पिछले कुछ दशक से जारी अल्पसंख्यकों में असुरक्षा का भाव, मंदिर-मस्जिद जैसे विवाद, धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा और धर्मनिरपेक्ष ढांचे को ध्वस्त करने जैसे कदम भारत की राजनीति का अहम हिस्सा बन गए हैं। दुख और हैरत की बात तो यह है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तक को इस छिछली राजनीति में घसीट लिया गया जबकि उनके बरअक्स सावरकर को महिमामंडित करने की कोई कसर नहीं छोड़ी गई। इनका एक बड़ा कारण झूठी सूचनाओं का प्रवाह रहा है। लोगों को वास्तविक इतिहास और तथ्यात्मक जानकारी से दूर रखना देश को अंधेरे में धकेलने जैसा है।
‘नेहरू: मिथक और सत्य’ के बाद पीयूष बबेले की दूसरी पुस्तक ‘गांधी: सियासत और सांप्रदायिकता’ आई है। यह किताब गहन शोध का परिणाम है। पुस्तक का मूल विषय आज के वक्त में ज्यादा प्रासंगिक इसलिए हो गया है क्योंकि गांधीजी के दुश्मन उनकी हत्या के बाद भी उन्हें मार नहीं सके हैं। इसलिए गांधी से निपटने के लिए उन्होंने एक नया हथियार खोज लिया है कि उन पर ऐसे विचार थोप दिए जाएं जो कभी उनके थे ही नहीं। गांधी के ये शत्रु अब गांधी के कथनों और लिखित साहित्य में से ही ऐसे असंगत उद्धरण पेश कर रहे हैं जिनका आसानी से अनर्थ किया जा सके। ये ताकतें गांधी के नाम के पीछे नफरत और सांप्रदायिकता का एजेंडा चला रही हैं। गांधी ने जहां राम कहा, वहीं उसे जयश्री राम कहा जा रहा है। इसलिए जरूरी है कि गांधी और हिंदू-मुस्लिम एकता को लेकर उनके जीवन भर चले प्रयासों के बारे में सच्चाई लोगों को पता चल सके। पुस्तक में लेखक ने उद्धरणों और प्रमाणों के साथ यही काम किया है।
यह किताब सांप्रदायिकता और हिंदू-मुस्लिम एकता जैसे गंभीर और संवेदनशील मुद्दे पर प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध करवाती है। पुस्तक में 33 अध्याय हैं जो गांधी के विलायत से भारत लौटने, फिर दो दशक के दक्षिण अफ्रीका प्रवास और वहां भारतीयों के लिए संघर्ष, फिर दक्षिण अफ्रीका से भारत वापसी और भारत को अंग्रेजी राज से मुक्त करवाने तक के लंबे कालक्रम को समेटते हैं। पुस्तक का अध्याय नौ मोपला विद्रोह पर है। इसे पढ़ कर पाठकगण इस सच्चाई से रू-ब-रू हो सकेंगे कि मोपला विद्रोह को लेकर वीर सावरकर ने जो उपन्यास लिखा था, उसका मकसद आखिर क्या था। मोपला विद्रोह और उससे भड़की हिंसा के बारे में तथ्यात्मक जानकारी देते हुए लेखक ने बताया है कि कैसे एक जघन्य अपराध को हिंदू-मुस्लिम झगड़े में बदलने की कोशिश की गई। आज भी हम यही देख रहे हैं।
यह पुस्तक एक अर्थ में आजादी की लड़ाई का संक्षिप्त और सारगर्भित इतिहास भी पेश करती है। देश को आजाद कराने के लिए हिंदू-मुस्लिम एकता, हिंदू सांप्रदायिकता के उभार (वीर सावरकर), मुस्लिम सांप्रदायिकता के उभार (मोहम्मद अली जिन्ना) से लेकर दूसरे मोर्चों पर गांधी जी को किस तरह से जूझते रहना पड़ा और कैसे वे उपवास और अपने आत्मबल के सहारे हर तरह के हालात से निपट लेते थे, इसकी झलक इस किताब में मिलती है। गांधी जी जानते थे कि अगर हिंदू-मुस्लिम एकता बिखर गई तो अंग्रेजों से लोहा लेना मुश्किल होगा। इसलिए उनका शुरू से सारा जोर इसी पर लगा रहा था। पुस्तक को प्रामाणिक बनाने के लिए लेखक ने गांधी जी के लिखे पत्रों, उनके यंग इंडिया अखबार के लेखों-संपादकीयों और संपूर्ण गांधी वांगमय सहित कई पुस्तकों का हवाला दिया है। गांधी ने जिस रामराज्य की कल्पना की थी और जिस ‘रामराज्य’ में आज हम जी रहे हैं, यह पुस्तक बखूबी उसकी असलियत को उजागर करती है।
गांधी : सियासत और सांप्रदायिकता
पीयूष बबेले
प्रकाशक | जेन्यूइन पब्लिकेशंस
पृष्ठः 297 | मूल्य: 499