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पुस्तक समीक्षा: सांस्कृतिक हिंसा प्रकृति और संधान

यह पुस्तक तब नई मीमांसा लेकर आई है, जब विश्व और भारतीय परिदृश्य संकट से घिरा हुआ है
सांस्कृतिक  के रूप

यह पुस्तक तब नई मीमांसा लेकर आई है, जब विश्व और भारतीय परिदृश्य संकट से घिरा हुआ है। भारतीय संदर्भ में सामाजिक-आर्थिक, जाति समीकरण जटिल और संक्रमण के दौर से अप्लावित हैं। ऐसे समय में गांधी को अप्रासंगिक करार देती नवल सत्ता को उनके हिंद स्वराज, सच्ची धर्म परायणता, सांस्कृतिक आदर्शों की लीक पर लाकर सुधारा जा सके।

राजाराम भादू ने संदिर्भत विषय को आठ अध्यायों में समझाया है। सभी अध्यायों की वैचारिकता संस्कृति, मनुष्य, अहिंसा, हिंसा, विषमता, दरिद्रता, सांप्रदायिकता, सह-अस्तित्व, जातिभेद, उत्पीड़न, उग्र राष्ट्रवाद, नैतिकता, स्वंतत्रता और बहु संस्कृतिवाद तथा मानवाधिकार की अवधारणाओं तथा वंचनाओं के पाठ को पुनर्नवा करती आगे बढ़ी है। लेखक की विचार भूमि नए तर्क की दिशाएं गढ़ने के काम में शांति चिंतकों और ख्यात दार्शनिक चिंतकों तक का सहारा लेती है। जोहन गाल्तुन उनमें प्रमुख हैं, जो हिंसक द्वंद्वों को नए सिरे से परिभाषित करते हैं। अन्य प्रमुख अर्थशास्त्रियों, विचारकों में घटित हिंसा की परतों का विश्लेषण करने वाले नीत्शेब, ग्राम्शी, डेविड रिकार्डो, इवान इलिच, जोशेफ ई. स्टिगलित्ज और प्रोफेसर नारिकों हामा के दृष्टांत उल्लेखनीय हैं।

लेखक अपने प्रस्तावित उद्देश्यों के लिए जोहन गाल्तुंग और अन्य विश्लेषकों की छानबीन से हिंसक सूत्रों की पहचान करते हुए भारतीय समाज के विरूपीकरण और विषमताओं की समीक्षा भी प्रस्तुत करते हैं। पर ये व्याख्याएं गांधी के सिद्धांतों की मर्यादा और सत्य-सहिष्णुता के गुण सूत्रों को आजमाए बिना, गांधी के स्वराज और अहिंसा के पालन से दो-चार हुए बिना, उनके शुद्ध संस्कृति के करीब कैसे जा सकती हैं? आधुनिक सभ्यता की सख्त टीका गांधी जी ने भी की है, लेकिन उनकी दृष्टि भाषा, संवेदनपरक सोच के आयाम और नैतिकताएं प्रश्नाकुल होकर भी प्रतिरोधों और विमुख परिस्थितियों को सहमेल और सहादर भाव से जानने का मंत्र सौंपती हैं।

निश्चय ही समकाल के नए दुश्चक्रों और सांस्कृतिक हिंसा के भविष्यगामी रूपों की विविधताएं तथा संरचनाएं ऐसी ही पोथियों के जरिये और प्रत्यक्ष होंगी। बस उनके जटिल पाठ और अकादमिक रूपरेखाएं इतनी सरल होनी चाहिए कि पाठक उनकी प्रस्तुति और व्याख्या से तालमेल बिठा सकें। लेखक की चिंताओं के वलय में इस पर भी विचार हो कि गांधीजी की प्रार्थनाएं और विखंडित हो रहे समाजों की संकल्पनाएं कैसे फिर से प्रासंगिक हों। क्या उनकी संकल्पनाएं नई रचना की मांग करती हैं? गरीब-गुरबे के लिए, माटी मानस के लिए गांधीवादी दर्शन भी अब कितना अनिवार्य रह गया है? बदले हुए समाज की रोज-रोज बदलती-बिगड़ती बनावट को उकसाने वाली मूल्यहीनता भी हिंसा है क्या? यह सब इसी संदर्भ में विचारणीय है। यह भी कि गांधी के त्याग, बलिदान को भुलाने वाली कट्टरपंथी मानसिकता भी सदृश है, जो हिंसक वैचारिक औजारों की आड़ में आक्रामकता को महिमामंडित करने वाली जमात का प्रतिनिधित्व कर हिंदू होने के गर्व की भयावह भंगिमाओं का लोहा मनवाना चाहती है। गांधी इस लेखक की सोच के सच्चे वाहक हैं, पर वे यूटोपिया में बदल चुके हैं। तो भी उनके आचरण और सिद्धांत हमारे इस कठिन और बेलगाम समय की जरूरत हैं।

सांस्कृतिक  के रूप

राजाराम भादू/ (अहिंसा शांति ग्रन्थ माला-7)

संपादक: नन्द किशोर आचार्य

प्रकाशक | प्राकृत भारती अकादमी- जयपुर

मूल्य: 320 रुपये | पृष्ठ: 176

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