव्वल थे। अरुंधती राय ने महामारी को एक ‘पोर्टल’ यानी दो दुनियाओं के बीच का दरवाजा बताया था। ‘न्यू वर्ल्ड ऑर्डर’ और ‘रीसेट’ की बातें हो रही थीं। आगम्बेन जैसे दार्शनिक मनुष्य और समाज के अलगाव से चिंतित थे। इस बीच भारत में आलोचनात्मक विवेक की आवाजें महामारी कानून के डर से अधिकांशत: ठप थीं, जिसके तहत अकेले उत्तर प्रदेश में पहले महीने में सोलह हजार के आसपास एफआइआर हुईं और देश भर में नागरिक अधिकार अघोषित रूप से ठप कर दिए गए। यानी यह महामारी केवल स्वास्थ्य की नहीं, बल्कि उसके बहाने जन अधिकारों, मूल्यों, मर्यादाओं, आजादी की हकमारी भी थी।
ये बदलाव जिस दिशा में हो रहे थे, उसे पकड़ने वाले कुछेक भारतीय लोगों में वैकल्पिक चिकित्सा और जनआंदोलनों के क्षेत्र में बराबर दखल रखने वाले डॉ. ए. के. अरुण थे, जिन्होंने सिलसिलेवार महीनों उभरती हुई परिस्थितियों पर स्तंभ लिखे। इन स्तंभों का पहला संक्षिप्त संकलन काफी पहले आ चुका था। अब दूसरा और अहम संकलन अंतिका प्रकाशन से छप कर आया है। महामारी और जन-स्वास्थ्य नाम की नई पुस्तक में डॉ. अरुण ने कोविड-19 पर एक उपचारक, समाजवैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक और राजनीतिक अर्थशास्त्रीय नजरिये से शोधपरक लेखन किया है। उस दौर में हिंदी का ज्यादातर लेखन साहित्यिक, नोस्टेल्जिक और एकांगी था। समाजविज्ञानी कोरोना के चिकित्सीय पक्ष को छोड़े दे रहे थे, तो चिकित्साविज्ञानी सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष से स्वायत्त होकर लेखन कर रहे थे। इसके उलट, डॉ. अरुण के लेखन में हमें समग्र दृष्टिकोण से पूरे मसले को समझने की सहूलियत प्राप्त होती है।
छह खंडों में छपी करीब सवा दो सौ पन्नों की इस किताब में प्रकाशित लेख अपने समय का दस्तावेज हैं। इनमें आने वाली दुनिया का अक्स हम देख सकते हैं और बीते चार वर्षों के अनुभवों से तब के लिखे की प्रतिपुष्टि भी कर सकते हैं। समय की सान पर इस पुस्तक और इसके लेखों की परीक्षा की जाए, तो यह आज की तारीख में बेहद प्रासंगिक जान पड़ेगी, यदि हम मई के आखिरी हफ्ते में आई विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट पर गौर करें जो कहती है कि जीवन प्रत्याशा में आए वैश्विक सुधार को कोविड महामारी ने महज दो वर्षों (2019-21) के दौरान एक दशक पीछे धकेल दिया है। अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव प्रचार में तो यह भी सामने आ रहा है कि कोविड-19 कोई वायरस नहीं, एक राजनीतिक परियोजना थी।
महामारी और जन-स्वास्थ्य
ए. के. अरुण
प्रकाशन | अंतिका
पृष्ठ: 224 |मूल्य: 350 रुपये