हर दिन एक नई घटना। हर बरस एक नया नैरेटिव। हर चुनाव में कुछ नया परोसने की कोशिश। मुश्किल है किसी मीडिया संस्थान में काम करते वक्त किसी पत्रकार के लिए हर घटना को सहेज कर रख पाना। पत्रकार हर दिन, हर चुनाव में अपने नजरिये को तात्कालिक घटना से जोड़ कर रखता है, लेकिन हर घटना को एक धागे में पिरो दे और फिर बताए कि बीते दस बरस में क्या कुछ होता रहा, यह असंभव-सा है। दयाशंकर मिश्र ने ‘राहुल गांधी’ के नाम से लिखी किताब में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल को जिस तरह खबर-दर-खबर के तौर पर उभारा, वह महत्वपूर्ण है क्योंकि दस बरस में क्या कुछ हुआ किसे याद होगा। और जो होता चला गया उसके पीछे की हकीकत कैसे सीढ़ी-दर-सीढ़ी मौजूदा वक्त में प्रधानमंत्री मोदी की मजबूती को गढ़ती चली गई। मसलन, किसे याद है कि जिस काले धन और करप्शन को लेकर अन्ना आंदोलन को देश ने देखा, उससे चंद महीनों पहले संघ से जुड़े तबकों के जरिये बनाए गए विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन में अप्रैल 2011 में काला धन पर सेमिनार हुआ। इसमें मौजूदा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल, भारतीय रिजर्व बैंक के बोर्ड के सदस्य गुरुमूर्ति के अलावा रामदेव, अन्ना हजारे, अरविन्द केजरीवाल, किरण बेदी, सुब्रमण्यम स्वामी, गोविन्दाचार्य मौजूद थे।
दरअसल, ‘राहुल गांधी’ के नाम से लिखी गई किताब में राहुल गांधी सिर्फ एक बिंब हैं या कहें एक संकेत जिसका उभार भारत जोड़ो यात्रा के बाद से शुरू होता है या उससे पहले 2018 में तीन राज्यों के चुनाव जीतने के बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में राहुल नैरेटिव को खाऱिज करने की जगह राहुल गांधी को लेकर एक नए नैरेटिव ‘पप्पू’ को गढ़ने में कैसे भाजपा आइटी सेल लगता है। समूची सरकार उसे ताकत देती है, लेकिन असल में किताब लोकतंत्र को लहूलुहान करने वाली घटनाओं का सिलसिला है जिसके दायरे में सीबीआइ हेडक्वार्टर में आधी रात का ऑपरेशन भी शामिल है जिसके बाद डायरेक्टर आलोक वर्मा की विदाई हुई।
कांग्रेस काल में 2जी घोटाला और कोयला स्कैम को लेकर पूर्व सीएजी विनोद राय की भूमिका, फिर माफी मांगना, नोटबंदी, इलेक्टोरल बॉन्ड्स, पेगासस, नीति आयोग, पीएम केयर्स फंड, ईडी, चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के सवाल किताब पढ़ते वक्त आपके जेहन में उतरेंगे। यही नहीं, सबरीमाला से सावरकर और संसद में सेंगोल तक की परिस्थितियों को याद करते वक्त मॉब लिंचिंग या मणिपुर कैसे कड़ियों से जुड़ते हैं। ये सवाल महत्वपूर्ण हैं। सिर्फ नफरत को पनपाने की परिस्थितियों या इस दौर में राहुल गांधी का भारत जोड़ो के जरिये नफरत मिटाने की पहल के बीच लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ मीडिया पर हमले का जिक्र भी लेखक ने बखूबी किया है। मीडिया संस्थानों पर छापे हों या मुखर आवाजों को दबाने का प्रयास या फिर संपादकीय पन्नों पर संघ के विचारों को परोसने का तरीका या नून-रोटी की खबर को भी बर्दाश्त न कर पाने की सोच- सब कुछ से गुजरते हुए आखिर में भारत जोड़ो यात्रा से तपकर निकली राहुल की छवि और सत्ता का हमला या कहे दुष्प्रचार की अनंत गाथा, यह सब कुछ महज घटनाओं के जरिये उकेरने की कोशिश दयाशंकर ने की है। दरअसल यह किताब लेखक के विचार नहीं बल्कि खबरों के बीच रहते हुए खबरों के ज़रिये ही देश को सामने लाने वाले मीडिया संस्थानों की हकीकत को बयान करती है। कैसे सत्ता पर निगरानी रखने की भूमिका से हटकर पत्रकारों ने खामोशी ओढ़ ली और हर दूसरे दिन अंधेरा इतना घना होता चला गया कि उजाले का जिक्र करना भी अपराध सा लगने लगा, इस किताब को पढ़ते हुए इस बात का एहसास शिद्दत से हो सकता है।
राहुल गांधी
दयाशंकर मिश्र
पृष्ठः 750
मूल्यः 749