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4 अगस्त 2025 · AUG 04 , 2025

आवरण कथा/नजरियाः नकली दिखने के खतरे

फिल्टर की सुंदरता पाने की चाहत मानसिक रोग और अपनी असली शख्सियत से पैदा कर सकती है खौफ
तमाम साधन चेहरे से प्राकृतिक सुंदरता छीन रहे

इस डिजिटल दौर में उंगलियों की बस हल्की-सी हरकत से तस्वीर पूरी तरह बदल जाती है, चमकती त्वचा, शानदार जॉ-लाइन, बड़ी आंखें और बहुत कुछ। फिल्टर पहले मजाकिया खेल हुआ करते थे। लोग कभी अपने कानों को बदल खरगोश जैसे बड़ा कर लेते थे तो कोई कैट-आइ लुक बना लेता था। लेकिन अब यह खेल नहीं, बल्कि असलियत बन चुके हैं। इस फिल्टर के दौर में हर तस्वीर परफेक्ट छवि बन चुकी है, असली चेहरा धीरे-धीरे हाशिए पर चला गया है। इसका लोगों के मन पर असर भी पड़ रहा है, वह भी उतना ही गहरा है जैसे फिल्टर हमारे चेहरों को चमका देते हैं।

हम सब अपनी छवि को लेकर सजग होते हैं, लेकिन किशोर उम्र के और युवा लोगों में यह गहरी असुरक्षा का भाव भी पैदा करता है। यही वह उम्र होती है जब हर कोई अपनी शख्सियत और पहचान को लेकर सबसे अधिक संवेदनशील होता है। इंस्टाग्राम, स्नैपचैट और अब एआइ संचालित ब्यूटी ऐप्स की बाढ़ आ गई है तो हर कोई ‘परफेक्ट’ लुक के साथ पेश होना चाहता है। ऐसे में हर आम चेहरे की ख्‍वाहिश कुछ अधिक चमक-दमक पाने की होने लगी है। कई बार यह असुरक्षा-बोध आपके भरोसे को डिगाने लगता है और कुछ मामलों में खुदकशी की ओर धकेल सकता है।

दरअसल जब कोई आईने में अपना चेहरा देखकर सोचता है कि मैं उतना आकर्षक नहीं लग रहा हूं तो वह फिल्‍टर की गई तस्वीरों की ओर देखता और वैसा ही दिखना चाहता है। यही वह पल है जब मानसिक असंतुलन की शुरुआत होती है, जब कोई अपने असली स्वरूप से असंतुष्ट हो उठता है। मनोवैज्ञानिक इसे ‘सेल्फ-डिस्क्रेपेंसी’ या आत्म श्लाघा कहते हैं। यह वह मानसिक अवस्‍था होती है, जब कोई अपने वास्तविक स्वरूप और अपनी ख्वाहिश की आदर्श छवि में फर्क महसूस करने लगता है और यह भाव बढ़ता जाता है।

यह फर्क धीरे-धीरे आत्म-संदेह, असुरक्षा, और यहां तक कि अवसाद तक को जन्म देता है। फिल्टर का बार-बार इस्तेमाल आम आदत से बढ़कर जरूरत बन जाती है। बिना फिल्टर के तस्वीर पोस्ट करने से लोग डरने लगते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि वे “कमतर और अनाकर्षक” दिखेंगे। यह सिर्फ आत्मविश्वास डिगने की ही बात नहीं है, बल्कि व्‍यक्ति खुद अपने से एक प्रकार की दूरी बनाने लगता है, ऐसी दूरी जो इंसान को अपने ही चेहरे, अपने ही अस्तित्व से पराया बना देती है। वह अपने स्‍वयं से दूर भागने लगता है।

इसका असर सिर्फ ऑनलाइन जीवन तक सीमित नहीं है। अब यह वास्तविक जीवन के रिश्तों, आत्म-सम्मान और मानसिक स्वास्थ्य को भी गहराई से प्रभावित कर रहा है। कई युवा अपने ‘‘ऑनलाइन लुक’’ से मेल न खाने के डर से सबके सामनेे दिखने से कतराते हैं। वे सामाजिक कार्यक्रमों से बचते हैं, जूम कॉल्स पर कैमरा बंद रखते हैं, और कई बार डिप्रेशन या एंग्जायटी का शिकार हो जाते हैं। यह कोई पश्चिमी समाज की समस्या भर नहीं है, भारत जैसे देश में जहां मोबाइल और सोशल मीडिया की पहुंच ग्रामीण इलाकों तक हो चुकी है, वहां यह मुद्दा और भी जटिल हो गया है।

अब छोटे शहरों के युवा भी फिल्टर की चमक से प्रभावित हैं और वे अपने चेहरे, अपने रंग, अपनी नाक, अपनी त्वचा को “दुरुस्त” करने के सपने देखने लगे हैं क्योंकि इंटरनेट उन्हें बार-बार दिखाता है कि “खूबसूरती” कैसी होनी चाहिए।

अजीब-सी विडंबना यह है कि इस फिल्टर कल्चर के बीच, “रियल” की चाह भी बढ़ती जा रही है। लोग अब #nofilter हैशटैग लगाने लगे हैं, लेकिन अक्सर उसमें भी हल्का एडिट छुपा होता है। आत्म-स्वीकार और आत्म-प्रस्तुति के बीच यह टकराव दिन-ब-दिन गहराता जा रहा है। किसी किशोरी की फिल्टर से निखरी फोटो देखकर बार-बार कहा जाए कि वह बड़ी ‘प्यारी’ दिखती है, तो वह खुश तो होती लेकिन जब वह आईने में खुद को देखती है, तो खुद से पूछती है, “क्या मैं सच में ऐसी दिखती हूं?”

इस फिल्टर-ग्रस्त युग में असली चुनौती है अपनी पहचान से जुड़ाव बनाए रखना, क्योंकि हर बार जब हम फिल्टर में खुद को बेहतर पाते हैं, तो कहीं न कहीं दिमाग यह मान लेता है कि हमारी असलियत उतनी आकर्षक नहीं है। यह भावना धीरे-धीरे हमारे आत्म-सम्मान को खा जाती है। इसका हल सोशल मीडिया को छोड़ देना नहीं है, बल्कि इस भ्रम को पहचानना है। यह समझना जरूरी है कि सुंदरता के कोई रूप नहीं होते हैं; वह विविध है, बदलती है और सबसे जरूरी वह हमारी असलियत में बसती है, नकली चमक में नहीं।

अंत में, यह सवाल सिर्फ सौंदर्य का नहीं है, यह सवाल आत्मा का है। क्या हम अपने ही चेहरे को देख पाने की हिम्मत कर पाएंगे जब फिल्टर धुंधला हो जाएगा? क्या हम अपनी पहचान को बिना चमक-धमक के भी प्यार कर सकेंगे? असली जवाब वहीं छुपा है, उस चेहरे में जो फिल्टर नहीं, बल्कि सच्चाई का आईना है।

ईशिता कोटिया

(लाइफ कोच और मेंटल हेल्थ एडवोकेट)

 

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