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पंजाब: अपनों का सितम

चन्नी ने अकाली दल और 'आप' का खेल बिगाड़ा, पर सिद्धू उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती
विधानसभा चुनाव से पहले मुख्यमंत्री चन्नी ले रहे ताबड़तोड़ फैसले

कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटाकर चरणजीत सिंह चन्नी को पंजाब का पहला दलित मुख्यमंत्री बनाना 2022 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए ‘मास्टर स्ट्रोक’ साबित होगा या नहीं, अभी यह कहना मुश्किल है। लेकिन इतना जरूर है कि चन्नी के आने से शिरोमणि अकाली दल (शिअद) और आम आदमी पार्टी के जातीय समीकरणों का खेल बिगड़ गया है। दोनों दलों ने किसी दलित को उपमुख्यमंत्री बनाने की घोषणा करके प्रदेश के 32 फीसदी दलित मतदाताओं को अपने पाले में करने की कोशिश की थी, पर चन्नी का सीएम बनना उनके प्रयासों पर पानी फेर सकता है।

आम आदमी पार्टी की पैठ में सेंध लगाने के लिए चन्नी खुद को आम आदमी के मुख्यमंत्री के तौर पर पेश कर रहे हैं। वे विपक्षी दलों के चुनावी वादे भी छीन रहे हैं। शिअद और आम आदमी पार्टी ने 300 से 400 यूनिट मुफ्त बिजली देने का वादा किया था। इसकी काट में चन्नी ने राज्य के 71.75 लाख घरेलू बिजली खपतकारों में से 69 लाख को तीन रुपये यूनिट सस्ती बिजली देने का ऐलान कर दिया है। राज्य के साढ़े सात लाख सरकारी कर्मचारियों और पेंशनभोगियों को 11 फीसदी महंगाई भत्ते की भी घोषणा की है। शहरों की अवैध बस्तियों के आठ हजार से अधिक गरीब परिवारों को दिवाली के दिन उनके घरों का मालिकाना हक सौंपा। प्रदेश में चुनाव आचार संहिता लागू होने में करीब डेढ़ महीने बचे हैं। चन्नी की कोशिश उससे पहले हर वर्ग के लिए कुछ न कुछ घोषणा करने की है।

पंजाब की राजनीति पर चार दशक से नजर रखने वाले विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार बलजीत सिंह बल्ली कहते हैं, “अमरिंदर सिंह के मुख्यमंत्री रहते 2022 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ सकता था, जो चन्नी के आने से काफी हद तक शांत है। दलित बहुल दोआबा और माझा की 37 सीटों पर चन्नी के सीएम बनने का लाभ कांग्रेस को मिल सकता है।” 1966 में हरियाणा के अलग होने के बाद ओबीसी वर्ग के ज्ञानी जैल सिंह को छोड़ कर पंजाब में प्रताप सिंह कैरों, प्रकाश सिंह बादल, दरबारा सिंह, बेअंत सिंह, हरचरण सिंह बराड़, राजिंदर कौर भट्ठल और कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे जट्ट सिख ही मुख्यमंत्री बने। पहली बार पंजाब की सियासत दलित के हाथ आई है। हालांकि कांग्रेस के भीतर भी जट्ट सिख नेता चन्नी को बतौर सीएम नहीं पचा पा रहे हैं।

इस बदलाव पर पंजाब कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष एच.एस. हंसपाल का कहना है, “लग्जरी फॉर्महाउस से एक मामूली टेंटहाउस की ओर पंजाब की सरकार का रूपांतरण हुआ है।” चन्नी खरड़ (मोहाली) में पिता हरसा सिंह के टेंट हाउस बिजनेस में हाथ बंटाते थे। आज भी खरड़ के पुराने लोग यह कह कर याद करते हैं कि उनके यहां शादी में चरणजीत ने शामियाना लगाया था। मुख्यमंत्री बनने के बाद पहली प्रेस कॉन्फ्रेस में चन्नी ने भावुक होकर बताया, “बचपन में पिता के टेंट हाउस से रिक्शे पर शामियाने और कुर्सियां लाद कर घर-घर जाया करता था। 25 वर्ष पहले के खरड़ का शायद ही ऐसा कोई घर बचा होगा जहां शामियाने न टांगे हों।”

लेकिन आगे चन्नी के लिए चुनौतियां कम नहीं हैं। फिलहाल तो सबसे बड़ी चुनौती प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू हैं जो ‘सुपर सीएम’ की भूमिका से पीछे हटने को तैयार नहीं। अमरिंदर की तर्ज पर चन्नी भी महीने भर में ही सिद्धू के निशाने पर आ गए। हाइकोर्ट में विचाराधीन नशे और श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी के मसले पर सिद्धू ने कहा, “हाइकोर्ट में चन्नी सरकार ने सही से पैरवी नहीं की।” सिद्धू ने चन्नी की पंसद के एडवोकेट जनरल एपीएस देओल और कार्यकारी पुलिस महानिदेशक इकबाल प्रीत सिंह सहोता पर भी निशाना साधा है। सिद्धू ने इन दोनों नियुक्तियों के विरोध में अध्यक्ष पद से दिया इस्तीफा इस शर्त पर वापस लिया कि नई नियुक्तियां होने पर ही वे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद का काम-काज संभालेंगे। आखिरकार चन्नी ने देओल को हटाने की घोषणा की। सहोता के मामले में कहा कि यूपीएससी से जवाब का इंतजार है।

चन्नी को राहुल गांधी का मास्टर स्ट्रोक बताने वाले पंजाब कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सुनील जाखड़ के सुर भी अब बदले हुए हैं। आउटलुक से बातचीत में जाखड़ ने कहा, “अन्य दल 2022 के चुनाव की तैयारियों में जुटे हैं, लेकिन पंजाब कांग्रेस में अराजकता है। पार्टी अध्यक्ष ही अपनी पार्टी की सरकार के पीछे पड़े हैं।”

यह बहस भी चल रही है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में चन्नी कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री का चेहरा होंगे या सिद्धू। राहुल और प्रियंका गांधी का करीबी होने के दम पर अमरिंदर को इस्तीफा देने के लिए मजबूर करने वाले सिद्धू ने सुखजिंदर सिंह रंधावा का पत्ता इसलिए कटवाया क्योंकि रंधावा जैसा तेज-तर्रार जट्ट सिख चेहरा कहीं उन्हें ही न पछाड़ दे। सुनील जाखड़ को सीएम बनाने का अंबिका सोनी ने यह कह कर विरोध किया कि पगड़ी वाले सिख को ही मुख्यमंत्री बनाना चाहिए। मनप्रीत बादल की सलाह पर आखिरी समय में राहुल गांधी ने दलित चेहरे चन्नी के नाम पर मुहर लगाई।

पंजाब में 38 फीसदी हिंदू और 25 फीसदी जट्ट सिख मतदाता हैं। कांग्रेस को दलित मतदाता का गणित एकतरफा अपने पक्ष में दिख रहा है। दलित वोटों में कांग्रेस को 2002 में 33, 2007 में 49, 2012 में 51 और 2017 में 41 प्रतिशत वोट मिले पर वह 2002 और 2017 में ही सरकार बना पाई। शिअद-भाजपा गठबंधन 2007 से 2017 तक लगातार 10 साल सत्ता में रहा है।

पंजाब में 117 विधानसभा सीटें हैं। इनमें से 54 क्षेत्रों में दलित मतदाता 30 प्रतिशत से अधिक हैं। इसके अलावा 45 सीटों पर 20 से 30 प्रतिशत दलित मतदाता किसी भी राजनीतिक दल की जीत या हार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं। इसलिए शिअद ने बसपा से गठबंधन कर दलितों को अपने पक्ष में लामबंद करने का प्रयास किया है। आम आदमी पार्टी के सत्ता में आने पर दलित को उपमुख्यमंत्री बनाने के वादे को बाद में शिअद ने भी दोहराया। 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 34 निर्वाचन क्षेत्रों में से 21 पर जीत हासिल की, लेकिन उनमें उसका वोट शेयर उसके औसत वोट शेयर से कम था। दूसरी ओर, 2012 में आरक्षित और अनारक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में कांग्रेस का वोट शेयर बराबर था पर उसने 34 आरक्षित सीटों में से केवल 10 पर जीत दर्ज की थी। 

कैप्टन अमरिदंर सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के बाद पंजाब कांग्रेस पूरी तरह बिखरी है। नवजोत सिंह सिद्धू की मुख्यमंत्री बनने की आकांक्षा छिपी नहीं है। ऐसे में चन्नी पर सबसे बड़ा दबाव सिद्धू का है। दोनों के बीच बढ़ते टकराव की स्थिति में कांग्रेस विधायक और पिछली बार के हारे हुए उम्मीदवार अपने टिकट को लेकर चिंतित हैं। चन्नी उन्हें अपने नेतृत्व में कैसे विश्वास दिलाते हैं और कैप्टन की पंजाब लोक कांग्रेस के प्रभाव को कैसे निष्क्रिय करते हैं, उसी पर चन्नी और कांग्रेस का चुनावी भविष्य निर्भर करेगा।

79 के कैप्टन की नई पारी

कैप्टन अमरिंदर सिंह

भाजपा के साथ गए तो किसानों के विरोध का खतरा

कांग्रेस के कूचे से बड़े बेआबरू होकर निकले पूर्व मुख्यमंत्री, कैप्टन अमरिंदर सिंह के नई पार्टी के ऐलान के साथ ही इसके नफा-नुकसान का गणित लगाया जाने लगा है। साढ़े चार दशक तक कांग्रेस में रहने के बाद जब पार्टी ने उन्हें 'नॉन-परफॉर्मिंग सीएम' बता कर बेदखल किया, तो उन्होंने भाजपा में जाने के बजाय अपनी पार्टी ‘पंजाब लोक कांग्रेस’ गठित करने का फैसला किया। हालांकि उन्होंने भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने के संकेत जरूर दिए हैं। लेकिन 79 वर्ष की उम्र में कैप्टन के लिए आगे की सियासी राह आसान नहीं होने वाली है।

राजनीतिक विश्लेषक प्रो. मनजीत सिंह का कहना है, “कैप्टन ने कांग्रेस छोड़ी है, पर अपनी नई पार्टी में कांग्रेस की पूछ क्यों लगाई है?” दरअसल, कैप्टन के लिए भाजपा या टकसाली अकालियों के साथ तालमेल बिठाना बड़ी चुनौती है, पर कांग्रेस से बदला लेने के लिए कैप्टन इसके लिए भी तैयार हैं।

अगर अमरिंदर चुनाव से पहले भाजपा के साथ गठबंधन करते हैं, तो उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती तीन कृषि कानूनों की होगी जिसका विरोध राज्य के किसान पिछले साल से कर रहे हैं। इन कानूनों के विरोध में कैप्टन अपने मुख्यमंत्री काल के दौरान विधानसभा में विधेयक लेकर आए थे। अमरिंदर के लिए भाजपा से दोस्ती तब तक खतरा है जब तक कृषि कानूनों का कोई सकारात्मक हल नहीं निकलता।

कैप्टन का मकसद पंजाब से कांग्रेस सरकार को चलता करना है। इसके लिए वे चन्नी सरकार के उन्हीं मंत्रियों पर हमलावर हो गए हैं जिनमें से कई उनकी कैबिनेट में थे। उन्होंने कहा, “मुझे इस बात का बड़ा अफसोस है कि मुख्यमंत्री रहते मैंने अपनी ही कैबिनेट के उन मंत्रियों पर इसलिए कार्रवाई नहीं की, क्योंकि उससे बदनामी कांग्रेस की होती। कैप्टन ने कहा, मेरे पास कई मंत्रियों के नाम हैं, जो मुख्यमंत्री रहते इंटेलिजेंस से मिले थे। लेकिन अमरिंदर जानते हैं कि सिर्फ अपने अतीत की ख्याति से वे नहीं जीत सकते। चुनाव नजदीक हैं और उनके पास केवल कुछ महीने ही हैं।

पंजाब में चुनाव ऐसे समय में हो रहे हैं जब कृषि कानूनों के खिलाफ किसान पीछे हटने का नाम नहीं ले रहे। पंजाब में किसान एक बड़ा वोट बैंक हैं, जिसका लाभ लेने की कोशिश हर राजनीतिक दल कर रहा है। अमरिंदर जानते हैं कि अगर वे कृषि कानूनों को निरस्त कराने में कामयाब हुए तो किसान उनका समर्थन कर सकते हैं। भाजपा को इसका लाभ पंजाब समेत उन राज्यों में भी हो सकता है जहां 2022 में चुनाव होने हैं। कैप्टन ने भाजपा और किसानों के बीच बातचीत की कड़ी फिर से जोड़ने के लिए समाधान का एक प्रस्ताव दिया है। लेकिन कृषि कानूनों के विरोध में पंजाब के ग्रामीण इलाकों में भाजपा नेताओं का जबरदस्त विरोध है। भाजपा के साथ हाथ मिलाने के प्रयास में अमरिंदर को यह भी देखना होगा कि किसानों का यह विरोध कहीं उनके खिलाफ भी न चला जाए।

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