केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की मौजूदगी में 19 दिसंबर को शुभेंदु अधिकारी समेत तृणमूल कांग्रेस, वाम मोर्चा और कांग्रेस के कई विधायक और सांसद भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल हो गए। उसी तारीख के आसपास भाजपा उपाध्यक्ष मुकुल राय के गृह नगर कांचरापाड़ा में भी तृणमूल के कई नेता भाजपा में आ गए। मुकल राय के बेटे शुभ्रांशु राय, जो तृणमूल से चुनाव लड़कर विधायक बने थे, वे भी कुछ दिनों पहले भाजपा में आए थे। लेकिन शुभ्रांशु के खिलाफ भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ने वाली आलो रानी सरकार अब तृणमूल में आ गई हैं। दक्षिण बंगाल के अधिकारी बंधु, सुबोध और कमल अधिकारी कभी भाजपा में थे, लेकिन अब ये दोनों तृणमूल को मजबूत बनाने में लगे हैं। पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव करीब चार महीने बाद होंगे, और उससे पहले पूरे प्रदेश में पाला बदल चरम पर है। इनमें काउंसलर स्तर से लेकर विधायक और मंत्री तक शामिल हैं। ऐसे में इन नेताओं के कार्यकर्ता दुविधा में हैं कि क्या करें। अनेक नेता ऐसे भी हैं जो अभी तय नहीं कर पा रहे कि किधर जाएं। वे पहले हवा का रुख देखना चाहते हैं कि अगले साल प्रदेश में सरकार किसकी बनेगी। ऐसे नेताओं के समर्थक ज्यादा दुविधा में लगते हैं। हां, जब नेता तय कर लेंगे कि किधर जाना है तो समर्थकों को जर्सी बदलने में कितनी देर लगेगी!
इस पाला बदल में फिलहाल ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ज्यादा नुकसान में दिख रही है। 22 दिसंबर को ममता की कैबिनेट बैठक में वन मंत्री राजीव बनर्जी समेत चार मंत्री नहीं आए। इनमें रवींद्रनाथ घोष और गौतम देब उत्तर बंगाल से हैं। इन सभी मंत्रियों ने बैठक में न आने के अपने-अपने कारण बताए हैं, लेकिन इन्हें लेकर तृणमूल में आशंकाएं भी हैं।
प्रदेश भाजपा समिति के सदस्य सुबीर नाग ने आउटलुक से बातचीत में दावा किया कि तृणमूल के अनेक नेता उनकी पार्टी के संपर्क में हैं। इस पाला बदल के दम पर अमित शाह ने 200 सीटें जीतने का दावा किया है। नाग कहते हैं, “200 सीटें न भी हों तो अंतिम आंकड़ा इसके आसपास ही रहेगा।” लेकिन प्रदेश में हाल के महीनों में सक्रियता बढ़ाने वाली मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के एक नेता के अनुसार यह बयानबाजी सिर्फ माहौल गरमाने के लिए है। उन्होंने कहा, “निजी तौर पर मेरा मानना है कि भाजपा को 60 से 70 सीटें मिल सकती हैं।”
अमित शाह के 200 सीटें जीतने के बयान के जवाब में ममता के रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने कहा था कि भाजपा के लिए 10 सीटें जीतना भी मुश्किल होगा। लेकिन तृणमूल के नेता भी मानते हैं कि भाजपा की स्थिति इतनी खराब नहीं, उसकी सीटों का आंकड़ा 100 के पार जा सकता है।
कूचबिहार में एक रैली को संबोधित करतीं ममता बनर्जी
2016 के विधानसभा चुनाव में 294 में से तृणमूल को 211, कांग्रेस को 44, वाम दलों को 28, भाजपा को तीन और अन्य को आठ सीटें मिली थीं। तब तृणमूल का वोट प्रतिशत 45 फीसदी, माकपा का 20, कांग्रेस का 12, भाजपा का 10 और अन्य का 2 फीसदी था। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में यह काफी बदल गया। तृणमूल तो 43 फीसदी वोटों के साथ अपनी जमीन काफी हद तक बचाने में कामयाब रही, लेकिन माकपा का वोट घटकर छह फीसदी और कांग्रेस का पांच फीसदी पर आ गया। दूसरी तरफ भाजपा को 40 फीसदी वोट मिले।
ऐसे में तीन सवाल उभरते हैं- क्या भाजपा इस बार भी वोट प्रतिशत बढ़ाने में कामयाब होगी, क्या तृणमूल का वोट बैंक बरकरार रहेगा, क्या वाम दल और कांग्रेस अपना वोट प्रतिशत बढ़ा सकेंगे? पिछले लोकसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और बिहार में भाजपा का वोट प्रतिशत गिरा है। इसलिए पश्चिम बंगाल में इसके बढ़ने पर अभी संशय करना लाजिमी है। नवंबर 2019 में प्रदेश में तीन विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए थे और तीनों पर तृणमूल को जीत मिली थी। तृणमूल अभी तक कमोबेश अपना वोट बैंक बरकरार रखने में कामयाब रही है।
रही बात वाम दलों और कांग्रेस की तो पिछले कई महीने से वाम दल प्रदेश में काफी सक्रिय हैं। इनके जो पार्टी कार्यालय पहले हमेशा बंद रहते थे, अब खुलने लगे हैं। किसान आंदोलन के जरिए वाम नेता रोजाना प्रदेश में कहीं न कहीं अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे हैं। एक वाम नेता ने दावा किया कि पिछले चुनावों में उनके जो वोटर बिखर गए थे, उनमें से कम से कम 80 फीसदी इस बार लौट आएंगे। इस आधार पर उन्होंने 60-70 सीटें जीतने का दावा भी किया। उन्होंने यह भी कहा कि संभव है इस बार किसी पार्टी को बहुमत न मिले।
कांग्रेस अभी तक सुस्त है और उसके नेता भी दूसरे दलों की राह पकड़ रहे हैं। प्रदेश पार्टी अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी तृणमूल नेताओं के पाला बदलने से ज्यादा परेशान दिखते हैं। वे कहते हैं, “एक समय था जब ममता बनर्जी ने कांग्रेस और वाम दलों के नेताओं को तोड़ा था, अब भाजपा तृणमूल के नेताओं को तोड़ रही है।” वे कहते हैं कि अगर भाजपा के खिलाफ कोई गठबंधन बनाना है तो इसकी पहल मुख्यमंत्री को करनी चाहिए। फिलहाल तृणमूल के साथ किसी गठजोड़ की बात से वाम नेता ने भी इनकार किया।
पश्चिम बंगाल को राजनीतिक दृष्टि से पांच हिस्से में बांटा जाता है- पर्वतीय क्षेत्र, उत्तर बंगाल, केंद्रीय बंगाल, जंगल महल और दक्षिण बंगाल। सबसे ज्यादा आठ जिले दक्षिण बंगाल में हैं। घनी आबादी वाला इलाका होने के कारण प्रदेश की 57 फीसदी सीटें इसी क्षेत्र में हैं। अभी तक तृणमूल का इस इलाके में दबदबा रहा है। पार्टी को 2019 में भी यहां करीब 47 फीसदी वोट मिले थे। नाग का दावा है कि यहां के पूर्वी मिदनापुर, नदिया और हुगली जिलों में इस बार भाजपा जीतेगी।
भाजपा बांग्लादेश से आए दलित मतुआ समुदाय से भी आस लगाए है। इस समुदाय के लोग करीब 100 विधानसभा क्षेत्रों में हैं, लेकिन करीब 70 सीटों पर वे नतीजे प्रभावित करने की हैसियत रखते हैं। दक्षिण बंगाल के उत्तर और दक्षिण चौबीस परगना जिलों के अलावा सीमाई इलाकों में इनकी संख्या अधिक है। एक समय यह समुदाय ममता के साथ था। ममता सरकार ने मतुआ बहुल इलाकों में अस्पताल और कॉलेज खोले, दलित साहित्य अकादमी और मतुआ डेवलपमेंट बोर्ड का गठन भी किया। नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के बाद इस समुदाय के कई नेता भाजपा के साथ चले गए, लेकिन असम में अनेक हिंदुओं के नाम एनआरसी से बाहर होने के बाद वे भाजपा से दूरी बनाने लगे हैं।
अब भाजपा तय नहीं कर पा रही है कि वह सीएए और एनआरसी को चुनावी मुद्दा बनाए या नहीं। इसलिए पश्चिम बंगाल के दौरे पर गए अमित शाह ने कहा कि अभी सीएए के नियम बनाए जा रहे हैं, कोरोनावायरस के कारण सीएए पर काम आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। इससे मतुआ समुदाय में रोष है। बनगांव से पार्टी के सांसद शांतनु ठाकुर ने कहा, “किसी भी राजनीतिक दल को मतुआ के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। सीएए जल्द से जल्द लागू किया जाए।” इसके बाद उन्हें मनाने भाजपा महासचिव और पश्चिम बंगाल में पार्टी के केंद्रीय पर्यवेक्षक कैलाश विजयवर्गीय उनके घर गए। अमित शाह ने मतुआ शरणार्थी के घर खाना भी खाया। इस बीच, प्रदेश के खाद्य मंत्री ज्योतिप्रिय मल्लिक ने ठाकुर को भाजपा छोड़ तृणमूल में आने का न्योता दिया है।
राज्य के एक प्रतिष्ठित दैनिक से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं, फिलहाल भाजपा दूसरे दलों के नेताओं को तोड़ने के अभियान में जुटी है। लेकिन पार्टी के भीतर इसका विरोध भी हो रहा है। इसका एक बड़ा उदाहरण आसनसोल में देखने को मिला। वहां जीतेंद्र तिवारी तृणमूल छोड़कर भाजपा में शामिल होने वाले थे, लेकिन भाजपा नेता बाबुल सुप्रियो ने इसका विरोध किया। आसनसोल में अभी तक लड़ाई बाबुल बनाम जीतेंद्र की ही रही है। दोनों के समर्थकों में अनेक झड़पें भी हुई हैं। आखिरकार भाजपा ने जीतेंद्र को मना किया तो वे माफी मांग कर तृणमूल में लौट आए।
ओवैसी फैक्टर
एआइएमआइएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने कहा है कि उनकी पार्टी प्रदेश में चुनाव लड़ेगी। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी कहा है कि उनकी जदयू 75 सीटों पर उम्मीदवार खड़े करेगी। जदयू कितना असर दिखाएगी, यह तो अभी नहीं कहा जा सकता, लेकिन ओवैसी फैक्टर असर कर सकता है। उक्त वरिष्ठ पत्रकार ने कहा, बांग्लाभाषी मुसलमान तो पूरी तरह ममता के साथ हैं, लेकिन हिंदी भाषी मुसलमान ओवैसी की तरफ जा सकते हैं। उनका वोट बंटा तो तृणमूल का आधार कम हो सकता है।
2011 की जनगणना के अनुसार प्रदेश में 27 फीसदी आबादी मुसलमानों की है। 2019 का वोटिंग पैटर्न देखें तो 70 फीसदी मुसलमानों ने तृणमूल को और 57 फीसदी हिंदुओं ने भाजपा को वोट दिया था। दोनों दलों के बीच कुल वोट में सिर्फ तीन फीसदी अंतर को देखते हुए मुस्लिम वोटों का बंटना काफी महत्वपूर्ण हो जाता है।
स्थानीय लोग यह तो मानते हैं कि ममता सरकार ने ग्रामीण इलाकों में सड़कें बनाने, गरीबों को घर देने समेत अनेक काम किए हैं। राज्य सरकार ने लोगों को जोड़ने के लिए ‘दुआरे सरकार’ नाम से कार्यक्रम चला रखा है। लोग इसमें बड़ी संख्या में शिरकत भी कर रहे हैं, लेकिन साथ में इसे चुनावी स्टंट भी बताते हैं। भाजपा भी दावे जो करे, अभी उसकी स्थिति सरकार बनाने लायक नहीं लगती। उक्त वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं, “अगर भाजपा अच्छी स्थिति में होती तो अमित शाह और दूसरे बड़े नेता हर महीने दो बार दौरा नहीं करते।”
चुनाव के गर्म माहौल में आम लोगों में एक डर भी समाया हुआ है। बीते कुछ दिनों में चुनावी रंजिश में सौ से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है। इससे चिंतित एक मतदाता ने कहा, “पहले हम बिहार में चुनावी हिंसा की बात सुनते थे, लेकिन पिछले चुनाव में ऐसी एक भी खबर नहीं आई। बंगाली खुद को भद्रलोक कहते हैं, फिर भी यहां रोजाना हत्या और बमबाजी की खबरें आ रही हैं।” देखना है कि इस चुनाव में सड़कें कितनी लाल होती हैं।