यह कहानी सिर्फ माया की नहीं है, बल्कि हर उस स्त्री की है जिसे खुद की मर्जी ग्लानि लगती है। और अगर स्त्री माया की तरह दिल से सरल हो तो उसे लगता है जैसे खुद के लिए सोचना पाप से कम नहीं है। गीताश्री का उपन्यास कैद बाहर कई परतों को खोलता है।
ये परत शब्दों और वाक्यों से उजागर नहीं होते। यदि उसे पाठक समझ पाएं, तो इस उपन्यास को पढ़ने का आनंद अधिक बढ़ जाएगा। जैसे कुछ पेशे हैं, जो स्त्रियों के अपनाने पर उन पर चालू हो जाने का तमगा सहज ही लग जाता है। पत्रकारिता ऐसा ही पेशा है। चूंकि गीताश्री खुद पत्रकार रही हैं इसलिए माया का चरित्र बहुत विश्वसनीय ढंग से गढ़ा हुआ लगता है। दिल्ली के एक बड़े संस्थान में पत्रकार की नौकरी के रूप में माया आसपास के माहौल को भी सहजता से पाठकों के सामने ले आती है। अपनी शर्तों पर जीने वाली, लेकिन संवेदनशील माया के लिए प्रेम बहुत अलग तरह का विचार है। माया के साथ उसके आसपास ऐसी बहुत सी स्त्रियां हैं जो उन रिश्तों की कैद से बाहर नहीं आ पा रहीं जिन्हें वे जीना नहीं चाहतीं। हाल के दिनों में ऐसे रिश्तों पर बात की जाने लगी है जिनमें स्त्रियां बिना मर्जी के घुट-घुट कर अपना जीवन जी रही हैं। ऐसी ही स्त्रियों की कहानियां माया के आसपास हर दिन घट रही हैं। माया के नजरिये से रिश्तों को देखना इतना वास्तविक लगता है कि आजादी तलाशती ये औरतें कहीं से भी नारीवादी या आजाद खयाल नहीं लगतीं। यह उपन्यास स्त्री आजादी की बात करता है लेकिन आजादी के मसले पर कई तरह के प्रश्न भी उठाता है।
इस उपन्यास की खास बात यह है कि यहां सिर्फ फेमेनिज्म नहीं है। न किसी प्रकार के नारी-विमर्श का प्रलाप है। यहां पुरुष पक्ष को भी जगह दी गई है, जो इसे संतुलित बनाता है। उनकी लेखनी में पुरुषों के प्रति कोई दुराग्रह या पूर्वाग्रह नहीं है। जेंडर से परे उन्होंने इस के बहाने आज का यथार्थ लिखा है।
उन्होंने इसे कितनी साफगोई और ईमानदारी से लिखा है, यह जानने के लिए यह एक पंक्ति ही काफी है, “कई बार एक उम्र के बाद पुरुष भी स्त्रियों को मुक्त कर देते हैं, जब वे स्त्रियों को पूरा जी लेते हैं। वे स्त्रियों को निचुड़े हुए नींबू की तरह उछाल देते हैं, जिसे वे अपनी उदारता बताते हैं। वह उनका असली चरित्र होता है। कुछ पुरुषों को मोनोपॉजियन स्त्रियां यूजलेस लगती हैं।”
सधा हुआ शिल्प और रवानी भरी भाषा इन यूजलेस स्त्रियों की कहानी को ऐसे कहती है, जैसे यह हर स्त्री की अपनी कहानी हो।
कैद बाहर
गीताश्री
प्रकाशक | राजकमल पैपरबैक्स
पृष्ठः 226 | कीमतः 299