आज उत्तर भारत में दलित आंदोलन और दलित साहित्य लेखन की मजबूत जमीन तैयार हो रही है, लेकिन इस तरह की पहलकदमी दक्षिण भारत में काफी पहले हो गई थी। दक्षिण में ये आंदोलन अपने कई चरणों से गुजरकर समाज को निर्णायक रूप से बदल चुके हैं, हालांकि संपूर्ण बदलाव का लक्ष्य अब भी दूर है। इन्हीं आंदोलनों के बीच से साहित्य की जो धारा निकली, उसने भारतीय भाषा-साहित्य को समृद्धि और गरिमा प्रदान की है।
जाति-व्यवस्था के उन्मूलन के लिए संघर्षरत शक्तियों और सामाजिक बदलाव के लिए प्रतिबद्ध सुधी लोगों के लिए दक्षिण खासकर केरल के सामाजिक आंदोलन और दलित साहित्य को समझना जरूरी है। इस दृष्टि से प्रसिद्ध आलोचक और दलित लेखन के अध्येता बजरंग बिहारी तिवारी की किताब महत्वपूर्ण है। यह एक तरह से केरल का संक्षिप्त सबाल्टर्न इतिहास भी है। इसमें बताया गया है कि किस तरह केरल का समाज जाति बंधन में जकड़ा रहा है। जाति पदानुक्रम में सबसे नीचे रहने वाला तो मनुष्य समझा ही नहीं जाता था। वह कथित श्रेष्ठ जातियों का दास हुआ करता था।
केरल में यह विभाजन त्रिस्तरीय था- सवर्ण, अवर्ण और दास। इन तीनों में भी कई जातियां थीं। दास जातियां ही बाद में हरिजन और दलित कहलाईं। इन्हें पशुओं की तरह खरीदा-बेचा जा सकता था। इनके मालिकों को इन्हें कोड़ों से पीटने और जंजीर में बांधकर रखने का अधिकार था। हालांकि इसके विरुद्ध समय-समय पर हल्की या मुखर आवाज उठती रही, जिससे इसमें मामूली सुधार भी होते रहे मगर कड़ा प्रहार बीसवीं शताब्दी में हुआ जो नवजागरण का काल था।
लेखक ने इसे इन शब्दों में रेखांकित किया है, ‘बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में केरल में जाति संगठन बनने शुरू हुए। इसकी अगुआई ईषवों के संगठन श्रीनारायण धर्म प्रतिपालन योगम ने की। इस संगठन की सक्रियता ने व्यापक असर डाला।’ इसी तरह विभिन्न जातियों के संगठन बनने शुरू हुए और तमाम पीड़ित जातियां अपने अधिकारों और गरिमापूर्ण जीवन की मांग करने लगीं। इसी क्रम में अध्यनकाली सामने आए जिन्होंने दासों को एकजुट किया और उनके आक्रोश को स्वर दिया। उन्होंने दलितों के लिए मजदूरी बढ़वाने से लेकर उनके बच्चों की समुचित शिक्षा प्रबंध के लिए आंदोलन चलाए। राज्य में वामपंथी आंदोलन के मजबूत होने के साथ कम्युनिस्ट पार्टी ने पीड़ित जातियों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान को अपने एजेंडे में सबसे ऊपर रखा जिसका लाभ वंचित जातियों को मिला। हालांकि बाद में उनके बीच का एक तबका वामपंथी नेतृत्व और शासन से नाराज हो गया, जिसकी अभिव्यक्ति मलयालम दलित साहित्य में भी मिलती है।
सामाजिक आंदोलनों ने लेखकों-कलाकारों को भी प्रेरित किया। उनमें कई सीधे-सीधे आंदोलन का हिस्सा भी बने जैसे के.के. गोविंदन उर्फ गोविंदन आशान। उस दौर के अनेक रचनाकार श्रीनारायण गुरु से प्रेरित थे। उनमें एमपी अप्पन प्रमुख हैं, जिनकी गणना मलयालम के महाकवियों में होती है। इस क्रम को आगे बढ़ाते हुए वे नौवें दशक में उभरे कवियों पर आते हैं और ‘दलित कविता का समकाल’ शीर्षक अध्याय के तहत उनकी रचनाओं से भी परिचित कराते हैं। ये सारे कवि आज की तारीख में रचनारत हैं और मलयालम साहित्य को नया आयाम दे रहे हैं। ऐसे ही कवि सण्णी कविक्काड की चर्चित कविता ‘ज्योतिषी’ की कुछ पंक्तियां देखिएः ‘महिला ज्योतिषी की निगाहें मेरी हथेलियों की लकीरों पर धड़कती हैं/ शिक्षा की लकीर घृणा के किनारे/ खत्म होती है/प्रेम की लकीर पर/ प्रेमिका की लावारिस देह तैरती है/जीवन रेखा नरक में जाकर समाप्त होती है/दांव पर लगी जिंदगी संकट में है। ठंडी अंधेरी रातों में भी नींद नहीं/तुम शहर और गांवों में भीख मांगोगे/टिन का कटोरा लिए/ हाथ पर होंगे राजदंड के चिह्न/काला भविष्य पोतकर/ज्योतिषी चल पड़ती है/चमकते सूर्य(की रोशनी) में रजत मुस्कान के साथ।’
यह कविता दलित जीवन के दुर्भाग्य को चित्रित करती है। एस. जोसेफ, एम.आर. रेणुकुमार और एम.बी. मनोज जैसे कवियों में भी दलितों के जीवन की पीड़ा का मार्मिक चित्रण मिलता है, साथ ही युवाओं के भीतर का आक्रोश पूरी प्रखरता के साथ सामने आता है।
मलयालम दलित कविता में कवयित्रियों की उपस्थिति भी रेखांकित करने योग्य है। इनमें वलसला बेबी, के.के. निर्मला, पुष्पा जॉय, अम्बिका प्रभाकरन, विजिला, प्रवीणा केपी, रम्या तूरवूर,धन्या एमडी नाम प्रमुख हैं। प्रवीणा केपी की कविता ‘अच्छे लोग’ में तथाकथित सभ्यता और भद्रता के पीछे छिपी विद्रूपता को इस तरह उजागर किया गया हैः ‘मैं चलती हूं अपने सत्य के पथ पर/ बगल से गुजरते देवदूत मुझे कर देते है घायल/ और उड़ जाते हैं स्वर्ग की ओर/उनके पंखों पर लगा है खून/और मेरे विचारों में आग।’
दिलचस्प है कि मलयालम का पहला ‘अंग्रेजी’ उपन्यास कहा जाने वाला ‘घातक वधम’ दलित जीवन का भी पहला उपन्यास है, जिसकी लेखिका कॉलिंस नाम की अंग्रेज महिला हैं। उन्होंने 1858 में इसे लिखना शुरू किया और इसे पूरा करने से पहले 1859 में उनकी मृत्यु हो गई। उनके पति रिचर्ड कॉलिंस ने इसे पूरा किया। अंग्रेजी में इसका शीर्षक था, ‘द स्लेयर स्लैन’ है। रिचर्ड ने मलयालम में इसका अनुवाद किया और 1877 में छपवाया। उपन्यास बताता है कि किस तरह पारंपरिक सीरियन ईसाई धर्म परिवर्तन करके ईसाई बनने वाले दलितों का शोषण करते हैं। जहां तक कहानी का प्रश्न है तो प्रगतिवादी कथाकार तकषी शिवशंकर पिल्लै की कहानियों में दलित जीवन के यथार्थ का अंकन पहली बार व्यापक रूप से दिखा। उसके बाद केशवदेव और एस.के. पोट्टेकाट की रचनाओं में दलित जीवन की छवियां मिलती हैं।
पुस्तक में लेखक का श्रम हर स्तर पर झलकता है। लेखक ने इतिहास, समाजशास्त्र और अर्थव्यवस्था के विभिन्न ग्रंथों से तथ्य जुटाए हैं। यह कार्य दलित आंदोलन के प्रति गहरी प्रतिबद्धता के बगैर संभव न था।
केरल में सामाजिक आंदोलन और दलित साहित्य
बजरंग बिहारी तिवारी
प्रकाशक | नवारुणए
पृष्ठः 388 | मूल्यः 490 रुपये