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पंजाब: नजरिया/ खतरनाक बचकानी हरकतें

धर्म और जनता की ऐसी संकीर्ण अवधारणा को भारत हमेशा से नकारता रहा है
हर दिन अलग रंग: कुछ दिन पहले अमृतपाल लाल पगड़ी, काले चश्मे में नजर आया था

खालिस्तान की मांग, जिसे अमृतपाल संधू ने हाल में फिर से हवा दी है, बचकानी है। इसके पीछे भ्रामक धारणा है कि पंजाब सिखों की धरती है। लेकिन ऐसा कतई नहीं है। पंजाब, पंजाबियों की धरती है। ऐसी ही बचकानी मांग मास्टर तारा सिंह ने 1946-47 में उठाई थी, जब मोहम्मद अली जिन्ना मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग कर रहे थे।

उम्रदराज लोग जब बच्चों की तरह बात करते हैं, तो उससे नुकसान हो सकता है। जिन्ना के आग्रह के चलते 1946-47 में बहुत खूनखराबा हुआ था। उससे पाकिस्तान नाम के विफल राष्ट्र का जन्म हुआ। प्रताप सिंह कैरों की जीवनी में (2020) हमने दस्तावेजों के माध्यम से दिखाया है कि कैसे आजादी के बाद तारा सिंह ने सिखों के लिए अलग राज्य की मांग उठाई थी। प्रताप सिंह कैरों उस वक्त पंजाब कैबिनेट में महज एक मंत्री थे, लेकिन वे इस बात को ताड़ गए थे कि तारा सिंह की मांग की जड़ में दरअसल पंजाब के आर्य समाजियों और सिंधियों की यह मांग काम कर रही थी कि हिंदी को पंजाब की भाषा बना दिया जाए। पंजाब में हिंदी आंदोलन हाथ से निकल रहा था और तत्कालीन मुख्यमंत्री भीम सेन सच्चर आंदोलनकारियों के प्रति कठोर रुख अपनाने में संकोच कर रहे थे। हिंदी के आंदोलनकारियों को छूट देने के पीछे सच्चर की दलील थी कि भारत अब आजाद देश है और सभी को अपनी मांग रखने की स्वतंत्रता है। कैरों ने तारा सिंह को फटकार लगाई थी।

कैरों पहले दिल्ली में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से मिलने गए। फिर चंडीगढ़ लौटे और अगले कुछ दिनों में उन्होंने मंत्रिपरिषद के अपने साथियों को इस बात पर राजी किया कि सच्चर मुख्यमंत्री के बतौर उपयुक्त नहीं हैं। मंत्रियों ने सच्चर से कह दिया कि उन्हें उनके नेतृत्व में भरोसा नहीं रहा। नेहरू के समर्थन के बावजूद सच्चर को इस्तीफा देना पड़ा। जैसे ही सच्चर की जगह कैरों मुख्यमंत्री बने, उन्होंने सबसे पहले हिंदी आंदोलनकारियों को दबाने का काम किया। हिंदी का मसला शांत होने के बाद उन्होंने क्षेत्रीय मांगों की ओर रुख किया। पंजाबी को उन्होंने आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलवाया, यानी जिला अदालतों तक पंजाबी के सरकारी प्रयोग को मान्यता दिलवाई और धार्मिक आधार पर कर्मचारियों को दी जाने वाली तमाम सरकारी छुट्टियों को खत्म कर दिया। अब सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए अवकाश का बराबर प्रावधान लागू कर दिया गया, चाहे उनका धर्म कोई भी हो। इसके चलते कई धर्म विशेष पर आधारित छुट्टियां समाप्त हो गईं। आज की तारीख में शायद ही किसी को याद हो कि कैरों के इस कदम का पूरे भारत में अनुसरण किया गया।

फिर मास्टर तारा सिंह की सिखों के लिए अलग राज्य की मांग से कैरों कठोर तरीके से निपटे। कैरों का मानना था कि धर्म पर आधारित राज्य नहीं बनाए जा सकते। ऐसा सोचने वाले के साथ सख्त बरताव ही रास्ता था।

हम लोग अकसर इस बात को भुला देते हैं कि एक देश का पर्याय किसी धर्म को मानना यूरोप के संकटग्रस्त इतिहास की देन है। आज से कोई तीन सौ साल पहले तक यूरोप में जनता को शासक के धर्म को जबरन मानना पड़ता था। धर्म का आधार कोई किताब हुआ करती थी। उक्त किताब को न मानने वालों या किसी और किताब को मानने वालों की लोग हत्या करने को तैयार रहते थे। इस चक्कर में लाखों लोगों की जान गई। बाद में पोप के आग्रह पर, जिसे ईश्वर का संदेशवाहक माना जाता है, कुछ शासक इस बात पर सहमत हुए कि लोगों को शासकों का धर्म मानने की बाध्यता नहीं होनी चाहिए। यह यूरोप की सभ्यता में एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ। इसी प्रक्रिया से ‘सेकुलरिज्म’ का जन्म हुआ। इसके बाद मोटे तौर पर हत्याएं बंद हो गईं। आखिरी कत्लेआम हिटलर ने किया। उसने यूरोप से यहूदियों का सफाया करने का बीड़ा उठा रखा था और कोई 60 लाख यहूदियों को उसने मरवा भी दिया। इसी यूरोपीय परंपरा के अनुसार अंग्रेजों ने भारत में देश और उसके लोगों को परिभाषित करने का मानक अपनाया। भारत में कभी भी ऐसा नहीं रहा कि शासक के धर्म को अपनाने की बाध्यता लोगों के लिए रही हो। यहां तक कि पैगम्बर के कहे पर चलने वाला इस्लाम भी भारत में कोई 300 साल तक अमन चैन से रहा, जब तक कि उत्तर-पश्चिम के इस्लामी आक्रांताओं का कहर नहीं बरपा।

भारत में अंग्रेजों ने जो यूरोपीय सिद्धांत लागू किए, पाकिस्तान उसी की पैदाइश है। पाकिस्तान दुनिया का इकलौता देश है जो केवल मुसलमानों के लिए बनाया गया था, लेकिन जल्द ही उसकी व्यर्थता उजागर हो गई।

धर्म और जनता की ऐसी संकीर्ण अवधारणा को भारत हमेशा से नकारता रहा है। यह धरती हमेशा से ऐसी रही, जहां धर्म ने कभी भी लोगों को, सरकारों को या भूक्षेत्र को परिभाषित नहीं किया। धर्म लोगों के लिए एक नैतिक आधार का काम करता था। धर्म का मतलब रहा है सदाचार की सलाहियत, न इससे कुछ ज्यादा और न ही कम। 

फिर भी अब भी कुछ लोग ऐसे हैं जो सोचते हैं कि वे किसी धर्मग्रंथ के हिसाब से भारत को गढ़ लेंगे। अस्सी के दशक में भिंडरांवाले ने ऐसी ही बचकानी कोशिश की थी। उन दिनों जो सरकार थी, उसकी दूरदर्शिता में की कमी के चलते उसे शुरू में ही पनपने दिया। बाद में हालांकि उससे निपट लिया गया।

डॉ. एम. राजीव लोचन

(लेखक पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ से संबद्ध राजनीतिक इतिहासकार हैं)

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