तीन उपन्यास- ‘ये वो सहर तो नहीं’, ‘अकाल में उत्सव’ और जिन्हें ‘जुर्म-ए-इश्क पर नाज’ था से चर्चित हुए पंकज सुबीर ने अपने नए उपन्यास रूदादे-सफर को जिस जमीन पर तराशा है, उस जमीन की आधी मिट्टी सूखी और आधी गीली है। ऐसे दो हिस्सों साथ लेकर चलना लेखकीय कौशल है, जिसे उन्होंने कमजोर नहीं पड़ने दिया है। उपन्यास का अंत पाठक को देर सुन्न अवस्था में छोड़ देता है। विज्ञान-चिकित्सा विषय होने पर भी भाषा शुष्क नहीं होती। दो विपरीत विषयों का ताना-बाना बुन पंकज सुबीर ने पिता और पुत्री के रिश्ते पर खूबसूरती से लिखा है। सुबीर ने उपन्यास में पिता-पुत्री की भावनाओं का सुंदर चित्रण किया है। एनॉटमी, रिश्ते और भावनाएं सब मिल कर उपन्यास को विशाल बनाते हैं। एनॉटमी पर लिखा गया यह उपन्यास हिंदी साहित्य को नायाब तोहफा है।
डॉ. राम भार्गव और डॉ. अर्चना भार्गव के माध्यम से लेखक ने पिता-पुत्री के रिश्ते को खूबूसती से अभिव्यक्त किया है। न इसमें घटनाओं की भरमार है न बहुत उतार-चढ़ाव। इसमें अंर्तकथाएं भी नहीं चलतीं। कथा और पात्र साथ चलते हैं, जो कसे हुए ताने-बाने में जरा नहीं भटकते। लेखक ने पिता-पुत्री के प्यार में मां को अलग-थलग नहीं होने दिया। बल्कि मां के गुस्सैल स्वभाव के बावजूद पिता बेटी अर्चना की नजरों में मां की छवि गरिमामय बनाते हैं। वह बेटी को बताते हैं, “हम वही बनते हैं, जो हमें हमारी जिंदगी शुरू के बीस-पच्चीस वर्षों में बनाती है, हमारा स्वभाव, हमारी आदतें, हमारी पसंद-नापसंद, सब हमारे जीवन के शुरू के पच्चीस सालों में तय हो जाता है। तुम्हारी मम्मी वही है जो उनको जिंदगी ने बना दिया है।”
उपन्यास अकेलेपन की भी नए सिरे से व्याख्या करता है। वह अकेलापन जो अर्चना के जीवन में है। अर्चना का प्रेम परवान नहीं चढ़ता और मां की मृत्यु के बाद वह पिता के अकेलेपन की खातिर शादी नहीं करवाती। संवादों के माध्यम से कहानी अच्छे से संप्रेषित होती है। संवाद सहज और बोलचाल की भाषा में हैं। पाठक उपन्यास पढ़ते समय अपने आप उस बातचीत का हिस्सा हो जाता है। रुदादे-सफर एनॉटमी और देहदान जैसे जटिल विषयों को विषय और नैतिक जिम्मेदारी के रूप में आगे बढ़ाता है। देहदान को हमेशा संस्कारों से जोड़ कर अलग कर दिया जाता है, पर रुदादे-सफर में लेखक ने देहदान की उपयोगिता, उसके महत्व तथा उसकी सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी को जिस बखूबी से चित्रित किया है, वह काबिले तारीफ है। खास बात यह कहीं से कुछ भी थोपा हुआ नहीं लगता। मेडिकल व्यवसाय में बुरी तरह फैल रहे भ्रष्टाचार को भी इस उपन्यास में बड़े शोध के साथ बुना गया है। उल्लेखनीय है कि यह उपन्यास चिकित्सा शिक्षा की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है, मुख्य पात्र भी चिकित्सक हैं, उसके बाद भी यह उपन्यास चिकित्सा जगत में इन दिनों व्याप्त सभी प्रकार के भ्रष्टाचार पर बात करता है। न केवल बात करता है बल्कि सप्रमाण पूरी भ्रष्ट व्यवस्था को परत दर परत खोलता जाता है। साथ ही चिकित्सा व्यवसाय के आने वाले एक भयावह कल का भी चित्र पाठक के सामने प्रस्तुत करता है। यह सब पाठक की आंखें खोल देने वाले जरूरी वर्णन हैं।
रूदादे-सफ़र
पंकज सुबीर
प्रकाशक | शिवना प्रकाशन
पृष्ठः 232 | मूल्य `300