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9 जून 2025 · JUN 09 , 2025

पुस्तक समीक्षाः आंचलिक आख्यान के उर्वर विचार

मिट्टी की सौंधी खुशबू और अनगिनत अनुभव वाली किताब
सामाजिक बुनावट का आख्यान

माटी में सनी-गुंथी बोली-भाषा में फूटते विचारों के बिरवे अगर कोलाहल मचाने लगें और आपके सोच-विचार की दीवार में एक नई खिड़की खोल दें, तो वह रचनाकर्म अनोखे सर्जन की कसौटी लांघने को तत्‍पर दिखता है। रवीन्‍द्र भारती का उपन्‍यास जगदम्‍बा ऐसी ही सामाजिक बुनावट का आख्‍यान है, जो सवाल खड़ा करता है और फिर नए विचार की राह प्रशस्‍त कर देता है। बुनावट इतनी बारीक है कि एक भी शब्‍द या संवाद हिलाना मुश्किल है। हर शब्‍द जैसे किसी मुहावरे की तरह प्रयुक्‍त होता है, जिसमें मिट्टी की सौंधी खुशबू और अनगिनत अनुभव गूंजते लगते हैं। भाषा ऐसी प्रवाहमय और मीठी कि पढ़कर मन जुड़ा जाए। अरसे बाद ऐसे आख्‍यान के लिए रचनाकार विशेष महत्‍व दिए जाने के हकदार हैं। बेशक, यह आख्‍यान आंचलिक है, मगर इसका विन्‍यास, मीमांसा और संदेश सार्वभौमिक है।

पत्रकार, कवि, नाटककार भारती हिंदी जगत में संगीतमय रिपोर्ताज के लिए जाने जाते रहे हैं, जो स्थितियों की मार्मिकता और कारुणिकता के बारीक ब्‍यौरों से ही सवालों को जगाते हैं और नए विचारों के द्वार खोलते हैं। उनका इधर का नाटक हुलहुलिया जबरन अपनी जमीन से उखाड़ दिए गए और इस दौर में बिना कागज के पहचान से वंचित लोगों की कथा है, जो अपने देश में और दूसरी जगहों पर स्‍टेटलेस होने का अपमान और अत्‍याचार झेलते भटकने को मजबूर हैं। उपन्‍यास में उनका यह रचनाकर्म अपनी बुलंदी पर है।

जगदम्‍बा मूल में स्‍त्री-कथा है, जो परंपरा और मिथकीय कथानकों से ही सबसे वंचित और अधिकारहीना बना दी गई है। उसकी जमीन बिहार है। लेकिन इसमें समाज, राजनीति, आर्थिकी के परंपरागत और बदलते रूपों का विशद चित्रण है, जो इसे क्षेत्र के दायरे और स्‍त्री-पुरुष के वितान से काफी आगे ले जाता है। धर्म, अंधविश्‍वास, सामाजिक परतों में छुपे अन्‍याय और अपमान का ताना-बाना है और उसे बदलने की छटपटाहट भी है। नए विचार उन्‍हीं पात्रों से सृजित होते हैं, जो इसे बदल देना चाहते हैं, लेकिन बार-बार छलावे के भी शिकार हो उठते हैं।

कथा इसी कसौटी पर राजनीति और चुनवी राजनीति की निरंतर भयावहता और मकड़जाले की तरह घेरती विद्रुपता को भी कसती है। इसी पलड़े पर राजनैतिक सिद्धांत भी तौले जाते हैं। कथा में स्‍वतंत्रता संग्राम से उपजी ऊर्जा और आजादी के बाद हर रंग-पांत की राजनीति के बदलते स्‍वरूप को देखा जा सकता है, जो घटते-घटते धर्म और जाति पहचान के इर्द-गिर्द सिमट आती है और अंत में कुछ सियासी शख्सियतों तथा मठाधीशों और पैसेवालों का खिलौना बन जाती है। यही नहीं, राजनैतिक सिद्धांतों और उसकी गोलबंदी या पार्टियों को फर्क जैसे धुंआ हो गया है। समाजवाद वगैरह के तो नाम भर बच गए हैं, सामाजिक न्‍याय की रेखाएं भी धुंधली हो गई हैं, जिनमे एक नैतिक आग्रह और बराबरी का समाज बनाने की टेर थी।  लोगों के लिए राजनीति बड़े नेता से ‘सटने’ और ‘मुखिया, एमएलए, एमपी, राज्‍यसभा मेंबरी’ पाने जैसी वासना का ही दूसरा रूप बन जाती है। इसकी वाजिब सीढ़ी भ्रष्‍टाचार और अपराध बन जाती है, जो नैतिक सवालों से ऐसे विरत हो जाती है, मानो वे दकियानूसी विचार हों। कथा में ऐसे पात्र हैं जो सहज बुद्धि से ऐसे सवालों को जगाते हैं, लेकिन हार जाते हैं। एक संवाद देखिए, ‘‘रामजी तो सबके रखवाले हैं, फिर उनको हम भक्‍तों की रक्षा की जरूरत क्‍यों पड़ गई। और तुमको दरकार है कि राम जी को।’’

यह सब कुछ उसी स्‍त्री-कथा के इर्द-गिर्द बुना गया है, जहां अधिकार हासिल करने और उन्‍मुक्‍त आकाश में उड़ने की छटपटाहट है। उन्‍हें उड़ने की इजाजत है, तो बस उनके लिए पुरुष के खींचे आकाश में। वरना वे पतुरियां कहलाएंगी। कई बार देवी कहकर भी उन्‍हें एक खांचे में बांधने की कोशिश होती है या फिर जगदम्‍बा बनाकर पर कतर दिए जाएंगे। जगदम्‍बा वह है जो शादी करने से इनकार करे। यही जगदम्‍बा उपन्‍यास में सवाल करती है कि शादी का मतलब पुरुष के सोना क्‍यों होना चाहिए? तो वह जगदम्‍बा समूची व्‍यवस्‍था से विद्रोह की अद्भुत प्रतीक बन जाती है। फौरन रेणु के मैला आंचल के पात्रों या प्रेमचंद की कहानी कफन में घीसू की याद आ जाती है, जो कहते हैं कि अगर फल शोषकों को ही मिलता हो तो काम करो ही क्‍यों। जगदम्‍बा यह सवाल इतने सहज ढंग से उठाती है कि पता ही नहीं चलता कि यह स्‍त्री-विमर्श का नया आकाश है।

बेशक, पुरुषों से अलगाव का सवाल अमेरिकी लेखक केट मिलेट जैसी कुछेक प्रसिद्ध नारीवादियों ने एक जमाने में उठाया था, लेकिन भारतीय आकाश में यह एकदम नए ढंग से पेश हुआ है। ऐसे ही कई सवाल और विचार हैं जो आपको नई सोच-समझ पर मजबूर करते हैं और आज की हकीकत पर विचारने का नया दायरा बनाते हैं।

 उपन्‍यास जगदम्बा में कथा की बारीक बुनावट ऐसी है, जैसे हर संवाद एक नई कथा का सूत्र थमाता जाता है। इसके चटपट, खटपट, बागुन बाबा, नकछेदी, सिस्‍टर क्रेजी जैसे पात्र किरदार से बढ़कर विचारों के पुंज की तरह पेश आते हैं। भाषा का लालित्‍य और निपट देशज शब्‍दों की खूशबू आप में ऐसे भर उठती है कि पढ़ना शुरू कीजिए तो खत्‍म करके ही उठिए। तो, यह आंचलिक आख्‍यान नए भविष्‍य का दिशासूचक जैसा है, जो सार्वभौमिक है। कुछेक जगहों पर प्रूफ की त्रुटियां जरूर खटकती हैं मगर हकीकत और नए सवालों से रू-ब-रू होने के लिए पढ़ना जरूरी है, ताकि नए विमर्श में शामिल हो सकें।

जगदम्‍बा

रवीन्‍द्र भारती

प्रकाशक | राधाकृष्‍

कीमतः 299 रुपये

पृष्ठः 246 पेज

 

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