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20 जनवरी 2025 · JAN 20 , 2025

पुस्तक समीक्षाः गांधी पर आरोपों के बहाने

किताब कहती है कि गांधी ने राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में बड़ी क्रांति का उदाहरण प्रस्तुत किया
गांधी की आलोचना के सटीक जवाब

गांधी की हत्या के 76 साल बाद भी जिस तरह उन पर गोली दागने का जुनून जारी है, उस वक्त में इस किताब की बहुत जरूरत है। कुछ लोगों के लिए गांधी कितने असहनीय हैं कि वे उनकी तस्वीर पर ही गोली दागते रहते हैं? लेखक कहते हैं, “ये वही लोग हैं, जिनके लिए राष्ट्र का अर्थ सिर्फ जमीन का टुकड़ा है, जिनका राष्ट्रवाद सिर्फ धार्मिक प्रतीकों तक सिमटा है।” लेखक का मानना है कि ऐसे ही लोग भारत विभाजन के लिए गांधी को जिम्मेदार ठहराते हैं। विरोधाभास यह भी कि ये लोग ही अखंड भारत का सपना भी पालते हैं। लेखक सवाल उपयुक्त है कि “न सिर्फ भारत और पाकिस्तान के बीच बल्कि देश के भीतर भी हिंदू और मुसलमान के बीच नफरत की आग भड़काकर क्या अखंड भारत के सपने को साकार किया जा सकता है?”

गांधी की आलोचना के लिए जो-जो मुद्दे उठाए जाते हैं, उन सबसे हम परिचित हैं और इस किताब में एक-एक करके सबका बहुत कायदे से जवाब दिया गया है- चाहे वह देश के बंटवारे का मुद्दा हो या गांधी की अहिंसा को कायरता बताना। या गांधी के रामराज्य के बहाने उन्हें हिंदू राष्ट्रवादी घोषित करने या उन्हें स्त्री-विरोधी बताने की कोशिश हो या मशहूर पूना पैक्ट के बहाने गांधी और आंबेडकर के बीच के मतभेद को बढ़ा-चढ़ाकर उछालने का मामला हो। लेखक का कहना है कि गांधी द्वेषियों को गांधी को हिंदू राष्ट्रवादी साबित करने की जरूरत इसलिए महसूस होती है कि एक तो गांधी विचार की प्रासंगिकता को खत्म करने की उनकी तमाम कोशिश नाकाम होती रही हैं; दूसरे, उनके पास वैश्विक अपील वाला कोई नायक नहीं है। लेखक ने गांधी की आलोचनाओं का ही जवाब नहीं दिया है, गांधी के विचारों, प्रयोगों, रचनात्मक कार्यक्रमों, खादी, उनकी वैज्ञानिकता आदि का भी अलग-अलग अध्यायों में सकारात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया है।

किताब कहती है कि गांधी ने राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में बड़ी क्रांति का उदाहरण प्रस्तुत किया। देश को आजाद कराना उनकी राजनीतिक क्रांति का लक्ष्य था, तो “शोषणमुक्त, समानता पर आधारित और प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करके चलने वाले समाज का निर्माण उनकी सामाजिक क्रांति का मुख्य लक्ष्य था।” इसके लिए गांधी ने तीन उपकरणों का सहारा लिया- सत्यनिष्ठा, अहिंसा और आंतर-बाह्य एकता यानी जैसी कथनी वैसी करनी। गांधी के आलोचक अहिंसा को कायरों का सहारा बताते हैं, हालांकि गांधी इसका कई बार खंडन कर चुके हैं। गांधी की अहिंसा के संदर्भ में लेखक ने एक दिलचस्प घटना का जिक्र किया है। गांधी के वर्धा आश्रम की कुछ महिलाएं एक शाम टहलने के लिए बाहर निकलीं तो कुछ लफंगों ने उनके साथ छेड़खानी करने की कोशिश की। वे भागकर वापस आश्रम में आ गईं। गांधी को जब इसकी जानकारी मिली, तो उन्होंने उन महिलाओं को बुलाया और कहा कि तुमने उन युवकों को पलटकर थप्पड़ क्यों नहीं मारा? उन महिलाओं का जवाब था कि यह तो हिंसा होती। गांधी ने उन्हें समझाया कि तुम अपनी कमजोरी को अहिंसा के खोल में छिपा रही हो। डरकर भाग आने की जगह थप्पड़ मारना मैं उचित मानता हूं। लेखक का कहना है कि गांधी की अहिंसा में तटस्थता नहीं संपूर्ण प्रेम था, तभी अंग्रेजों का घोर प्रतिकार करते हुए उनमें उनके प्रति कोई द्वेष नहीं था।

पुस्तक में पूना समझौते और गांधी-आंबेडकर संबंध पर विस्तार से चर्चा की गई है। दलितों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल के गठन के सवाल पर गांधी और आंबेडकर के अपने-अपने जो ठोस तर्क थे उनका विश्लेषण किया गया है और बताया गया है कि पूना समझौते में आंबेडकर की तीन शर्तों को गांधी किस तरह कबूलते हैं और आंबेडकर प्रांतीय एसेंबलियों में दलितों के लिए सीटों के आरक्षण में वृद्धि की पेशकश के बाद पृथक निर्वाचन मंडल के गठन के आग्रह को किस तरह छोड़ देते हैं। इस सारे घटनाक्रम का विस्तृत विवरण पुस्तक में है। वैसे, कहने को गांधी-आंबेडकर विवाद पर प्रसिद्ध पत्रिका धर्मयुग के सहायक संपादक रहे गणेश मंत्री की किताब ‘गांधी और आंबेडकर’ का एक उद्धरण यहां प्रस्तुत करना प्रासंगिक लगता है। मंत्री जी ने लिखा है, “आज गांधी और उनसे भी ज्यादा आंबेडकर के अनुयायी उनके एक-एक विचार और एक-एक कार्य को कमोबेश ईश्वर का कथन बताने में जुटे हैं। इसी का परिणाम है कि अन्यायपूर्ण जाति-व्यवस्था के विरुद्ध एकजुट संघर्ष करने के बजाय सामाजिक क्रांति की शक्तियां न सिर्फ बंटी हुई हैं वरन एक-दूसरे की काट करने में अपनी संपूर्ण शक्ति नष्ट कर रही हैं।”

बहरहाल, जहां तक गांधी को समझने की बात है, लेखक की यह टिप्पणी उल्लेखनीय है, “गांधी के जीवन और विचारों को आसानी से समझने के लिए हमें किसी बच्चे-सा सरल होना पड़ेगा।’’ इसके लिए लेखक ने कुछ ‘की वर्ड्स’ या कहें कुंजियां सुझाई हैं। जैसे- सत्यनिष्ठा, साधन शुचिता, कथनी-करनी में समानता, निर्भयता, निरंतर विकासशीलता यानी जड़ता से मुक्ति और समाज के अंतिम व्यक्ति की चिंता वाला ‘गांधी जंतर।’ लेकिन असली सवाल तो यही है कि क्या हममें अब भी उतनी सरलता बाकी है?

गांधी के बहाने

पराग मांदले

प्रकाशक | सेतु प्रकाशन

पृष्‍ठ: 186 |मूल्‍य: 275 रु.

 

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