कनाडा के लोगों ने प्रधानमंत्री मार्क कार्नी की लिबरल पार्टी के हक में मतदान करके डोनाल्ड ट्रम्प को ठेंगा दिखा दिया। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के छेड़े व्यापार युद्ध और कनाडा को अमेरिका का 51वां राज्य बनाने की धमकियों ने लिबरल पार्टी को नया जीवनदान दे दिया। पूर्व लिबरल प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो की जगह लेने वाले कार्नी ने समय से पहले चुनाव की मांग की थी। ट्रूडो राज में लिबरल पार्टी की स्थिति डावांडोल थी इसलिए उन्हें ट्रम्प का आभारी होना चाहिए कि उन्होंने पार्टी की किस्मत पलट दी।
ट्रम्प जैसे-जैसे चुनाव अभियान पर हावी होते गए, लिबरल पार्टी की नाकामियां ओझल होती गईं। जीत के बाद कार्नी ने कहा, ‘‘ट्रम्प हमें तोड़ना चाहते हैं, ताकि अमेरिका हमें अपना सके, वे हमारे संसाधन चाहते हैं, वे हमारा पानी चाहते हैं, वे हमारी जमीन चाहते हैं, वे हमारा देश चाहते हैं। यह नहीं हो सकता।’’
महीने भर के छोटे-से चुनाव अभियान में कार्नी का मुख्य फोकस यही मुद्दा रहा। विशेष रूप से ट्रम्प के टैरिफ और धमकियों ने ऐसा राष्ट्रवादी उन्माद पैदा किया कि कार्नी का समर्थन बढ़ता गया।
जीत के बाद, प्रधानमंत्री कार्नी ने ट्रम्प को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि कनाडाई लोगों को अब ‘‘बिल्ड, बेबी बिल्ड’’ करना होगा। यह ट्रम्प के लगातार देश भर में तेल और खनिजों के लिए खुदाई करने वाले बयानों के संदर्भ में टिप्प्णी थी, जिसे बाइडन प्रशासन ने पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव के कारण रोकने का प्रयास किया था।
ट्रम्प ने सत्ता में आते ही तेल और खनन लॉबी को खुश करने के लिए पूर्ववर्ती आदेश को पलट दिया और नारा दिया, ‘‘ड्रिल, बेबी ड्रिल।’’ ट्रम्प का मानना है कि जलवायु परिवर्तन चीनी अफवाह है।
कनाडा और ब्रिटेन दोनों के केंद्रीय बैंकों के पूर्व गवर्नर और अर्थशास्त्री कार्नी को अधिकांश कनाडाई लोग व्यापार और वित्तीय मामलों से निपटने के मामले में सबसे अच्छा व्यक्ति मानते हैं, खासकर जबसे ट्रम्प ने कनाडा पर अपना टैरिफ थोपा है।
हालांकि कार्नी राजनीति के मामले में नौसिखिया हैं। जनवरी 2025 में पूर्व प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के इस्तीफे के बाद सुर्खियों में आने तक वे कभी भी निर्वाचित पद पर नहीं रहे। लेकिन एक बार जब उन्होंने पदभार संभाला, तो ट्रम्प की गीदड़ भभकियों को उन्होंने प्रभावी चुनाव अभियान में बदल डाला।
अमेरिका में ट्रम्प के आने से पहले सभी जनमत सर्वेक्षणों ने कनाडा में कंजर्वेटिव पार्टी की जीत का अनुमान लगाया था, जिसमें पियरे पोइलीवरे को अगला प्रधानमंत्री बताया गया था। ट्रम्प ने अपने किए से पोइलीवरे की किस्मत बिगाड़ दी। हार स्वीकार करके उन्होंने कहा, ‘‘हमने कठिन सबक सीखे हैं।’’ कंजर्वेटिव पार्टी ने भारी संख्या में सीटें जीती हैं और एक प्रभावी विपक्ष की भूमिका वह निभा सकती है।
कार्नी के विपरीत कंजर्वेटिव उम्मीदवार ने ट्रम्प को अपने प्रचार अभियान के केंद्र में नहीं रखा। इसके बजाय, उन्होंने ट्रूडो राज की विफलताओं की लंबी सूची पर जोर दिया, जिसमें देश में आवास की भारी कमी और बढ़ती महंगाई शामिल है। इसका नतीजा उन्हें भुगतना पड़ा। ट्रम्प के शपथ ग्रहण के बाद अतिरंजित माहौल में ये मुद्दे महत्वपूर्ण तो थे, पर मतदाताओं की प्राथमिक चिंता में नहीं थे।
कार्नी का पहला काम अब अमेरिका के साथ नए आर्थिक और सुरक्षा समझौते के साथ संबंधों का पुनर्निर्माण करना होगा।
लिबरल जस्टिन ट्रूडो का जीतना भारत के लिए बुरी खबर थी। अबकी दिल्ली की सत्ता को कंजर्वेटिव पार्टी की जीत की उम्मीद थी, हालांकि ट्रूडो के बगैर लिबरल पार्टी भारत को अधिक स्वीकार्य है। इसकी वजह यह है कि कनाडाई-सिखों के बीच ट्रूडो का समर्थन ठीकठाक था। वे अक्सर खालिस्तान समर्थक टिप्पणी करते थे। कनाडा के सिख वहां की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे अन्य देशों में रहने वाले सिखों की तुलना में अधिक प्रभावशाली हैं। जस्टिन ट्रूडो ने पिछले कार्यकाल में सिख कार्ड खेला था क्योंकि अधिकांश कनाडाई लोगों के बीच उनकी लोकप्रियता घट रही थी। उन्होंने सिख समुदाय के नेताओं पर भरोसा करना शुरू कर दिया था।
ऐसा नहीं है कि कनाडा के सभी सिख खालिस्तान के समर्थक हैं, लेकिन खालिस्तानी अलगाववादियों के नियंत्रण में बड़ी संख्या में गुरुद्वारे हैं, इसलिए कई आम सिख जो सुनते हैं, उससे प्रभावित होते हैं। हालात तब और बिगड़ गए जब ट्रूडो ने खालिस्तानी हरदीप सिंह निज्जर की गोली मारकर की गई हत्या में भारत की सीधी संलिप्तता का आरोप लगाया। जून 2023 में वैंकूवर के एक उपनगर में नकाबपोश बंदूकधारियों ने उनकी गोली मारकर हत्या कर दी थी। दिल्ली ने उन आरोपों से इनकार किया लेकिन हत्या के साथ शुरू हुआ कूटनीतिक विवाद दोनों देशों के संबंधों को बाद में भी प्रभावित करता रहा, जब दोनों देशों ने एक-दूसरे के राजनयिकों को निष्कासित कर दिया।
इसलिए जस्टिन ट्रूडो के जाने से संभव है कि दिल्ली और ओटावा अब कार्नी के नेतृत्व में नए सिरे से संबंधों की शुरुआत करेंगे। कार्नी को देश भर से समर्थन मिला है, इसलिए यह संभावना नहीं है कि वे खालिस्तानी लॉबी पर निर्भर होंगे। भारत के लिए यह अनुकूल स्थिति होगी।