श्रीश चंद्र मिश्र हिंदी के दिग्गज पत्रकार थे। उनके साथ लगभग पैंतीस-चालीस साल का संबंध रहा। फिल्म, खेल से लेकर अनेक विषय पर उनके ज्ञान और अद्भुत स्मरणशक्ति की बेहिचक मदद लेते रहने के बावजूद यह कहना मुश्किल है कि उनका फिल्मों से क्या रिश्ता था। उन्होंने फिल्मों की समीक्षा लंबे समय तक की। फिल्मों पर फीचर लिखे। कई बार समाचार विश्लेषण या किसी अवसर पर संस्मरण वाले लेख भी लिखे। लेकिन ये सभी भूमिकाएं फिल्म के साथ उनका संबंध बताने में अपर्याप्त है। एक दिन में तीन-तीन शो, अपनी जेब से टिकट खरीदकर फिल्म देखना (पत्रकारों के लिए ऐसा करना कुछ अटपटा ही होता है), एक हॉल से दूसरे तक भागते हुए कभी समोसा तो कभी ब्रेड पकोड़ा खाते हुए भूख मिटाने वाला जुनून मात्र पत्रकारिता के आग्रह या लेखन की जरूरत वाली चीज न थी। श्रीश जी को कभी धर्मेंद्र स्टाइल के बाल कटाते या सलमान शैली की बाड़ी बिल्डिंग की कोशिश करते भी न देखा। अपनी किताब सपनों के आरपार की भूमिका में वे लिखते हैं, “भारत में क्रिकेट अगर धर्म है तो फिल्म आराधना। इसका असर जीवन शैली, मान्यताओं, सामाजिक स्थितियों में भी दिखता है।” पर खुद उन पर फिल्मों का ऐसा असर नहीं दिखाता था।
यह किताब उनकी बेटी शुभ्रा के संपादन में निकली है। भूमिका और लेखों के आधार पर कहा जा सकता है कि यह किताब तैयार करने का काम उन्होंने खुद शुरू कर दिया था। इसकी ज्यादातर सामग्री भी अखबारी लेखन का जमा किया संग्रह नहीं है। इस पर खुद उनकी मेहनत और ज्ञान की छाप है, तो संपादक की समझ और विवेक भी दिखता है। हिंदी सिनेमा या हिंदुस्तानी सिनेमा पर श्रीश जी का लेखन, तो थोक भाव का था जो अखबारी या पत्रिकाओं की जरूरत के अनुसार लिखा गया होगा। इसमें कुछ लेख शख्सियत तथा श्रद्धांजलि वाले खंड में हैं। ऐसे कुल अठारह लेख और मील के पत्थर वाले खंड के तीन लेख। अमजद खान, प्राण, श्याम बेनेगल, देव आनंद, नसीरुद्दीन शाह, सदाशिव अमरापुरकर, राजेश खन्ना, नंदा, फारूक शेख, यश चोपड़ा, देवेन वर्मा और रवींद्र जैन पर लिखे आलेख भी उनके संपूर्ण मूल्यांकन के हिसाब से महत्वपूर्ण हैं। लेकिन ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ गीत की कहानी एटनबरो और गांधी फिल्म की कहानी तथा फिल्मों में परिवारवाद के किस्से ज्यादा विस्तार से अपने विषयों को रेखांकित करते हैं।
बाकी के 41 आलेख फिल्मों के ट्रेंड और टेंडेंसी पर हैं, समाज से उसके रिश्ते पर हैं। कुछ फिल्मी पर्सनेलिटी और घटनाओं पर हैं। राजकुमार राव को राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने पर नायक के खूबसूरत होने का भ्रम टूटने का है, फिल्मी अदालत की सच्चाई का है, इतिहास और फिल्म के रिश्ते का है, फिल्मी दोस्ती दुश्मनी का है। सचमुच इन कहानियों और आलेखों में इतने सच्चे प्रसंगों का जिक्र होता है कि कोई भी पाठक चौंक सकता है। हैरानी और मनोरंजन-ज्ञानवर्धन तो होता ही है। श्रीश जी कहीं भी अपने पाठक को बहुत ऊंची वैचारिक बहसों में नहीं उलझाते जबकि सबका ज्ञान और एक साफ राय हर जगह दिखती है। मनोरंजन को बड़ी चीज मानते हुए भी वे कहीं गंभीर सिनेमा के महत्व को भूलते नहीं या उसे याद करने का अवसर छोड़ते नहीं हैं। विषयों को सिर्फ हीरो-हीरोइन, सफल और चर्चित फिल्मों, चर्चित निर्देशक निर्माताओं तक सीमित रखने की जगह वे सिनेमा के हर पक्ष और उसके लोगों की चर्चा करते हैं और मुख्यत: हिंदी सिनेमा पर केंद्रित होने के बावजूद रजनीकांत से लेकर ऐसे काफी सारे गैर-हिंदी फिल्मी लोगों की चर्चा भी विस्तार करते हैं।
यहां आकर श्रीश जी का असली गुण या योग्यता समझ आती है। उनकी विलक्षण याददाश्त, सरल भाषा, विषयों की पहचान जैसे गुणों का अपना महत्व है लेकिन जिस चीज से उनके लेखन को असली बल मिलता है या जो चीज उन्हें दूसरों से अलग करती है, वह है असफल फिल्मों, व्यक्तियों, कथानकों, प्रवृत्तियों, प्रसंगों को याद करना। यह किसी रिपोर्टर द्वारा अतिरिक्त रूप से देखे या अनुभव किए हिस्से नहीं हैं, न ही किसी गंभीर चिंतन से निकाले निष्कर्ष। यह असल में बाकी दुनिया द्वारा बिसराए गए प्रसंगों को सफल बनाना और हिट प्रसंगों के समक्ष खड़ा करना है जिससे उनका महत्व नए तरह से स्थापित होता है। यहां उनके जुनून की तरह फिल्म देखने का मतलब भी समझ आता है। लेकिन होता यह है कि जो पिट गई फिल्में हैं, जिनके डायलॉग या गीत नहीं चलते, हीरो-हीरोइन बिसरा दिए जाते हैं, उनको याद करना मुश्किल भी है। यह हम सबके स्वभाव में है। लेकिन एक बार देखी, पढ़ी, विश्वस्त स्रोत से सुनी चीज श्रीश मिश्र के मन में बैठ जाती थी और उनका भी उपयोग आराम से समय आने पर करते थे। यही श्रीश चंद्र मिश्र होने का खास मतलब है, वरना इस मुल्क में फिल्म कौन नहीं देखता और उस पर टीका-टिप्पणी कौन नहीं करता। उस हिसाब से बड़े आकार में 300 पृष्ठों से ज्यादा पसरी यह किताब पढ़ना और रखना एक जरूरत बन जाती है, लेखक के इन्हीं गुणों के कारण जो यहां हर पन्ने पर दिखाता है।
सपनों के आर-पार
श्रीश चंद्र मिश्र
प्रकाशक | संधीश पब्लिकेशन
प्राइवेट लिमिटेड, गाजियाबाद
मूल्य: 950 रुपये | पृष्ठ: 314