पत्रकार/लेखक संजय सिंह की किताब जनतंत्र की माया समय, समाज, संस्कार, सरकार पर की गई जुमलेदार व्यंग्यात्मक टिप्पणियों का एक संग्रह है। ये टिप्पणियां राष्ट्रीय सहारा में ‘गड़बड़झाला’ कॉलम के तहत छपती रही हैं। सिंह गांव-गिरांब, तीज-त्योहार की साधारण बातों, स्थितियों, सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक सूचनाओं, घटनाओं, कही-अनकही जानकारियों को अपने अंदाजे-बयां से खास बना देते हैं। अलबत्ता, कुछ गैर जरूरी और खानापूर्ति-सी भी लगती हैं। ‘बसपा में परिवारवाद का सिजरा’ (अंतिम) में लेखक ने बड़ी बारीकी से बसपा सुप्रीमो को न छूकर उनके तत्कालीन इनर कैबिनेट की ज्यादा खबर ली है। ‘संसद भवन में महाराणा प्रताप के घोड़े का लिंग-परिवर्तन’ में एक मूर्ति की खोट पर चोट के लिए लेखक ने संसद-भवन के प्रबंधन के साथ ही मूर्तिकार के ज्ञान और कला पर सवाल उठाया है। डॉ. सदानंद शाही से सहमत हूं कि, ‘इन टिप्पणियों का विस्तार गांव की प्रधानी से लेकर देश की सबसे बड़ी पंचायत में होने वाली उठापटक तक है।’ ‘चकरोड की चिंता छोड़िए रम्मन बाबू अपना खेत बचाइये’ शीर्षक दिलचस्प है। इस पर टिप्पणी देखें, ‘यहां खेत-खलिहानों में एक पुरानी कहावत परंपरागत तौर पर किस्से-कहानियों के साथ कही-सुनी जाती है कि ‘मेड़वे चरत बा खेत’ (मेड़ ही चर रहा है खेत)। बहरहाल, चौतरफा चरने का क्रम जारी है और अब तो आलम यह है कि जिसको जहां मौका मिल रहा है पहले भर पेट चर ले रहा है। बहुत सारे ऐसे मानुष भी हैं जो देश को ही चरने पर तुले हुए हैं।
‘समाज’ और ‘राजनीति’ शीर्षक से दो खंडों के संग्रह की भूमिका में संजय सिंह खुद कहते हैं, ‘लंबे समय से नगर और महानगर में रह जरूर रहा हूं, लेकिन गांव-गिरांव, खेत-खलिहान और बाग-बगीचे अभी भी मेरे जेहन में मौजूद हैं। ‘गड़बड़झाला’ में उनकी गंध महसूस की जा सकती है। इसलिए मेरे कॉलम की विषयवस्तु यहां (दिल्ली में) सत्ता प्रतिष्ठान बने।’ इसमें राजनेता मुलायम सिंह की ‘भुलनी बीमारी’ (अल्जाइमर) और लालू-पासवान की नोक-झोंक वगैरह का जिक्र बड़ी फिक्र और दिलचस्प तरीके से किया गया है। बाकी किताब के सफों में दर्ज लफ्ज और उनको ललकारते कार्टून खुद बताएंगे कि उनमें रोचक/रोमांचक क्या है? इसके लिए जनतंत्र की माया पढ़ना होगा। अलबत्ता, प्रूफ की गलतियों की बाधा पार कर ही भाषा की रोचकता का आनंद उठा सकेंगे!