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12 मई 2025 · MAY 12 , 2025

पुस्तक समीक्षा: गिरीश का स्वतंत्र आकाश

यह कृति शुरू से ही गिरीश कर्नाड की ऑक्सफोर्ड के रोड्स स्कॉलर के रूप में दर्शन शास्त्र, राजनीति शास्त्र और अर्थशास्त्र की शिक्षा की 1960-63 तक की लंबी पारी पर टिकी है, पर उस पर आश्रित नहीं है
गिरीश कर्नाड की दास्तान

सर्वप्रथम बेंद्रे की कविता से चुने गए, संस्मरणों की इस अनुपम कृति में समाए सारगर्भित-विस्मयों की छाप ही पाठक को चमत्कृत करती है। “पलक झपकते ही दिन बीत जाते हैं, यह जीवन खेल में!” बेंद्रे अपनी इस कविता की परतों से ही गिरीश कर्नाड के इस जीवनीपरक वृहत पाठ में ऐसे ही समाए हैं जैसे कि कवि, प्रो. ए.के. रामानुजन या कई वैश्विक कवि! या जैसे बचपन और अतीत में पश्चिमी घाट के घने जंगलों से घिरा सिरसी गांव! वहां का मारिकाम्बा स्कूल! और... वहां से धारवाड़ तथा कर्नाटक कॅालेज तक के आधुनिक नाटकीय जीवन के केंद्र में रहे सुसंस्कारी और उत्प्रेरक जोशीले माता-पिता, खुद की लिखी सर्वोत्तम नाट्य-लीलाएं (हयवदन, तुगलक, नागमंडल, डोरे इडिपस) और ऑक्सफोर्ड में दर्शनशास्त्र, राजनीति विज्ञान, गणित में विशिष्ट पारंगता से कहीं पहले इलियट और ऑडेन, पी.जी.वोडहाउस, पर्ल एस बक, तेनजिंग नोरले का अध्ययन या संग।

 ये भी उनके जीवन में कोई अंतिम हस्ताक्षर नहीं है। उनके आजीवन मित्र रहे अनंतमूर्ति, कृष्णा बसरूर, गोपी, वी.के. गोकक, ओरोरा फिगेरेडो, कीर्तिनाथ कुर्ताकोटी, फ्रैंच के प्रोफेसर काशीनाथ, कैम्ब्रिज में पढ़े शाह, कन्नड़ साहित्य के संस्थापक अलुरु वेंकट राव, जो गिरीश जी को बेसल मिशन स्कूल के कन्नड़ के शिक्षक के घर मिले थे। स्थानीय कवि चेन्नवीरा कानवी और अंग्रेजी साहित्य के प्रकाशन की दुनिया में मिले रवि दयाल तथा चार्ल्स लुईस, शशि कपूर, बी.वी. कारंत, गोविंद निहलाणी। उनकी प्रेमिल-दोस्तियां भी खासा खुली-खुली थीं, जिन्हें उन्होंने छिपाया नहीं। उनके इन संस्मरणों में पत्नी सरस और दो बेटे-बेटियों शाल्मली और रघु की समरसता में भी विवेकशीलता और दृष्टि तथा सोच में बराबरी की प्रमुखता का ही मान झलकता है। रघु के साथ तो उन्होंने नए-पुराने बेंगलूरू की संस्कृति पर लिखने में साझेदारी की है, जिसका हवाला इस “अर्धकथानक” के उपसंहार के अंत में काफी दिलचस्प बन पड़ा है।

यह कृति शुरू से ही गिरीश कर्नाड की ऑक्सफोर्ड के रोड्स स्कॉलर के रूप में दर्शन शास्त्र, राजनीति शास्त्र और अर्थशास्त्र की शिक्षा की 1960-63 तक की लंबी पारी पर टिकी है, पर उस पर आश्रित नहीं है। ऑक्सफोर्ड के अलावा मद्रास, बॉम्बे और श्रंगेरी (‘संस्कार’) तथा पुराना मैसूर (न्यू वेव) ‘वंश वृक्ष’ के अनुभव भी गिरीश कर्नाड को संपूर्ण जानने का सुनहरा अवसर देते हैं। तिस पर इसे ‘अर्ध-कथानक’ कहा गया है। जैसे उत्तरकाल के जीवन के अनिवार्य-पड़ाव की सारमयता, नास्तिकता, ईश्वर और अध्यात्म के अबूझे रहस्य कन्नड़ में ही– सोचे गए भावी शीर्षक “नोदनोदता दिनमाना" के प्रसंगों में भी आना/लिखा जाना तय था। संस्मरण या इस जीवनी का दूसरा भाग उनके बेंगलूरू में 10 जून 2019 में संसार से चले जाने के कारण अधूरा रहा। उसकी वह शुरुआत कर चुके थे।

अपनी फिल्म-यात्रा में मंथन से कलधन और एक था टाइगर तक ग्राफ या जीवन की अन्य ख्याति/ग्लैमरस पुरस्कार समारोहों का ककहरा बांचे जाने से बचना भी एक लक्ष्य गिरीश जी का रहा। निशांत, स्वामी, और ईश्वर, काडू, लाइफ गोज ऑन और इकबाल तथा उत्सव के चरित्र जरूर उन्हें एक अलग पहचान दे गए हैं। उनके सिने-क्लासिक्स में रूढ़ ब्राह्मणवाद पर चोट करते संस्कार और वंश वृक्ष केंद्रित उनके पाठ भी उनकी निर्देशन कला में निखार का जायजा देते हैं। हालांकि पट्टाभि और उनकी पत्नी फिल्म की नायिका स्नेहा के अहंकार के कारण नाम दूसरे के ही गए। अलबत्ता, ऑस्ट्रेलिया से आए टॅाम को संस्कार के सौन्दर्य-बोध को बरकरार रखने का पूरा श्रेय जाता है, जिन्होंने इस फिल्म का छायांकन किया था। पट्टाभि ने बाद में तीन और फिल्मों का निर्देशन किया। उनमें चन्दा मारुथा आपातकाल के विरोध में थी। संस्कार के संवादों, पटकथा, संपादन और सेट्स-आकल्पन में भी कर्नाड की प्रतिभा का वह विस्फोट खूब सामने आया था। वह उसे पथेर पांचाली जितनी ही ऊंचाई तक आंकते हुए पट्टाभि-स्नेहा के उपजाए तनावमय वातावरण में भी निर्मित कर पाए। सत्‍यजित राय की प्रतिद्वंद्वी को संस्कार ने टक्कर दी। अल्काजी और मृणाल सेन को कर्नाड का अभिनय बहुत सहज लगा। संस्कार से कन्नड़ में कला फिल्मों की नई लहर महसूस की गई। एक पत्रकार राजेन्द्र राव ने फिल्म की छवि को बिगाड़ा तो सेंसर बोर्ड ने संस्कार को प्रतिबंधित कर दिया। ट्रिब्यूनल में यह झंझट दिल्ली में खत्म हुआ। 95,000 रुपये फिल्म में लगाने वाले सुरेन्द्रनाथ ने फिर कभी नहीं कहा, ‘‘हाय, मैं तो खत्म हो गया!!” बाद में सरकार ने उसे ही स्वर्ण-कमल से नवाजा।

 विजय तेंडुलकर और हबीब तनवीर की चर्चा कर्नाड ने घाशिराम कोतवाल (कन्नड़ उच्चारण) और चरणदास चोर पर हयवदन के प्रभाव ग्रहण के अस्वीकार के कारण की है। अल्काजी, सत्यदेव दुबे, सुरेश अवस्थी, दिशांतर, ओम शिवपुरी, अमरीश पुरी, नसीर की चर्चा के अलावा बॉम्बे में इप्टा और पृथ्वी थियटर के साथ ही कला महारथियों में सूजा, रजा, हुसैन सहित सात प्रोग्रेसिव, पेंटर, मंडली की भी बात करना, वे नहीं भूले हैं। पर पुणे में फिल्म ऐंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट में उनके दौर में चली हड़तालों में दिल्ली से आए नसीर और जसपाल की भड़काऊ भूमिकाओं का दुखी मन से हुआ वर्णन, नसीर के एक अलग बर्ताव को भी सामने ले आया है।

बाद में श्याम बेनेगल की दो फिल्मों निशांत और मंथन में उनके काम का भी जिक्र है। रंगमंचीय क्षेत्र में उनके सबसे सुंदर नाटक नागमंडल की ख्याति हयवदन, तुगलक, रक्त-कल्याण से भी ज्यादा है। यह परिवार भी महसूस करता था। कर्नाड की रचनात्मक दुनिया आधुनिक- रंगमंच, स्वतंत्र-सिनेमा, दूरदर्शन तक अपने विस्तार के बाद भी अंतत: नाट्य-लेखन में ही शिखर तलाश करती रही। उन्होंने प्राचीन नृत्य नाटक रूप ‘कुटियाट्टम’ को बचाने की भी पहल की। वहीं जैसे उनकी स्वयं सिद्धि का अन्य मार्ग था। कलाओं की भाषा से संपन्‍न गिरीश कर्नाड कभी तस्लीमा नसरीन, हुसैन के समर्थन में आगे आए, तो अरुणा राय का अनुरोध नहीं टाल सके, जो उन्हें सबके लिए पेंशन की मांग कर रही औरतों को मुकाम तक ले गई थी।

एम.एम कुलबर्गी मारे गए तो वे अप्पा गौरी लंकेश के साथ विरोध करते खड़े थे। दो साल बाद लंकेश की हत्या हुई तो वे उस हत्या के विरोध-प्रदर्शन में शामिल थे। 2018 में उनकी बरसी पर टाउन हाल भी गए थे। यह किसी भी स्वतंत्र-चेता को ‘अर्बन–नक्सल’ घोषित करने का दौर था।                            

गिरीश कर्नाड की यह संस्मरणात्मक कृति आरंभ से अंत तक किसी बेहद सुंदर चलचित्र का सा अनुभव भी बटोरे हुए है। जहां 1973 की एक दोपहर भोजन के दौरान धारवाड़ में आई (मां) कृष्णा बाई और पिता से ही सीधे सवाल है- अपने इस संसार में आने न आने के बारे में! अंतत: उस डॉक्टर के बारे में, जो उपलब्ध नहीं होने का रहस्य बड़े संकोच में खुद आई और पिता द्वारा टाला या बताया जा रहा था। तब तक संस्कार को राष्ट्रपति का स्वर्ण पदक मिल चुका था और वंश वृक्ष की सफलता के बाद उन्हें पुणे के फिल्म संस्थान का निदेशक भी नियुक्त किया जा चुका है। ऐसे विरले अवकाश में घर आत्मतोष से भोजन की घड़ी में गमक रहा है। मगर यह सवाल आई ने बप्पा की ओर देखते हुए उछाल ही दिया, “हम सोच रहे थे इसे (गिरीश को) पैदा ही न करें!” यह शुरुआती संवाद किताब के मुखड़े के तौर पर 19 मई 2011 को गिरीश कर्नाड ने सहज ही उद्घाटित किया है। और फिर अपने जनक के ऐसे दुर्लभ-संकोचों को भी पढ़ने का मौका दे दिया है।

बड़े आकार की इस पोथी में एक बायोपिक के ओपनिंग-शॉट की लपक है तो अंत का फ्लैशबैक खुद की शादी का है। जब आंखों में उस पवित्र–माहौल में धुआं इतना आक्रामक हो चल था कि वर-वधू की आंखें सूजी हुई थी। शशि कपूर की उपस्थिति के कारण मंत्र बढ़ते ही जा रहे थे। तिस पर दूल्हा जल्दी विवाह संपन्‍न कराने का निवेदन करता है तो यह मीठी डांट सुननी पड़ती है। यह समापन और आरंभ गिरीश कर्नाड के कलमकार से मानो एक फिल्म निर्देशक और पटकथाकार ने लिखवाया हो। इसका मधु बी. जोशी ने ह्रदय से तर्जुमा किया है। कन्नड़ से अंग्रेजी में तर्जुमा करने वाले अनुवादक श्रीनाथ पेरुर ने भी वैसा ही कमाल किया होगा, जिन्होंने नाम दिया, “दिस लाइफ ऐट प्ले” अंग्रेजी अनुवाद पूरा होने से पहले ही कर्नाड इस संसार से विदा ले चुके थे।

 

यह जीवन खेल में {संस्मरण}

गिरीश कर्नाड

प्रकाशक | हार्पर (हिन्दी)

हार्पर कालिन्स पब्लिशर इंडिया

कीमतः 399 रुपये | पृष्ठः 291 

 

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