गिरधर राठी को हम उनके सरोकारों के लिए पढ़ते हैं, जो अनंतधाराओं में ही सुगठित और अनूदित नहीं लगते। गिरधर के यहां भारतीय इतिहास, मिथक, पुराण, परंपराएं भी धड़कती रहती हैं। उनके कथ्य में अक्सर शब्दों की गुमसुम आहटें श्रोता को चैंकाती हैैं- वह उनसे सहमत हो या नहीं। कृष्णा सोबती के हम हशमत-3 में गिरधर राठी के इस मूल्यांकन के बाद राठी की लिखी कृष्णा सोबती की जीवनी दूसरा जीवन पढ़ना भरोसा देता है। यह जीवनी इस अर्थ में भी असाधारण है कि इसमें कृष्णा जी द्वारा दी गई जानकारी का समावेश है। यह आत्मकथात्मक-जीवनी हिंदी साहित्य के इतिहास में पुनरावलोकन की खिड़की खोलती है। वे लिखते हैं कि जीवनी और आत्मकथा पढ़ने की इच्छा होती है, ताकि हम यह जान सकें कि हमसे बड़े लोगों ने जीवन-नैया कैसे पार की।
दूसरा जीवन के अध्याय अलग होने पर भी उनमें एक सतत अंतरधारा बहती है, जो एक ही जीवन-रस से सींचती है। ये अध्याय एक शरीर के अलग-अलग अंगों के समान एक ही व्यक्तित्व का सृजन करते हैं। कृष्णा जी की मित्र अंजलि जी बताती हैं, ‘‘कृष्णा जी सलाह तो कई लोगों से लेती थीं, लेकिन करती वही थीं, जो उन्होंने खुद तय किया हो! और एक बार जो तय कर लिया, उसे करके रहती थीं। भावनाएं उनमें भरपूर थीं, वे भावनात्मक तौर पर समृद्ध थीं, लेकिन उनकी भावना दिल से नहीं, दिमाग से निकलती थी।’’
कृष्णा सोबती 18 फरवरी 1925 को दीवान पृथ्वीराज सोबती के घर जिला गुजरात, पंजाब (अब के पाकिस्तान) में जन्मी थीं। लाहौर से मैट्रिक और बीए ऑनर्स (1944-47) करने वाली कृष्णा सोबती ने विभाजन के पूर्व से ही हिंदू-मुस्लिम अलगाव के आसार देखने शुरू कर दिए थे। विभाजन के पूर्व से ही आर्य समाज और मुस्लिम संगठन नकारात्मक भूमिका निभाने लगे थे। उनके उपन्यास जिंदगीनामा में हिंदू-मुस्लिम अलगाव के कई तरह के संकेत हैं।
गिरधर राठी ने जिस तरह से विभाजन के संकेतों का जिक्र किया है, वे हमें चैंकाते भी हैं, सावधान भी करते हैं। धार्मिक संगठनों की भूमिका में उन दिनों बन रहा मानस हमें अपने वर्तमान को समझने की नई दृष्टि देता है और सावधान करता है। कृष्णा जी से अपने संवाद में वे रेखांकित करते हैं, ‘‘उनके लेखन और बातचीत में भी यह आभास अक्सर होता रहा कि स्थानीयता, व्यवसाय तथा परिवेश जानना किसी के भी व्यक्तित्व की विश्वसनीय पहचान के लिए जरूरी है।’’ व्यक्तित्व की पहचान के ये औजार कृष्णा सोबती ने स्वयं अर्जित-अविष्कृत किए हैं। एक संवाद में कृष्णा सोबती के लेखन को समझने की एक कुंजी मिलती है, ‘‘मैं किसी प्रेरणा या बाहरी दबाव से नहीं लिखती हूं। उसी वक्त लिखती हूं जब लिख डालने के सिवा कोई चारा न रह जाए।’’
हम जिसे समय बदल गया कहते हैं, कृष्णा जी शब्द और अर्थ में हुए बदलावों से उसे पकड़ती है। हमारे बचपन की कुल्फी आइसक्रीम हो गई है। कचौड़ी-समोसा, पैटीज में बदल गया है। शहतूत और फाल्से और खसखस के शरबत, कोक-पेप्सी में।
समय के साथ बहते इतिहास में जीवन की छोटी-मोटी चीजों में ही नहीं, देशों के भाग्य में भी बदलाव होते हैं। 15 अगस्त 1947 को उन्होंने नेहरू को राजकाज संभालते हुए देखा था। इसी तरह कृष्णा जी ने माउंटबेटन, उनकी पत्नी और नेहरूजी को कनॉट प्लेस में प्लाजा सिनेमा में देखा था। फिल्म थी सुप्रसिद्ध गायिका सुब्बलक्ष्मी की मीरा बाई। राष्ट्र निमार्ता भी एक मनुष्य के रूप में अवतरित होते हैं।
कृष्णा जी की जीवनी में हमारी भेंट अनेक समकालीन लेखकों, कवियों, कलाकारों, संपादकों से होती है। उन्हें कृष्णा सोबती की दृष्टि से देखना जैसे पहली बार उन्हें देखना-समझना है। प्रसिद्ध रेस्तरां में लेखकों की उनके मित्रों सहित उपस्थिति बहुत कुछ दर्ज कराती है। यही तो है असाधारण का साधारण।
गिरधर राठी के साथ संवाद की कई-कई दिनों तक चलने वाली श्रृंखला में वह अपनी दृष्टि की कुछ यूं व्याख्या करती हैं, ‘‘मैं कुछ तो मां जैसी हूं और कुछ पिता जैसी। तब लगता मेरे पास मेरी ही आंखें नहीं, कई जोड़ी आंखें हैं। मां की, पिता जी की और मेरी अपनी। मां हमें आगे बढ़ने को उकसातीं, पिता विवेक से पढ़ने-लिखने, पर साथ-साथ जीने के सलीके और ढंग पर जोर देते।’’
गिरधर राठी ने न केवल कृष्णा सोबती से, वरन उनके परिचितों-मित्रों से भी बातचीत के रंग जीवनी में भरे हैं। सुकृता बताती हैं, शायद ही कोई ऐसा लेखक हमारे देश में हुआ होगा, जिसे तमाम परिचितों-मित्रों को उपहार देने का इतना शौक हो। पेंटिंग की महंगी किताबें, राफेल, लियोनार्दो की किताबें उन्होंने शौक में खरीद रखी थीं। एक अन्य परिचित ने बताया कि कृष्णा जी ने उन्हें पेंटिंग के साथ उसे मढ़वाने के लिए हजार रुपये से भरा लिफाफा भी दिया।
गिरधर राठी ने कृष्णा जी की जीवनी के माध्यम से, विशेषकर हिंदी-साहित्य में, पहली बार जीवनी के सिद्धांत-सूत्र भी गढ़े हैं। वे बताते हैं कि निजी जिंदगी को लेखकीय जीवन से अलहदा रखने का बाकायदा शास्त्र-सिद्धांत भी है- अज्ञेय (टीएस एलियट की परंपरा में) जीवनी और रचना का यह सायास विलगाव कुछ बहुत सफल रहा हो, ऐसा नहीं लगता। गिरधर बताते हैं, ‘‘खुद एलियट की रचनाओं को दशकों बाद आलोचकों ने एलियट के जीवन प्रसंगों से गुत्थमगुत्था पाया।’’ उन्हें आशा है कि जब अज्ञेय की जीवनी लिखी जाएगी, तब अज्ञेय की रचनाओं की भी अंतरंग जीवनी-परक पृष्ठभूमि सामने आए।
इतालवी हिंदी-विदुषी मरिओल्ला अफरीदी ने शोधकतार्ओं के लिए कुछ नई दिशाएं दिखाई हैं। उन्होंने सोबती साहित्य को तीन हिस्सों में बांटा है - जिंदगीनामा, जिंदगीनामा का उत्तरार्ध और सिक्का बदल गया। इन रचनाओं में कृष्णा जी चनाब-झेलम के बीच के दोआब (अब पाकिस्तान) के एक ‘खोये हुए संसार’ की तरफ लौटती हैं।
मरिओल्ला के अनुसार दूसरी रचनाएं वे हैं, जहां स्मृति की आवाजें सुन पड़ती हैं। लामा, डार से बिछुड़ी, मित्रो मरजानी, सूरजमुखी अंधेरे के और दिलोदानिश। तीसरे प्रकार की वे रचनाएं हैं जो ‘आत्मकथा और गल्प (फिक्शन) हैं- यारों का यार, तिन पहाड़, बचपन, ऐ लड़की और समय सरगम।
कृष्णा सोबती से संवाद, उनके अपनों मित्रों-परिचितों से बातचीत, और साहित्यिक-दस्तावेज के साथ-साथ उनकी रचनाओं के जीवन-प्रसंगों से प्राप्त जीवन-रस का नाम ही दूसरा जीवन है।