दशकों के एकत्रित किए गए अनुभवों से बने व्यक्तिगत लेखनशास्त्र को साझा करती सुधांशु गुप्त की पुस्तक साहित्य में ‘अप्रोच’ को रेखांकित करती है। इसलिए कि आलोचक द्वारा रचे गए साहित्य का अच्छा भंडार तो हिंदी में मिलता है पर इस तादाद में पाठक केंद्रित समीक्षाएं एक ही जगह कम देखने को मिलती हैं। यही इस किताब की विशेषता है। यह अकादमिक आलोचनाओं के बरक्स पाठकीय समीक्षाओं का संग्रह है।
लेखक ने इन्हें लंबे अर्से, लगभग 5 साल के अंतराल में लिखा है। तमाम समीक्षाएं साहित्य के एक बहुत बड़े हिस्से की बात करती हैं। इसके चार खंडों, ‘साहित्य का ग्लोब’, ‘कहानी की जमीन’, ‘कहानी का नया चेहरा’ और ‘उपन्यास की अंतर्कथा’ में पिछले 200 साल के महत्वपूर्ण विदेशी कृतियों, हिंदी साहित्य के उल्लेखनीय साहित्यकारों, युवा रचनाकारों और अहम उपन्यासों पर बात करते हैं।
किताब सहजता से, बिना किसी बड़ी घोषणा के, अपनी बात करती दिखाई देती है। ‘नेपथ्य में विमर्श’ विशेषज्ञ की आलोचना और पाठक की टिपण्णी के बीच लेखकीय पुल बनाने का काम करती है। हालांकि लेखकों द्वारा समीक्षाएं लिखी जाती हैं, पर उनमें से ज्यादातर आलोचना होने का ही प्रयास करती हैं, जबकि इस किताब के लेख में पाठक समीक्षा और आलोचना के बारीक अंतर को बखूबी समझ सकते हैं। समीक्षा में व्यक्तिगत राय पुस्तक के असर को कम करती है। लेखक ने इन्हीं बातों को विस्तार से यहां बताने की कोशिश की है।
इन समीक्षाओं के जरिये वे साहित्य की अपनी समझ को जांच और निखार रहे हैं और किसी लेखक या रचना को कोई तमगा नहीं दे रहे हैं। इस तरह कि ‘वल्नेरेबिलिटी’ साहित्यिक समीक्षाओं की दुनिया में आने वाला बहुत ही ताजगी भरा अनुभव है। किताबें पढ़ने और समझने वाले सभी व्यक्तियों को इसे पढ़ना चाहिए।
दरअसल पाठक जब किसी पुस्तक की समीक्षा पढ़ते हैं, तो उनका एक मानस बनता है कि पुस्तक खरीदी जाए या नहीं। पढ़ने या न पढ़ने का महत्वपूर्ण फैसला समीक्षा पर ही निर्भर करता है। ऐसे में भाषा, प्रवाह, कथा वस्तु जैसी ठोस बातों पर बात हो, तो पाठकों को सुविधा होती है।
नेपथ्य में विमर्श, कुछ किताबें कुछ बातें
सुधांशु गुप्त
प्रकाशन |भावना
पृष्ठ: 327 | मूल्य: 500 रुपये