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3 मार्च 2025 · MAR 03 , 2025

विधानसभा चुनाव ’25 आवरण कथा/नजरियाः भविष्य का रास्ता

असल संदेश भविष्य की उस राजनीति का है जो मोदी की सियासत को चुनौती दे सके, अगर यह विचारधारा की लड़ाई की मुनादी है, तो फिर राहुल गांधी को भी बदलना होगा
वे दिनः पहली बार मुख्यमंत्री नियुक्त हुए अरविंद केजरीवाल गाजियाबाद के कौशांबी में आप विधायकों के साथ, 27 दिसंबर 2013

अगर अरविंद केजरीवाल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उपज थे, तो अब वे हार चुके हैं। अगर अरविंद केजरीवाल भारतीय जनता पार्टी की बी-टीम थे, तो वे हार चुके हैं। अगर केजरीवाल ने अपने ऐलानों से लाभार्थियों की एक नई कतार खड़ी कर उन्हें अपना वोटर बना लिया, तो अब अरविंद केजरीवाल की जरूरत पूरी हुई। अब नए खिलाड़ी खुलकर चुनावी बाजार में उतर चुके हैं। केजरीवाल की राजनीति सत्ता साधने के लिए अंतर्विरोध से भरी रही। रामलीला मैदान में महात्मा गांधी से शुरू हुई उनकी राजनीति सत्ता पाने के बाद सरकारी दफ्तरों की दीवारों पर बाबासाहब आंबेडकर और भगत सिंह की तस्वीरों से आगे बढ़ी। आंबेडकर-भगत सिंह की विचारधारा से हटकर जेल से निकलने के बाद उन्होंने हनुमान मंदिर का रास्ता पकड़ा। पंडित-पुजारियों के सहारे सनातनी होकर सियासत की सीढ़ियां चढ़ने की कोशिश की। यह सब करने वाले केजरीवाल अब हार चुके हैं। चौदह साल पहले जिस तरह की राजनीति से जनता का मोहभंग हुआ था, वही जनता भ्रष्टाचार के खिलाफ जन-लोकपाल आंदोलन और राजनीति में आमूल-चूल परिवर्तन की सोच के साथ 2012 में पनपी आम आदमी पार्टी के साथ थी। यह सब अरविंद केजरीवाल के सत्ता के सफर के साथ खत्म हो गया है। 

अब राजनैतिक परिदृश्य सपाट है। दो विचारधाराएं आमने-सामने खड़ी हैं। एक तरफ धुर दक्षिणपंथ है, जो अति पूंजीवाद से प्रेरित है, जिसमें धर्म और राष्ट्रवादी संकीर्णता है, जिसकी अगुआई नरेंद्र मोदी कर रहे हैं। दूसरी विचारधारा के केंद्र में वामपंथी सोच है, जो नेहरूवादी समाजवाद और गांधीवादी समतावाद को समेटे हुए है। उसकी अगुआई राहुल गांधी कर रहे हैं।

दिल्ली चुनाव में केजरीवाल की हार से पहले जो तीन सवाल थे वे अब गायब हो चुके हैं। एक, नरेंद्र मोदी को अपने खिलाफ विपक्ष के वोट बांटने में केजरीवाल की जरूरत थी। दूसरे, क्षत्रपों को कांग्रेस के बगैर तीसरा मोर्चा खड़ा करने में केजरीवाल की जरूरत थी। तीसरे, विचारधारा की राजनीति को खत्म करने में डिलिवरी राजनीति के नायाब केजरीवाल प्रयोग की जरूरत है। दिल्ली चुनाव का मैसेज आम आदमी पार्टी से ज्यादा कांग्रेस और भाजपा के लिए है। एक तरफ भाजपा की राजनैतिक जमीन का विस्तार हुआ है, तो दूसरी तरफ कांग्रेस का अपनी जमीन को गंवाना है। भाजपा को नया राजनैतिक लाभ उस आम आदमी के नाम पर मिला है, जिस पर कभी कांग्रेस का कब्जा था क्योंकि 2013 से 2025 के बीच कांग्रेस के ही करीब 40 फीसदी वोट बैंक केजरीवाल की पार्टी के पास चले गए। उसे वोट बैंक कहें या राजनैतिक जमीन, उस पर भाजपा ने आठ फीसदी वोट की कमाई की और चालीस सीटों पर कब्जा किया। यानी जिन दो विचारधाराओं के नाम पर भाजपा और कांग्रेस आमने-सामने हैं, उसमें कांग्रेस की विचारधारा वाली जमीन केजरीवाल की राजनीति के जरिये भाजपा के पास चली गई। इसकी बारीकी को समझें, तो पश्चिम बंगाल हो या यूपी-बिहार, इन जगहों पर भी कांग्रेस की जिस राजनैतिक जमीन को ममता बनर्जी ने या फिर समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल ने यूपी-बिहार में मंडल आंदोलन के बाद छीना अब उनके सामने भी वही संकट है, जो केजरीवाल के सामने था। तीनों जगहों पर भाजपा पहली या दूसरी बड़ी पार्टी के तौर पर मौजूद है। यह सवाल अब बड़ा होने लगा है कि राहुल गांधी जिस विचारधारा पर सवार हैं, उसका चुनावी परिणाम क्या दिल्ली की तर्ज पर ही हर जगह होगा या दिल्ली की तरह इंडिया गठबंधन की कवायद आपसी गुत्थम-गुत्था में उलझेगी।

हर जगह मुस्लिम-दलित वोटर धीरे-धीरे नए विकल्प देख-समझ रहा है। दिल्ली चुनाव में मुस्लिम कांग्रेस के पक्ष में नहीं रहा। जिस मुस्लिम-बहुल मुस्तफाबाद में सबसे ज्यादा वोटिंग हुई वहां भाजपा के खिलाफ मुस्लिम एकजुट नहीं था। वहां भाजपा जीत गई। मुस्लिम वोटरों ने पहले नंबर पर आम आदमी पार्टी को चुना। दूसरे नंबर पर ओवैसी की पार्टी को, जिनके उम्मीदवार दंगों के आरोपी हैं और जेल में हैं। तीसरे नंबर पर कांग्रेस को चुना। यानी मुस्लिमों की सोच है कि जो भाजपा को हरा सकता है वे उसे जिताएंगे, यह सोच गायब हो गई। वहीं दलितों के लिए 12 सुरक्षित सीटों में से चार पर भाजपा जीती जबकि संविधान लेकर दलितों के हक का सवाल कांग्रेस खड़ा कर रही है, लाभार्थी के तौर पर नहीं बल्कि स्थायी समाधान का जिक्र कांग्रेस कर रही है। ‌फिर भी कांग्रेस को दलितों के वोट नहीं मिले।

असल बात यही है। दलित-मुसलमान या तो भाजपा को हराने वाली पार्टी के साथ खड़ा है या फिर लाभार्थी के बढ़ते कैनवास में नए विकल्प देख रहा है, लेकिन अपने समुदाय-कौम के भीतर। तो क्या दिल्ली के चुनाव परिणाम का संदेश साफ है कि भविष्य की राजनीति को अगर 2024 के लोकसभा चुनाव की तरह इंडिया गठबंधन ने एकजुट होकर नहीं लड़ा, तो फिर बिहार-यूपी भी उसी रास्ते जाएगा? जबकि सच तो यह है कि दिल्ली में अगर मुस्लिम-दलित की संख्या करीब 30 फीसदी है, तो बिहार में 37-38 फीसदी और यूपी में 39-40 फीसदी। यानी इंडिया गठबंधन की लोकसभा चुनाव की तर्ज पर एकजुटता यहां सफलता की गारंटी होनी चाहिए, लेकिन हर राज्य में स्थितियां अलग हैं। बंगाल में भी 29 फीसदी मुसलमान हैं और 5.8 फीसदी दलित हैं, वहां ममता को अकेले लड़ना है। असम में 34 फीसदी मुसलमान है, 7.5 फीसदी दलित है, लेकिन कांग्रेस जीत नहीं पाती।

आखिरी रास्ता राहुल के हक में भी जाता है क्योंकि नरेंद्र मोदी भाजपा के लिए ही नहीं, बल्कि चुनावी राजनीति में भी ‘लार्जर दैन लाइफ’ हो चुके हैं। वे जो धर्म और राष्ट्रवाद को देश पर थोप रहे हैं, उसकी काट महात्मा गांधी के विचार हैं। दरअसल राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा के जरिये उस ‘आशा’ को फिर से जगाया था। राष्ट्र हमेशा से एक गांधी के लिए तरस रहा है। भविष्य की राजनीति कांग्रेस पर जा टिकी है, जो मोदी की राजनीति को चुनौती दे पाएगी या नहीं, यही यक्ष प्रश्न है। राहुल गांधी अगर अपनी राजनीति के सहारे ‘कांशीराम’ को फिर से बनाते हैं, तो यह नरेंद्र मोदी के राजनैतिक परिदृश्य में राहुल को एक कोने में कैद कर देगा।

दरअसल, दिल्ली के परिणामों ने भाजपा को सिर्फ जिताया नहीं है बल्कि लोकसभा चुनाव के वक्त बने इंडिया गठबंधन के तार भी खोल दिए हैं। बिखरा हुआ इंडिया गठबंधन अपनी-अपनी राजनीति में हर मोर्चे पर हार गया। शायद इसलिए असल संदेश भविष्य की उस राजनीति का है, जो मोदी की सियासत को चुनौती दे सके। अगर यह विचारधारा की लड़ाई की मुनादी है, तो फिर राहुल गांधी को भी बदलना होगा। पूरा देश तभी साथ चलेगा जब समतावादी-समाजवादी और भाईचारे के चैंपियन पिरामिड के निचले भाग को नहीं, बल्कि नेहरू-गांधी दर्शन को साथ लेकर चलेंगे जो अद्वितीय है- समझौता न करने वाला- क्योंकि जीतना हर तबके को है। अमीर-गरीब, शिक्षित-अशिक्षित, धनवान-सर्वहारा, स्मार्ट-कमजोर। ‘कांशीराम’ का दायित्व किसी प्रतिभाशाली, ईमानदार और शुद्धतावादी को सौंपें। ठीक वैसे ही, जैसे गांधी-नेहरू ने ‘आंबेडकर’ को सौंपा था।

पुण्य प्रसून वाजपेयी

(वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार, विचार निजी हैं)

 

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