यह एक यात्रा-कथा है, जो कई स्तरों पर चलती है और व्यक्ति के अलग-अलग पहलुओं को दर्शाती चलती है। यह यात्रा-कथा जरूरी है लेकिन ‘ट्रेवलॉग’ नहीं है। एक घरेलू सहायक की बद्रीनाथ यात्रा के बहाने लेखिका, अभिजात्य वर्ग की ‘उदारता’ का भी बहुत सटीक वर्णन करती हैं। एक आस्थावान निम्नवर्गीय भारतीय छिगन एक बार चार धाम यात्रा करना चाहता है। वह घरेलू सहायक है उसके पास इतने संसाधन नहीं कि वहां की यात्रा कर सके। जिस घर में वह सहायक है, वे लोग उसे भी अपने साथ यात्रा पर ले जा रहे हैं। दरअसल अपने नौकर को ले जाना ही इस उपन्यास का सार है, जहां लेखिका उस वर्ग की मानसिकता और पैसे वाले होने के बाद भी मन से दरिद्र लोगों के बारे में बताती हैं।
लक्ष्मी शर्मा के पास अपनी भाषा है, जिसका अपना सम्मोहन है। यात्रा के बीच रास्तों का वर्णन करते वक्त वह शब्द चित्र खींचती हैं और कई प्रसंगों का वर्णन ऐसा करती हैं, जैसे पाठक छिगन के साथ ही उस यात्रा का हिस्सा हो जाते हैं। इन वर्णनों के बीच कथा निर्बाध गति से चलती रहती है और कहानी का चलना इतना सहज है कि कथा कहीं भी बोझिल नहीं होती। यात्रा पर गए परिवार का एक पालतू है, गूगल। लेखिका गूगल की उपस्थिति भी एक पात्र की तरह बराबर बनाए रखती हैं। क्योंकि गूगल कथा-यात्रा का एक जरूरी बिंदू है, जो किस्सों और घटनाओं के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी का काम करता है। इस उपन्यास की खास बात है कि जहां यह कहानी विराम लेती है, वहां से पाठको के मन में एक नई कथा जन्म लेती है। ऐसा इसलिए है कि वह कथा को ऐसे मोड़ पर छोड़ती हैं, जहां पाठकों को लगता है कि इसे और विस्तार दिया जाना चाहिए।
उपन्यास के केंद्रीय पात्र छिगन की आशा, उसकी मनोदशा, यात्रा का उत्साह और यात्रा के दौरान उसके अनुभव बहुत ही कौशल के साथ एक-एक कर सामने आते हैं और यही सब ब्यौरे, बताते हैं कि छिगन, बचपन से जिस तीर्थयात्रा के सपने देखता था, जिस यात्रा की उसके मन में हसरत थी, उसकी कीमत रुपयों से भी कहीं ज्यादा है। इस यात्रा में इंसानी व्यवहार के कई रूप दिखाई देते हैं, जो मनोविज्ञान का आकलन करते हैं।
स्वर्ग का अंतिम उतार
लक्ष्मी शर्मा
प्रकाशक | शिवना प्रकाशन
पृष्ठः 104 | मूल्यः 150 रुपये