नर्मदा की उपनदी सिंदूरी और उसके तट पर बसे एक छोटे गांव मदनपुर की संस्कृति और समुदाय की सहज-सरल आकांक्षाओं का समाजशास्त्रीय आख्यान है नदी सिंदूरी।
इसके अंदर कहानियों में जहां लेखक बतौर नरैटर लगातार उपस्थित है वहीं और भी कई पात्र बार-बार सामने आकर एक भिन्न दुनिया के अलग-अलग हिस्से बनाते हैं। अपनी प्रवाहमयी भाषा और विशेष लेखन शैली के बूते ये कहानियां सिंदूरी नदी की तरह सतत बहते हुए कभी हंसाते हैं, तो कभी रुलाते हैं। दलित युवक बसंत अपने क्रोध और संताप के कारण अपनापन महसूस कराता है। ‘हमने उनकी सई में फाड़ दई’ कहानी में बसंत का अपनी मिट्टी से जो प्रेम उभर कर आता है वह पूरे गांव को उसके प्रति अलग नजरिए से सोचने पर विवश कर देता है। लेकिन, एक सामंती पुरुष की गंदी हरकत पर जब वही बसंत उसे पीट देता है तब गांव वाले जातिभेद में अंधे हो जाते हैं।
‘सात खून माफ है’ कहानी के सत्या पंडितजी जब खुद के लिए सात खून माफ का जुमला दोहराते रहते हैं, तो इसे उनमें निहित बाल-बुद्धि का उदाहरण समझकर लोग आनंद लेते हैं। लेकिन, एक खास मकसद से जब वह खून करके गांव से भाग जाते हैं, तो लोग सकते में आ जाते हैं। ‘ऐसो कोई नहीं बोलो हमसे आज तक’ कहानी के यादव मस्साब अपने उज्ज्वल चरित्र और गांव वालों की नजर में सम्मानीय रूप में आए हैं। बच्चों की शिक्षा के लिए समर्पित और सादगीपूर्ण जीवन जीने वाले यादव मास्साब को जब एक बाहरी दबंग युवक अपमानित करता है तो घटना से व्यथित देर रात उनकी हृदय गति रुक जाती है। यह प्रसंग पाठक को रुला देता है।
‘खूंटा की लुगाई भी बह गई’ पाठ में पीपरपानी वाली की पति विछोह की पीड़ा हृदय को भेद देती है। खूंटा, जो उसका पति होता है वह बारिश की बाढ़ के दौरान सिंदूरी में डूब जाता है और उसकी लाश नहीं मिलती। उसकी पत्नी पीपरपानी वाली उसकी याद में विक्षिप्त होकर एक रात गायब हो जाती है। ऐसा लगता है कि वह भी उसी सिंदूरी में आई बाढ़ से दूर कहीं बह गई है। पूरी कहानी पाठक की संवेदना को झकझोर देती है। इसके अलावा समलैंगिक संबंध जीने वाला अवधेश, दबंग स्त्री रामकली और उसका ममतामई हृदय, बलबीर गोंड की सहज जिज्ञासा और जीवन जैसे अनेकानेक पात्रों की कहानियां पाठक को मदनपुर का निवासी बना देती हैं।
वहीं ‘कल्लो तुम बिक गईं’ मार्मिक कहानी है। किशोर लेखक का अपनी काले रंग की गाय कल्लो के प्रति प्रेम उभर कर आया है। ‘दूध फैक्ट्री से लाओ न’ में शहर से आए बच्चे का जीवन के संदर्भों से कटाव को दर्शाया गया है। गांव आए शहरी बच्चे को गाय, भैंस से चिढ़ होती है। वह इन्हें रखने के खिलाफ होता है और फैक्ट्री से दूध को खरीदने के लिए कहता है।
संग्रह में बुंदेली लोकभाषा का समावेश। लेखक ने उसे उतने ही रूप में रखा है, जितनी संप्रेषण में बाधा भी न बने और गंवई अंदाज भी बरकरार रहे। दूसरी विशेषता है कि हर कहानी का कोई न कोई सिरा नदी सिंदूरी से होकर गुजरता है। सिंदूरी, जिसका कोई धार्मिक और कर्मकाण्डीय महत्व नहीं लेकिन गांव के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक व्यवस्था में है। लेखक का नदी प्रेम पाठक को भीतर तक भिगोता है।
नदी सिंदूरी
शिरीष खरे
प्रकाशक | राजपाल प्रकाशन
पृष्ठ: 160 | मूल्य: `245