सवाल लंबे समय से उठता रहा है कि मुकदमों की सुनवाई के दौरान जेलों में बंद कैदियों की बरबाद होती जिंदगी का जिम्मेदार कौन है? खासतौर पर तब, जब मुलजिम बाइज्जत बरी हो जाए। वह भी किसी मामूली अपराध के लिए नहीं, बल्कि आतंकवाद और देशद्रोह जैसे आरोपों में। हाल में ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जब अदालतों ने सबूतों के अभाव में आरोपियों को बरी किया है।
पत्रकारद्वय मनीषा भल्ला और डॉ. अलीमुल्लाह खान की किताब बाइज्जत बरी? में इसी सवाल को उन बेकसूर मुसलमान युवकों की कहानियों की मदद से उठाया गया है, जो आतंकवाद के अलग-अलग मामलों में पकड़े गए और 10-12 साल से ज्यादा वक्त तक जेलों में बंद रहे, यातनाएं सहीं। फिर अदालतों ने उन्हें आरोप मुक्त कर दिया। लेकिन इस दौरान उनकी जिंदगी बिखर गई, नौकरियों से हाथ धोना पड़ा, परिवार को तमाम मुश्किलों से गुजरना पड़ा, कई नजदीकी रिश्तेदार गुजर गए, मुकदमों की सुनवाई में मकान, दुकान, खेत-खलिहान बिक गए। साथ ही जिंदगी पर जो धब्बा लगा, वह बाइज्जत बरी होने के बाद भी नहीं छूटा। किताब में उन लोगों की दास्तान है, जो आज भी जिंदगी के तार जोड़ने की जद्दोजहद में हैं।
किताब में तारिक अहमद डार, मोहम्म्द हुसैन फाजली, अबरार अहमद, वासिफ हैदर, मुमताज हैदर समेत 16 ऐसे आरोपियों की दास्तान है जिन्हें लंबी कानूनी कार्यवाही के बाद अदालतों ने बाइज्जत बरी कर दिया। सत्तर के दशक की एक फिल्म का गाना ‘हमसे का भूल हुई जो ये सजा हमका मिली’ बाइज्जत बरी? के किरदारों पर बिल्कुल माफिक बैठता है।
तारिक अहमद डार मल्टीनेशनल कंपनी में वरिष्ठ पद पर थे। पुलिस ने उन्हें पकड़ा और सीधे दिल्ली ले आई। यहां पता चला कि उन पर 29 अक्टूबर 2005 को दिल्ली के सरोजिनी नगर में बम धमाकों का आरोप है। उन पर शारीरिक और मानसिक यातना के जरिये गुनाह कबूल करने के लिए दबाव डाला गया। किताब में एक इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा के साथ उनकी बातचीत का भी जिक्र है। डार के मुताबिक मोहन चंद ने कहा था, तुम लोग मुसलमान हो और देश के लिए पोटेंशियल थ्रेट हो। यह स्पष्ट नहीं है कि मोहन चंद शर्मा वही इंस्पेक्टर थे, जो जामिया नगर मुठभेड़ में मारे गए थे। डार को 2005 में गिरफ्तार किया गया था। कोर्ट ने उन्हें 2017 में आरोपमुक्त कर दिया।
अबरार अहमद को पुलिस ने मालेगांव धमाकों में फंसा दिया। उनका अपराध बस इतना था कि उन्होंने कुछ लोगों की बातें रिकॉर्ड कर लीं, जिसमें धमाके को अंजाम देने का जिम्मा हिंदुओं पर आ रहा था। पुलिस उनको कई बार ऐसी जगहों पर ले गई, जहां कई साधु मौजूद रहते थे और उनमें साध्वी प्रज्ञा सिंह भी होती थीं। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने उन्हें कर्नल पुरोहित से भी मिलवाया। पुरोहित ने उनसे कहा कि जैसा पुलिस कह रही है, वैसा करते रहो। यातनाओं से बचने के लिए उन्होंने अपराध कबूल भी कर लिया, जो उन्होंने किया ही नहीं था। उन्हें दिसंबर 2006 में पकड़ा गया और वह 2016 में बरी हुए।
पुरुष ही नहीं महिलाएं भी व्यवस्था की शिकार बनीं। रहमाना यूसुफ फारूकी नाम की महिला को लाल किले में धमाके के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। मुरादाबाद की रहने वाली रहमाना अपनी बहन के कहने पर दिल्ली आई थीं। वे एक ब्यूटी पार्लर में काम करती थीं। अखबार में इश्तेहार के जरिये उनकी शादी अशफाक आरिफ नाम के शख्स से हुई। धमाके के आरोप में गिरफ्तारी के बाद जेल में उन्हें पता चला कि उनका पति पाकिस्तानी नागरिक है। उन्होंने अशफाक से पूछा, तो उनके पति ने अपनी गलती मानी लेकिन लाल किले धमाके के बारे में खुद को बेगुनाह बताया। रहमाना के मुताबिक धमाके वाले दिन अशफाक उसके घर पर थे। हिरासत और जेल में रहमाना को हर तरह की शारीरिक यातनाएं झेलनी पड़ीं। रिहाई के कुछ ही दिनों बाद उनकी मां की मृत्यु हो गयी। सात साल चली न्यायिक कार्यवाही के बाद कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया।
सच उगलवाने (या झूठ स्वीकार करने?) के लिए पुलिस हर तरह के हथकंडे अपनाती है चाहे वह पिटाई हो, मल-मूत्र खिलाना-पिलाना या धार्मिक तौर पर वर्जित चीजों का इस्तेमाल। इन कहानियों को पढ़ने पर अजीब सिहरन होती है। 16 बेकसूरों की दास्तान से लगता है, पुलिस, चाहे किसी भी राज्य की हो या केंद्रीय जांच एजेंसियां कहीं न कहीं मुसलमानों के प्रति दुराग्रह से प्रेरित हैं। किताब में जिन 16 लोगों की कहानियां हैं, उनमें से पांच की गिरफ्तारी 2000-2001 में हुई जबकि बाकी 11 मामलों में 2005 से 2008 के बीच गिरफ्तारियां हुईं।
ये कहानियां अदालतों, खासतौर पर निचली अदालतों के कामकाज पर सवालिया निशान लगाती हैं। देश की निचली अदालतों की हालत किसी से छिपी नहीं है और यही बात इन कहानियों में भी सामने आई। चाहे जज हों या वकील। वहां कई तरह की साठगांठ चलती है।
इसमें मीडिया को भी कटघरे में खड़ा किया गया है। कोई आतंकवादी है या नहीं, यह फैसला करना अदालत का काम है। लेकिन मीडिया में पहले दिन से ही आरोपी अपराधी घोषित हो जाता है। पुस्तक में शामिल कई लोगों के साथ ऐसा हुआ। मीडिया का यह ऐसा पक्ष है जिसको लेकर लंबे समय से सवालिया निशान लग रहे हैं।
पुस्तक के शुरू में जमीअत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना सैयद अरशद मदनी, राज्यसभा सांसद मनोज झा, दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर अपूर्वानंद और जमात-ए-इस्लामी हिंद के अध्यक्ष सादतुल्लाह हुसैनी के लेख हैं। सभी ने ऐसे मामलों में पुलिस या जांच एजेंसियों की जवाबदेही तय कर कार्रवाई करने की पुरजोर वकालत की है। लेखकों ने अपनी भूमिका में लिखा है कि ऐसे मामलों में न केवल पुनर्वास की व्यवस्था होनी चाहिए बल्कि सरकार को माफी भी मांगनी चाहिए। मांग पूरी तरह जायज लगती है। ऐसे बेकसूर के लिए न्याय क्या है? यह किताब शायद इस दिशा में मदद करे।
बाइज्जत बरी?
मनीषा भल्ला, डॉ. अलीमुल्लाह खान
प्रकाशक|भारत पुस्तक भंडार
मूल्य 295 रुपये | पृष्ठः 300
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)