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26 मई 2025 · MAY 26 , 2025

पुस्तक समीक्षा: ये संस्कृति स्वतंत्रता सेनानियां

इसमें 33 ऐसी तवायफें हैं, जिनका समय 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम से लेकर स्वतंत्रता आंदोलन और आजादी के बाद के शुरुआती वर्षों तक फैला है
भूले-बिसरे संस्कृति विमर्श को मुख्यधारा की बहस में लाने वाली किताब

कवि-पत्रकार विमल कुमार हाशिए के रचनाकर्म, भूले-बिसरे संस्कृति विमर्श को मुख्यधारा की बहस में लाने में लगातार सक्रिय हैं। प्रतिरोध की कविता, स्‍त्री-लेखन तथा संस्कृति कर्म, स्वतंत्रता आंदोलन में स्त्रियों की भूमिका के विरले पहलुओं की तलाश जैसे उनके विशेष कार्य-क्षेत्र बन गए हैं। वे स्‍त्री लेखा पत्रिका और स्‍त्री दर्पण वेबसाइट के संपादक भी हैं। लिहाजा, वे स्‍त्री-विमर्श का दायरा लगातार व्यापक करते जा रहे हैं। इस कड़ी में तवायफनामा एक अनोखा प्रयास है। कविता में पिरोया यह ऐसा भूला-बिसरा इतिहास है, जिसके बिना न हम अतीत को ठीक-ठीक समझ सकते हैं, न वर्तमान में संस्कृति-संगीत की धाराओं को। बेशक, स्वतंत्रता आंदोलन के विराट दायरे और उसकी धड़कन की व्यापकता की समझ भी अधूरी रह जाती है। तवायफनामा उन सिरे से बिसरा दी गईं तवायफों का काव्य पोर्टेट है, जिन्होंने ‘‘अपने हुनर, आत्म‍विश्वास, लगाव, लगन, प्रतिभा और काम के प्रति समर्पण भाव से स्‍त्री सशक्तीकरण का इतिहास ही रच दिया।’’ बेशक, बेगम अख्तर या नरगिस की मां जद्दन बाई जैसे चर्चित नाम भी हैं, लेकिन ज्यादातर अब गुमनाम।

इसमें 33 ऐसी तवायफें हैं, जिनका समय 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम से लेकर स्वतंत्रता आंदोलन और आजादी के बाद के शुरुआती वर्षों तक फैला है। और दायरा बनारस, दिल्ली, लाहौर, कराची, बंबई, इलाहाबाद, आगरा, लखनऊ, कलकत्ता, पुणे, पटना, गया, मुजफ्फरपुर, बीकानेर, आरा, मुंगेर, भागलपुर तक देश में तब के तमाम शहरों तक व्यापक था। इन गायिकाओं को विमल अपनी भूमिका में ‘‘भारतीय स्‍त्रीवाद की नायिकाएं’’ कहते हैं, जिनके ‘‘बिना स्‍त्री-विमर्श अधूरा है।’’ इन गायिकाओं में कई स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ी थीं और गोपनीय ढंग से क्रांतिकारियों की मदद करती थीं। विमल लिखते हैं कि काशी की विद्याधर बाई के अनेक किस्से प्रचलित हैं। यह जानकारी आज चौंका सकती है कि महात्मा गांधी की प्रेरणा से काशी में वेश्या संघ की स्थापना हुई थी और उसकी पहली अध्यक्ष हुस्ना बाई थीं। हुस्ना बाई से गांधी का लंबा संवाद हुआ था। गांधी की सलाह थी कि वे कोठे का जीवन छोड़कर चरखा चलाएं। हुस्ना बाई ने तीखे सवाल किए और अस्तित्व और आजीविका के सवाल उठाए।

इसी तरह यह भी जिक्र है कि गांधी ने कलकत्ता की गौहर जान से 1920 में स्वराज फंड के लिए चंदा जुटाने की खातिर एक समारोह करने का आग्रह किया था। गौहर जान उस समय गायिकी की बुलंदियों पर थीं। उन्होंने गांधी के सामने एक शर्त रखी कि गाना सुनने उन्हें खुद आना होगा। किसी कारणवश गांधी खुद नहीं आ सके। उन्होंने पैसे लेने के लिए शौकत अली को भेजा। गौहर जान इस बात से नाराज हो गईं और 24,000 रुपये की आय में से आधा ही शौकत अली को दिया। यह आज के हिसाब से करोड़ों की राशि थी। गांधी ने बनारस की विद्याधरी से देशभक्ति के गाने लिखने और लोगों को जागृत करने को कहा, तो उन्होंने ऐसा ही किया। इससे गांधी की सक्रियता और विचारों की विराटता तो पता चलती है, इन तवायफों और गायिकाओं के चरित्र के अनेक पहलू भी उजागर होते हैं।

गांधी ही नहीं, तमाम क्रांतिकारियों से तवायफों के जुड़े रहने, उनकी हर तरह से मदद करने, देश के लिए सब कुछ न्यौछावर करने के किस्से भी इन तवायफों के साथ जुड़े हुए हैं। संगीत, नृत्य, गीत की अनेक शैलियों को निखारने-संवारने और अगली पीढि़यों को सौंपने का उनका योगदान अद्वितीय है। विमल भूमिका में अनेक ऐसी गायिकाओं का जिक्र करते हैं, जिनके बारे में आज कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। साथ ही वे मध्ययुग, प्राचीन और बौद्ध काल की अनेक गणिकाओं, नगरवधुओं के बारे में बताते हैं, जिनका संगीत, शिक्षा, संस्कृति के क्षेत्र में योगदान पर विस्तृत शोध करने की दरकार है।

उनके स्‍त्री स्वाभिमान, स्‍त्री अधिकारों के लिए संघर्ष के किस्से भी रोचक और महत्वपूर्ण हैं। इसमें उन पर लिखी अनेक किताबों का भी जिक्र किया गया है और यह भी बताया गया है कि कैसे पितृसत्तात्मक समाज की वजह से संगीत अैर कला की इन देवियों को बदनाम पेशे की ओर जाने को मजबूर किया गया, चाहे समाज की उपेक्षा से या अन्य कारणों से। विमल प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान राधावल्लभ त्रिपाठी को उद्धृत करते हैं कि ‘‘प्राचीन काल में उन्हें गणिकाएं ही कहा जाता था और वेश्या शब्द का अर्थ देह-व्याेपार करने वाली नहीं, बल्कि वेशभूषा धारण करने से बना है।’’ विमल कहते हैं, ‘‘अगर ये गणिकाएं या बाद के दौर में तवायफें नहीं होतीं तो हमारे पास समृद्ध संस्कृति नहीं होती, उसकी विरासत नहीं होती।’’

कविताएं उनका ऐसा चित्र खींचती हैं कि उनकी कहानी तो जीवंत हो ही उठती हैं, आज के दौर की विच्छृंखलताओं, त्रासदियों और विकृतियों का भी एहसास कराती चलती हैं। कज्जन बाई के लिए कवि कहते हैं, ‘‘अच्छा हुआ कज्जन बाई/तुम चली गई/मुल्क के आजाद होने से पहले/ आज होती अगर तुम जिंदा/ तो देखती/ गंगा में बहती लाशों को...तो देखती/किस तरह मचा हुआ यहां हाहाकार है/चारों तरफ मृत्यु की पुकार है/ मरघट की तरह अब संसार है।’’ करीब 15 साल पहले प्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका विद्या शाह ने भूली-बिसरी गायिकाओं पर एक प्रदर्शनी लगाई थी। विमल को उस प्रदर्शनी ने बहुत आकर्षित किया। संभव है, उनके मन में इस किताब का बीज उसी दिन पड़ गया हो। यह सिर्फ कविताओं की पुस्तक नहीं, बल्कि गायिकाओं का एक इतिहास है। यह पठनीय और संग्रहणीय भी है।

तवायफनामा

विमल कुमार

प्रकाशक | पुस्तकनामा

कीमतः 250 रुपये

पृष्ठः 143 

 

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