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पुस्तक समीक्षा: लोभ और गिरावट का चक्रव्यूह

स्वर्णकार द्वारा देखा गया शीर्ष तक पहुंचने का सपना केवल उसी का सपना नहीं
जिसका अंत नहीं

तंत्र जनित भ्रष्टाचार ऐसा चक्रव्यूह है, जिसमें घुसने का रास्ता तो है पर बाहर निकलने का नहीं। हाल ही में आया उपन्यास 'जिसका अंत नहीं' राजनीति और नौकरशाही के भांग-धतूरा संयोग से उपजी परिस्थितियों की गहनता से पड़ताल करता है, जो कर्मठ व्यक्ति को अपना शिकार बनाकर पतनशीलता के रसातल में पहुंचा देती है।

उपन्यास के केंद्र में वी.एल. स्वर्णकार है, जो बिजली कंपनी के सेक्रेटरी के पद पर है। सेवानिवृत्ति से महज चार साल पहले उसके मन में कंपनी के शीर्ष पद यानी चेयरमैन बनने का सपना अंगड़ाई लेने लगता है। कहने को यह सपना मात्र है और किसी भी व्यक्ति को ऊंचाई तक पहुंचने का सपना देखना जायज है। पर स्वर्णकार का यह सपना मात्र सपना न होकर द्रुतगामी ट्रेन हो जाता है। जिस दिन उसका सपना जन्म लेता है, उसी दिन वह व्यवस्था के भ्रष्टाचार की बिसात के मोहरे में बदलना शुरू हो जाता है।

स्वर्णकार द्वारा देखा गया शीर्ष तक पहुंचने का सपना केवल उसी का सपना नहीं। सपना इतना सहज भी नहीं, जितना स्वर्णकार को देखते हुए लगा था, क्योंकि सत्ता द्वारा जैसा दिखाया जाता है, हकीकत उससे अलग होती है। यही हकीकत बाद में पाप, लालच, लोभ और गिरावट का गंदा खेल रचती है। हमारे सामने जो बेपर्दा होता है वह केवल स्वर्णकार ही नहीं, बल्कि वो कड़ियां भी बेनकाब होती हैं, जिन्होंने इस पूरे खेल को रचकर ईमानदारी और वफादारी नेस्तनाबूद की है। उपन्यास का शिल्प जटिल नहीं है, न ही भाषा का आडंबर रचने की कोशिश की गई है। सहजता उपन्यास को पठनीय बनाती है।

जिसका अंत नहीं

राजेन्द्र दानी

प्रकाशक | वाणी प्रकाशन

मूल्य: 299 रुपये | पृष्ठ: 136  

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