सरसरी तौर पर कहा जाए तो यह इतिहास से छेड़छाड़ का दुष्काल है। खासतौर पर राजनीतिक इतिहास से छेड़छाड़ का। जब कभी इस दौर की समीक्षा होगी तो इतिहासकारों, पत्रकारों और आलोचकों को विश्वसनीय तथ्यों को ढूंढ़ने में दिक्कत आएगी। पत्रकार पीयूष बबेले की पुस्तक के शीर्षक से ही पता चलता है कि किताब का मकसद नेहरू के राजनीतिक जीवन पर रचे गए मिथकों को जांचना है। इस दुष्काल में जब ज्ञान-विज्ञान सहित हर क्षेत्र में वैज्ञानिक शोधार्थियों का टोटा हो तो समझने लायक जरूरी बात यह है कि इतिहास ज्ञान का चुनौतीपूर्ण और जटिल विषय है।
किताब में जो कुछ नेहरू ने कहा है वही है। उनके कहे का आशय समझाते समय लेखक ने अपनी तरफ से ज्यादा न कहने में संयम बरता है। किताब में लेखक ने नेहरू के अनगिनत भाषणों, पत्रों और आकाशवाणी पर उनके संदेशो में से सिर्फ वे ही पत्र और प्रकरण छांटे हैं जो नेहरू को लेकर रचे गए मिथकों और वास्तविक तथ्यों को अलग करते हों।
पुस्तक के मुखपृष्ठ पर ही किताब की श्रेणी का सुझाव देते हुए इतिहास शब्द छापा गया है। इसलिए कुछ चर्चा इस बात पर भी होनी चाहिए कि किसी इतिहास के अध्ययन के लिए शोधपद्धति की कसौटी पर यह किताब किस तरह की है।
वैज्ञानिक शोध अध्ययन तथ्यों की विश्वसनीयता की मांग सबसे ज्यादा करता है। जबकि इतिहास के मामले में तथ्यों की प्रामाणिकता का काम बहुत कठिन हो जाता है। मसलन, अपने समय में नेहरू क्या कह रहे हैं, यह बात एक तरफ है और नेहरू के बारे में कोई दूसरा क्या कह रहा है यह बात बिलकुल अलग समझी जानी चाहिए। नेहरू को लेकर रचे गए ज्यादातर मिथकों की कथा सामग्री प्रधानमंत्री नेहरू के समकालीन उनके राजनीतिक विरोधियों और नेहरू की राजनीतिक विचारधारा के विरोधियों के कथनों से उठाई जाती है। बेशक नेहरू के विरोधी भी इतिहास के वास्तविक पात्र हैं। लेकिन क्या विरोधियों की कही किसी बात के सही गलत या वाजिब-गैरवाजिब होने के बारे में भी विश्लेषण होना चाहिए? बिलकुल उसी तरह जिस तरह नेहरू के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी होने के नाते और आजादी के बाद प्रधानमंत्री होने के नाते उनके विचारों को सही-गलत की कसौटी पर कसा जाता था और आज भी कसा जाता है। किताब में नेहरू के राजनीतिक विरोधियों को गायब नहीं किया गया है। यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी ने नेहरू के निधन पर संसद में जो भाषण दिया था वह भी इस पुस्तक में है।
किताब में आठ खंडों में कुल 45 अध्याय हैं। इन अध्यायों के शीर्षक अखबारी खबर जैसी उत्सुकता पैदा करने वाले हैं। पहले खंड का शीर्षक है ‘राष्ट्र’। इस खंड के नौ अध्यायों में राष्ट्र को लेकर नेहरू की अवधारणा को याद दिलाया गया है। इन अध्यायों में ‘राष्ट्रवाद’, ‘राष्ट्रध्वज’ और ‘राष्ट्रगान’ जैसे शीर्षक भी हैं। कश्मीर पर पूरा एक खंड है जिसे सात अध्यायों का विस्तार दिया गया है। तीसरे खंड का शीर्षक ‘सांप्रदायिकता’ है जो इस समय की प्रासंगिकता की तरफ इशारा करता है। पांचवां खंड ‘राष्ट्र निर्माण’ है। इसमें नेहरू के राजनीतिक कृतित्व का एक छोटा सा लेखा-जोखा है। इसी खंड में एक अध्याय ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ शीर्षक से है जो देश को मिली आजादी के फौरन बाद के दौर में अपनाई गई नेहरू की अर्थशास्त्रीय समझ को जानने का मौका देता है। नेहरू युवाओं में क्यों लोकप्रिय रहे इसे ‘मुल्क में इंजीनियर्स बनाएंगे’ अध्याय में जाना जा सकता है। नेहरू के समकालीन व्यक्तित्वों पर भी पूरा खंड है। इस खंड में सरदार भगतसिंह, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, सरदार वल्लभभाई पटेल, लालबहादुर शास्त्री और दूसरे दिग्गज नेताओं और नेहरू के रिश्तों को उनके बीच के वास्तविक संवादों के जरिए रखा गया है। कालांतर में नेहरू को लेकर जोड़े गए भारत-चीन युद्ध से संबधित मिथक भी हैं।