इस चुनाव में पहली बार बहुत कुछ होने जा रहा है। एक तो पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के विवादास्पद इस्तीफे और उसके बाद सन्नाटे में यह चुनाव हो रहा है, जो आजाद भारत के इतिहास में पहली बार है। दूसरे, अगर भाजपा-एनडीए के उम्मीदवार सी.पी. राधाकृष्णन जीतते हैं, जो मौजूदा आंकड़ों से तय लग रहा है, तो पहली बार कोई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का उच्च पदाधिकारी रहा शख्स देश के उच्च संवैधानिक पद पर पहुंचेगा। तीसरे, मौजूदा दौर की सख्त सियासी गोलबंदी की धुरी साफ-साफ विचारधारा और संवैधानिक प्रतिबद्धताओं तक खिंच गई है। चौथे, मुकाबले में दोनों उम्मीदवार, एनडीए के राधाकृष्णन तमिल और इंडिया ब्लॉक के सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बी. सुदर्शन रेड्डी तेलुगु यानी दक्षिण भारत से हैं और दांव पर वहां के सियासी समीकरण हैं। पांचवे, कसी खेमेबंदियों से इतर उम्मीदवारों के आधार पर वोटिंग की संभावना कम है या कड़ी गोलबंदी है। छठे, चुनाव से ज्यादा सियासी नैरेटिव पर जोर है और शायद सियासी समीकरणों को भी चुनौतियां मिल सकती हैं। लेकिन यह सब 9 सितंबर को मतदान के बाद ही जाहिर होगा।
भाजपा के उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार राधाकृष्णन फिलहाल महाराष्ट्र के राज्यपाल हैं और उससे पहले झारखंड के राज्यपाल थे, जब राजभवन में ईडी की टीम तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को ऐसे विवादास्पद मामले में गिरफ्तार करने पहुंच गई थी, जिसे बाद में झारखंड हाइकोर्ट ने यह कहकर जमानत दे दी थी कि यह मामला बनता ही नहीं है। राधाकृष्णन तमिलनाडु में आरएसएस के प्रांत प्रचारक रह चुके हैं, जो संघ के पदानुक्रम में ऊंचा ओहदा है। वे कोयंबत्तूर से दो बार लोकसभा के सदस्य रह चुके हैं। उनके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी काफी करीबी रिश्ते हैं। दरअसल 2002 में जब मोदी मुख्यमंत्री थे, तो गोधरा कांड और गुजरात दंगों के वक्त उनके राजकाज से तत्कालीन एनडीए के प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के नाखुशी जाहिर करने के बाद राधाकृष्णन ने ही उन्हें कोयंबत्तूर में मंच मुहैया कराया था। इसके अलावा, वे तमिलनाडु के पश्चिमी हिस्से में खास असर रखने वाली प्रमुख ओबीसी जाति गौंडर से हैं, जिस समुदाय में पैठ बनाने के लिए पार्टी इधर कुछ समय से के. अन्नामलै के नेतृत्व में और उसके बाद के. पलानीस्वामी के नेतृत्व वाली अन्नाद्रमुक के साथ गठबंधन के जरिए काफी कोशिश करती रही है।
राधाकृष्णन भाजपा के मौजूदा गणित में फिट बैठते हैं। सूत्रों के मुताबिक, कर्नाटक के राज्यपाल थावर चंद गहलोत भी मजबूत दावेदार थे। गहलोत मध्य प्रदेश के प्रमुख दलित नेता हैं। लेकिन पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का जोर दक्षिण में पैठ बनाने और आरएसएस की स्थापना के सौवें वर्ष में उसके किसी पदाधिकारी को देश के दूसरे नंबर के संवैधानिक पद पर बैठाने पर था। पहली बार प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त को लाल किले से संबोधन में आरएसएस की सराहना भी की थी।
भाजपा के खेमे से इसके पहले उपराष्ट्रपति रहे वेंकैया नायडू आरएसएस के छात्र संगठन एबीवीपी से भाजपा आए थे। उनके अलावा, 2002 से 2007 तक उपराष्ट्रपति रहे दिवंगत भैरों सिंह शेखावत आरएसएस के स्वयंसेवक तो थे, लेकिन राधाकृष्णन जैसे वरिष्ठ आरएसएस पदाधिकारी नहीं थे। इस तरह दिल्ली की सत्ता नागपुर को भी सकारात्मक संकेत देती लगती है।
बेशक, उनके चयन में मोदी के दिमाग में तमिलनाडु और केरल जैसे दक्षिणी राज्यों में पार्टी की पहुंच बढ़ाने की कवायद भी रही होगी। तमिलनाडु के विधानसभा चुनाव में साल भर से भी कम का वक्त है। ऐसे में, आरएसएस के तमिल नेता को आगे बढ़ाना संघ परिवार की राजनीति में सुरक्षित प्रयोग जैसा हो सकता है।
इंडिया ब्लॉक के रेड्डी
मुकाबले में विपक्षी इंडिया ब्लॉक ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बी. सुदर्शन रेड्डी को उम्मीदवार बनाया है। वे तेलंगाना के हैं, जो एक वक्त अविभाजित आंध्र प्रदेश का हिस्सा था। इसलिए तेलंगाना के मुख्यमंत्री ने तेलुगु गौरव के नाम पर तेलंगाना और आंध्र के सभी दलों से उन्हें वोट देने की अपील की है। जस्टिस रेड्डी कभी किसी दलगत राजनीति से नहीं जुड़े रहे हैं और बतौर न्यायाधीश संवैधानिक प्रतिबद्धताओं के लिए चर्चित रहे हैं। फिर, ऐसे वक्त में जब संवैधानिक संस्थाओं पर सरकार के अनुकूल होने के आरोप लग रहे हों, साफ-सुथरी छवि के पूर्व न्यायाधीश पर दांव अच्छा नैरेटिव तैयार कर सकता है। जस्टिस रेड्डी ने खुद को लिबरल सोशल डेमोक्रेट और संवैधानिक मूल्यों का आग्रही बताया है, जो भाजपा के वैचारिक ताने-बाने के विपरीत है।
मौजूदा गणित के लिहाज से देखें तो भाजपा इस चुनाव में मजबूत पायदान पर खड़ी दिखती है। उपराष्ट्रपति पद के लिए निर्वाचक मंडल में लोकसभा और राज्यसभा के सभी मौजूदा सांसद होते हैं। दोनों सदनों के सदस्यों की फिलहाल संख्या 782 है और जीत का आंकड़ा 392 है। एनडीए के पास लगभग 425 वोट हैं, जो वाइएसआर कांग्रेस के समर्थन से 436 तक पहुच जाते हैं। यह संख्या जीत के आंकड़े से काफी ज्यादा है। इंडिया ब्लॉक की कुल संख्या 310 है। बाकी सभी छोटे दल एकजुट हो जाएं, तब भी विपक्ष का उम्मीदवार पीछे रह जाएगा। यहीं पेच है। अगर तेलुगु गौरव के नाम पर तेलुगु देशम, वाइएसआर कांग्रेस, एआइएमआइएम के सांसद जस्टिस रेड्डी को वोट दे देते हैं या उनके कुछ सांसद क्रॉस-वोटिंग करते हैं तो आंकड़ा कांटे पर पहुंच सकता है। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति चुनाव में पार्टियों के ह्विप जारी नहीं होते और मतदान गुप्त होता है। यह संभावना सत्तारूढ़ भाजपा के लिए किरकिरी जैसी स्थिति हो सकती है।
जस्टिस रेड्डी के आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू से अच्छे रिश्ते रहे हैं। इसी वजह से नायडू दिल्ली पहुंचे और मोदी से मुलाकात के वक्त उनके सभी सांसद भी बुलाए गए थे। सियासी गलियारों में तो यह भी अटकल है कि 130वां संविधान संशोधन विधेयक भी दबाव बनाने के लिए लाया गया है। असल में भाजपा की चिंता शायद जीत को लेकर उतनी नहीं, जितनी कांटे के मुकाबले को लेकर है। अगर ऐसा होता है तो उसके सियासी गणित पर सवाल उठ सकता है। भाजपा के भीतर भी कुछ खलबली की खबरें हैं और पार्टी के पदाधिकारी हर सांसद को फोन कर रहे हैं।
यही नहीं, वैचारिक लड़ाइयों को भी धार देने की कोशिशें दोनों तरफ से हो रही हैं। अमित शाह ने आरोप लगाया है कि रेड्डी ने बतौर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश 2011 में छत्तीसगढ़ में सलवा जुड़ुम के खिलाफ फैसला नहीं दिया होता तो नक्सलवाद 2020 में खत्म हो गया होता। इस तरह वे उन्हें अति वामपंथ के हमदर्द बताने की कोशिश कर रहे हैं। जवाब में रेड्डी ने कहा कि शाह सुप्रीम कोर्ट के दो जजों का फैसला पढ़ लेते तो ऐसा नहीं कहते। उसमें सरकार को किसी गैर-सरकारी मिलिशिया का इस्तेमाल करने को गैर-कानूनी बताया गया गया था, नक्सलवाद से सरकार के लड़ने को नहीं।
विपक्ष के लिए यह चुनाव उसकी एकजुटता की भी परीक्षा है। 2022 के चुनाव में तृणमूल ने कांग्रेस की उम्मीदवार मार्गरेट अल्वा के लिए मतदान ही नहीं किया था। इस बार, पार्टी के नेता रेड्डी के लिए वोट जुटाने की कवायद में सक्रिय हैं। आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने भी रेड्डी के पक्ष में बयान दिया है।
सो, तय है कि इस चुनाव का नैरेटिव नतीजों तक सीमित नहीं रहेगा। पहला संकेत तो यही है कि दक्षिण राष्ट्रीय राजनीति के अगले बड़े रंगमंच के रूप में उभर रहा है। यह भाजपा के लिए तमिलनाडु में पैठ बनाने की रणनीति का हिस्सा है, तो कांग्रेस के लिए तेलंगाना के एक न्यायविद को मैदान में उतारना दक्षिणी मतदाताओं, खासकर अल्पसंख्यकों, बुद्धिजीवियों और भाजपा के बहुसंख्यकवादी रुझान से नाराज लोगों के बीच विश्वसनीयता बढ़ाने की कोशिश है।
उपराष्ट्रपति राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं, जहां भाजपा के पास बहुमत नहीं है। राधाकृष्णन के रूप में मोदी का विश्वसनीय व्यक्ति आसन पर होगा। विपक्ष की कोशिश होगी कि चाहे हार हो, संस्थाओं पर कब्जे का नैरेटिव बना रहे। तो, इस बार का चुनाव अहम हो गया है, मानो केंद्र के समीकरण की परीक्षा हो रही है।