‘‘जब तक हम हैं, स्टेज पर हैं। जीते जी मर जाएं, इससे बेहतर है कि मर कर जिंदा रहें।’’ अमर सिंह चमकीला फिल्म का यह संवाद दर्शकों के साथ लंबे समय तक रहता है। यह फिल्म आजकल चर्चा में है। इस फिल्म का कथानक, पंजाब के ऐसे लोकप्रिय लोकगायक पर आधारित है, जो अपने समय में विवादों में घिरा रहा और 27 वर्ष की उम्र में उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई। फिल्म देखते समय मेरे भीतर घनघोर द्वंद्व की स्थिति रही। फिल्म मेरे अंदर चक्र की तरह घूमती रही।
पहली बात द्वंद्व की करें। सभी को मालूम है कि मैं पिछले 9 साल से सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन यानि सेंसर बोर्ड की सदस्य हूं। सेंसर बोर्ड ने गहरे विमर्श के बाद यह फैसला लिया कि महिलाओं को ऑब्जेक्ट की तरह पेश करने वाली फिल्मों को किसी भी कीमत पर प्रमाणित नहीं किया जाएगा। इस दृष्टि से यदि देखा जाए, तो अमर सिंह चमकीला ऐसे व्यक्ति की कहानी है, जिन्होंने आजीवन अपने गीतों में महिलाओं का अश्लील चित्रण किया। इस अश्लील और भद्दे चित्रण के कारण ही अमर सिंह को लोकप्रियता हासिल हुई। इस दृष्टि से तो मुझे इस फिल्म से घोर असहमति होनी चाहिए। पर जब मैं अपने आसपास देख रही हूं, तो मुझे फिल्म के बारे में तीन तरह के विचार दिखाई पड़ रहे हैं। एक तरह के लोग, जो फिल्म का खुला विरोध कर रहे हैं। उनकी नजर में यह फिल्म अश्लीलता की पैरोकारी कर रही है। दूसरे वे जो इस फिल्म को बहुत पसंद कर रहे हैं। उनकी नजर में फिल्म मनोरंजन का जरिया है। तीसरे, जो तटस्थ होकर सवाल पूछ रहे हैं कि अश्लील गायक के जीवन पर बनी फिल्म आखिर इतनी लोकप्रिय क्यों है?
अमर सिंह चमकीला अपनी पत्नी अमरजोत के साथ
सबसे पहले मैं अपने उस मन का विश्लेषण करना चाहूंगी, जो अश्लीलता के विरोध में झंडा फहराने में कामयाब भी रहा और जिसने राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय मंच पर अश्लीलता के विरोध में पुरजोर ढंग से अपनी बात रखी। यदि फिल्म के कथानक का सूक्ष्मता से विश्लेषण करें तो मालूम पड़ता है कि यह फिल्म अमर सिंह के गानों के बारे में नहीं उनके जीवन और उसके संघर्ष के बारे में है। फिल्म बताती है कि अमर सिंह चमकीला समाज के तलछट से ऊपर उठा और अपनी बुद्धि, गुण और हुनर से मुकाम हासिल किया। फिल्म बताती है कि अमर सिंह चमकीला गुणी होने के साथ चतुर भी है। उसे अच्छी तरह से मालूम है कि श्रोताओं की पसंद क्या है। वह श्रोताओं की रग पर हाथ रखकर लोकप्रियता के शीर्ष पर पहुंचने में कामयाब हो जाता है।
फिल्म की शुरुआत दर्दनाक हादसे से होती है। अमर सिंह चमकीला और उसकी पत्नी अमरजोत की गोली मारकर जघन्य हत्या कर दी जाती है। इसके आगे की कहानी फ्लैशबैक में है। मेरे लिए यह यात्रा अनोखी रही। अक्सर जो कलाकार ग्रामीण क्षेत्रों में भांड, नाटक, नौटंकी वालों के नाम से अति लोकप्रिय होते हैं, उनकी प्रतिभा से कला की मुख्यधारा अपरिचित, अनभिज्ञ रहती है। इनको कभी वह मान, सम्मान, पहचान नहीं मिलती, जो बॉलीवुड कलाकारों को हासिल होती है। ये कलाकार केवल अपनी क्षेत्रीय सीमा तक सीमित रह जाते हैं। लेकिन अमर सिंह चमकीला की कहानी असाधारण है। इसे किसी भी तरह नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
अमर सिंह चमकीला अपनी यात्रा में विचित्र तरह के द्वंद्व में फंस जाता है। एक ओर उसका तेजी से बढ़ता म्यूजिक करिअर पंजाब में फैलते कट्टरपंथी आंदोलन की भेंट चढ़ रहा होता है, तो दूसरी ओर भक्ति भाव से प्रेरित गीत रिलीज करने पर, उसे सिख कट्टरपंथियों का समर्थक होने का तमगा दे दिया जाता है। यानि अमर सिंह चमकीला पर दोहरी मार पड़ती है। वह सिख कट्टरपंथियों और सरकार, दोनों के निशाने पर आ जाता है। दोनों ही उसे समाज का दुश्मन समझते हैं और उसकी आवाज को खामोश करना चाहते हैं। इस तरह से अमर सिंह चमकीला को अनेक चर्चित कलाकारों की तरह, लोकप्रियता बनाम लोकधर्मिता के द्वंद्व से गुजरना पड़ता है।
अमर सिंह चमकीला फिल्म के प्रमोशन के दौरान दिलजीत दोसांझ और परिणीति चोपड़ा
फिल्म बेहद संवेदनशील है। इसके लिए निर्देशक इम्तियाज अली बधाई और प्रशंसा के पात्र हैं। इम्तियाज अली ने फिल्म बनाते हुए पूरी ईमानदारी बरती है। उन्होंने कहीं भी पुरुषों के भीतर स्त्रियों के शरीर और सेक्स को लेकर पनपने वाली कुंठा को छिपाने का प्रयास नहीं किया है। उनकी फिल्म का नायक अमर सिंह चमकीला, अपनी पत्नी के साथ मंच पर सेक्स, कामुकता को चित्रित करने वाले गीत गाता है। यह बात समाज की उस विसंगति की ओर भी ध्यान खींचती है, जो विसंगति अमर सिंह चमकीला की मृत्यु के समय भी थी, आज भी है। यह सीधी बात है कि चाहे अस्सी का दशक हो या आज का साल 2024, महिलाओं को कामुक दृष्टि से देखने की मनोवृत्ति पुरुषों में आज भी है। इंटरनेट युग ने इस मनोवृत्ति को बढ़ाने का ही काम किया है।
यहां एक बात ध्यान देने योग्य है। समाज का बुद्धिजीवी, सभ्रांत वर्ग एसी ऑडिटोरियम में बैठकर कॉफी पीते हुए, साहित्य, संगीत और फिल्मों में मौजूद अश्लीलता पर चर्चा तो करता है मगर वह, अश्लील कंटेंट बनाने वाले कलाकारों के रोजमर्रा के संघर्षों से अनभिज्ञ रहता है। उसे नहीं पता होता कि यह कलाकार कैसे अपना पेट भरने के लिए सुबह से रात तक जद्दोजहद करते हैं। बिना इन कलाकारों की परिस्थिति और पक्ष जाने, कोई भी विमर्श पूरा नहीं हो सकता।
फिल्म देखते हुए कई बार महसूस होता है कि फिल्म के कथानक से हम नकारात्मक तो नहीं हो रहे हैं। फिल्म में कई घटनाएं चुभती हैं, भीतर तक झकझोर देती हैं। इसके रिलीज होने पर बहुत लोग नाराज हुए। उनका कहना है कि एक अश्लील कलाकार के जीवन पर फिल्म बनाकर किस लोकप्रियता का डंका पीटा जा रहा है। यूं भी बॉलीवुड पर पंजाबी गानों के अति प्रभाव का लांछन लगता ही है।
यहां सवाल यह भी उठता है कि यदि हमारे पास अमर सिंह चमकीला जैसी कहानी है, तो उसे बनाएगा कौन? क्या हम केवल विमर्श और विश्लेषण तक सिमट कर रह जाएंगे और इस तरह के गांव, खेड़ों की कहानियां गुमनाम रह जाएंगी? यह प्रश्न महत्वपूर्ण हैं और इनका जवाब ढूंढ़ना होगा, तभी सिनेमा आगे बढ़ सकेगा। इस फिल्म को सार्थक तभी कहा जाएगा, जब लोग इससे प्रेरणा लेकर अपने गांव, अपनी मिट्टी के कलाकारों की कहानियों को कहने का साहस जुटा सकेंगे।
इस फिल्म से मेरा व्यक्तिगत लगाव भी है। फिल्म के निर्देशक इम्तियाज अली, दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज में मेरे सीनियर थे। फिल्म के निर्माता मोहित चौधरी भी कॉलेज में राजनीति शास्त्र में मेरे सहपाठी थे। कॉलेज के दौरान हमने मिलकर एक थियेटर सोसायटी को जन्म दिया, जिसका नाम ‘इब्तिदा’ था। इसमें मैं, इम्तियाज अली, मोहित चौधरी और आज के समय के कई लोकप्रिय कलाकार शामिल थे। कॉलेज के दिनों में भी हमने ऐसी कई अद्भुत चीजें सीखी, महसूस की, जिनका प्रभाव आने वाले वर्षों में हमारे काम पर दिखा। उस समय हम एक-दूसरे से इस तरह जुड़े थे कि हम कॉलेज की ड्रामा सोसायटी में होने पर भी परिपक्व नाटक करते थे। महेश एलकुंचवार का नाटक होली, विजय तेंदुलकर का नाटक सखाराम बाइंडर, हमारे थियेटर ग्रुप द्वारा किए जाने वाले लोकप्रिय नाटकों में से थे। हम इन नाटकों के मंचन हेतु देश भर में जाते थे। मेरे लिए यह गर्व का विषय है कि मेरे कॉलेज के साथी, रंगकर्म के साथी, इस फिल्म को बनाने और रिलीज करने में कामयाब रहे। फिल्म देखते हुए, संगीतकार ए आर रहमान का संगीत आपके भीतर खनकता है। मेरा मानना है कि इस तरह की फिल्म बनाना बहादुरी का काम है। कमर्शियल बॉक्स ऑफिस सफलता के इस दौर में जरूरी कहानी कहना हौसले की बात है। मुझे उम्मीद है कि यह फिल्म अपने दर्शकों तक पहुंचेगी। फिल्म से जुड़ी टीम ने अपने दायित्व को पूरी निष्ठा, समर्पण से निभाया है। दिलजीत दोसांझ ने अमर सिंह चमकीला का किरदार सहजता से निभाया है। वह किरदार की आत्मा में प्रवेश कर गए हैं। फिल्म सवाल साथ छोड़ जाती है, क्या अमर सिंह चमकीला जैसे अनेक गुमनाम कलाकारों के साथ कभी इंसाफ हो पाएगा, उन्हें वह सम्मान, पहचान मिल सकेगी, जिसके वह हकदार थे? फिल्म के अंत में अरिजीत सिंह द्वारा गाया गीत ‘मैनूं विदा करो’ कई दिनों तक साथ रहता है। फिल्म देखने के बाद, एक प्रश्न कौंधता है, यह कौन तय करेगा कि किस कलाकार का सृजन मटमैला, दूषित है और किसका पाक, पवित्र। अमर सिंह चमकीला, अपने गीतों में महिलाओं के चित्रण को लेकर विवादित थे मगर उसकी संघर्ष यात्रा असाधारण थी। काश हम अमर सिंह चमकीला जैसे अन्य गुमनाम कलाकारों की ज्यादा से ज्यादा कहानियां सिनेमा के परदे पर ला पाते, जिससे हमारी कला, हमारा साहित्य संरक्षित हो सकता।
(वाणी त्रिपाठी सेंसर बोर्ड की सदस्य हैं)