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पुस्तक समीक्षा : समय का लेखा-जोखा

इस डायरी को पढ़ना महानगर में सुकून के कुछ पल जी लेने जैसा है।
पुस्तक समीक्षा

वरिष्ठ साहित्यकार रामदरश मिश्र का पांचवा डायरी संग्रह मेरा कमरा 2016 के उत्तरार्ध से लेकर 2019 तक के उनके नब्बे पार जीवन से जुड़े विविध प्रसंगों को सहेजे हुए है। इस डायरी को पढ़ना महानगर में सुकून के कुछ पल जी लेने जैसा है। वे लिखते हैं, “धौलाकुआं से ही फूलों का महोत्सव प्रारंभ हो गया है। यूं तो उससे पहले भी अंग-अंग को फूलों में रूपांतरित किए हुए, रंगों में दहकते सेमलों और मंजरियों से लदे आम के पेड़ों से भेंट हुई थी लेकिन धौलाकुआं और पटेल मार्ग के दोनों ओर रंग-बिरंगे फूलों का जो महोत्सव जाग रहा था, उसकी छवि निराली थी।”

पुस्तक का शीर्षक मेरा कमरा 8 अक्तूबर 2016 को लिखी गई डायरी के कुछ पन्नों पर आधारित है। बकौल मिश्र जी उनका कमरा न केवल उनके सुख-दुख के पलों का साक्षी है, बल्कि सामूहिक दुखों और सुखों की अनुगूंज से भी गुंजायमान है। वे लिखते हैं, “कमरा चार दीवारों से घिरा छत से आच्छादित छोटा-बड़ा स्थान नहीं होता, वह अनंत संवेदनाओं की गूंज से भरा इकाई होता है और घर की अन्य इकाइयों से जुड़ा होता है।” इस डायरी में रामदरश मिश्र का कमरा उनके दीर्घ सर्जनात्मक साधना का केंद्र बनकर उभरा है, जो साहित्यानुरागी पाठकों के लिए यह महत्वपूर्ण दस्तावेज है। यह डायरी अपने समय के समाज परिवेश, राजनीति, सूचनाओं आदि का लेखा-जोखा है।

उनकी अब तक प्रकाशित पांचों डायरी संग्रह सहज, हृदयस्पर्शी, मानवीय संवेदनाओं और मूल्यों से युक्त है। नई डायरी संग्रह की भूमिका में कथेतर साहित्य के आलोचक सुनील विक्रम सिंह लिखते हैं, “मिश्र जी की डायरी दैनंदिनी मात्र नहीं है। इसमें पूरा ‌परिवेश बोलता है। प्रकृति के विभिन्न सुंदर रूपों का सुरम्य चित्रण करने के साथ-साथ लेखक गरीबों की बदहाली पर दुख प्रकट करते हैं। वे अपने प्रवास को स्मृतियों में फिर जी लेते हैं। इसमें व्यक्त वैयक्तिकता का भी एक सामाजिक स्वर है।”

यह डायरी-संग्रह में उनके अनुभवों का लेखा-जोखा तो है ही लेकिन इसके साथ-साथ कभी-कभी कुछ घटनाओं ने उन्हें इतने गहरे छुआ कि कुछ मन की बातों को भी उन्होंने इसमें संजोया है। आजकल जब मीडिया और बाजार के प्रभाव में कई लेखक आत्मकथ्यात्मक विधाओं के माध्यम से प्रायः अपनी साहित्यिक जिम्मेदारी से विलग होकर यथार्थ परोसने के नाम पर सस्ती लोकप्रियता और तमाशे का हिस्सा बनना पसंद कर रहे हैं, तब ऐसे समय में वरिष्ठ साहित्यकार रामदरश मिश्र की डायरी प्रकाश स्तंभ के समान प्रतीत होती है।

 

तस्वीर जिसकी दिल में सबने उतारी है

आकांक्षा पारे काशिव

रफी को सुनना ईश्वर की आवाज को सुनने की तरह है। उनकी आवाज ने करोड़ों लोगों को अपने जादू में बांध कर रखा है। इस जादुई आवाज का सफर बहुत उतार-चढ़ाव वाला रहा। एक संघर्ष के साथ उन्होंने अपना मुकाम बनाया था। रफी साहब के बारे में कई सुने-अनसुने किस्सों को यह किताब सिलसिलेवार ढंग से सामने रखती है। इसक किताब की खासियत इसका अनुवाद है, जिसे पढ़ते हुए महसूस ही नहीं होता कि आप किसी और भाषा में अनूदित पुस्तक पढ़ रहे हैं। इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं कि रफी साहब की आवाज विलक्षण थी। लेकिन इस ऊंचाई तक पहुंचने के लिए नाई का काम करने वाले रफी ने कम मेहनत नहीं की। यह किताब उस दौर के फिल्म उद्योग की तो झलक देती ही है साथ ही उद्योग से जुड़े दूसरे लोगों की भी झलक मिलती है। इस पुस्तक में रफी साहब के साथ गायिका नूरजहां का एक बहुत मजेदार वाकया है। नूरजहां खूब मजाकिया थीं। जब रफी लाहौर से मुंबई पहुंचे तो वे स्थापित हो चुकी थीं। जब रफी नूरजहां के साथ जुगनू फिल्म की रिकॉर्डिंग के लिए पहुंचे तो उन्होंने घबराए से सादी सी पोशाक वाले रफी से पूछा, “तो, बच्चे, आखिरकार लाहौर से यहां आ ही गए। वेलकम...वेलकम। और लाहौर के क्या हाल हैं?” रफी पहले तो घबराए लेकिन फिर संभल कर बोले, “लाहौर के हाल तो ठीक ही हैं। वहां सभी अपनी बच्ची नूरजहां को मिस करते हैं।” शांत स्वभाव के रफी से ये उत्तर सुन कर सभी मुस्कराने लगे। और जब उन्होंने नूरजहां के साथ यहां बदला वफा का बेवफाई के सिवा गाया तो सब मंत्रमुग्ध रह गए। लेकिन एक कलाकार के तौर पर जो असंतुष्टि उनमें थी, शायद इसी वजह से वे इतना नाम कमा पाए। रिकॉर्डिंग के बाद उन्होंने एक और रिटेक का आग्रह किया। संगीत निर्देशक ने कहा कि रिकॉर्डिंग अच्छी हुई है। लेकिन वे नहीं माने और रिटेक दिया। 1947 में जब यह फिल्म आई तो, इस डुएट ने धूम मचा दी। ऐसी किसी शुरुआत की रफी को दरकार थी। रफी को रास्ता मिला और श्रोताओं को वह मखमली आवाज, जो उन्हें दुनिया की तकलीफों से कुछ पल के लिए दूर ले जाती है।

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