फटाफट कामयाबी हासिल करने का जज्बा तो यकीनन लाजवाब और कई मायने में जरूरी होता है, लेकिन कबीर का वह कथन हमें सावधान करता है कि माली सींचे सौ घड़ा, रितु आए फल होय। इसीलिए हर मामले को फटाफट निपटाने की कोशिश खतरनाक हो सकती है, खासकर ऐसे दौर में जब रोग बढ़ने की रफ्तार तमाम कोशिशों को पछाड़ती जा रही है। ऐसी ही कुछ चेतावनीनुमा हैरानी देश और दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने जताई तो महामारी कोविड-19 के देसी टीके का ईजाद और देश की आजादी के दिन 15 अगस्त तक सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए उसे लॉन्च कराने संबंधी भारतीय चिकित्सा शोध परिषद (आइसीएमआर) को अपने ऐलान से भी पीछे हटना पड़ा। आखिर वैज्ञानिक शोध और प्रक्रियाओं के मामले में बेहद प्रतिष्ठित संस्थान से कहां चूक हुई? क्या यह महज कोई टाइपिंग वगैरह की गलती थी? या फिर सारी कोशिशें नाकाम होती देख देसी टीके के ईजाद की लाल किले की प्राचीर से ऐलान की जल्दबाजी? ये तमाम सवाल वैज्ञनिक और राजनैतिक हलकों में आज हर ओर घुमड़ रहे हैं। सवाल यह भी है कि इससे कहीं आइसीएमआर की प्रतिष्ठा पर आंच तो नहीं आ जाएगी?
ये सवाल निश्चित ही बेहद गंभीर हैं। ऐसे दौर में इनकी अहमियत और बढ़ जाती है, जब देश में कोविड-19 के संक्रमण का ग्राफ लगातार उछाल मारता जा रहा है। 7 जुलाई तक देश में संक्रमण के कुल 7,19,664 मामले और 20,150 मौत के आंकड़े दर्ज हो चुके हैं। संक्रमण की रफ्तार हर दिन बढ़ती जा रही है और अब वह हर रोज 20,000 से ऊपर ही रहने लगी है। इन आंकड़ों के साथ देश अमेरिका और ब्राजील के बाद दुनिया में सर्वाधिक संक्रमण के मामले में तीसरा बन गया है, जबकि 24 मार्च को इस पर काबू पाने के लिए लगाए गए लॉकडाउन के वक्त हमारा देश एकदम निचले पायदान पर था। इसी वजह से लॉकडाउन पर भी सवाल उठने लगे हैं। उससे रोग तो नहीं रुका, उलटे अर्थव्यवस्था की खस्ताहाली ने लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा कर दिया। इस संकट से देश में खुदकशियों का ग्राफ भी बढ़ने लगा है। फिलहाल, कार्नेल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर तथा विश्व बैंक के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री कौशिक बसु ने अपने ताजा स्तंभ में लिखा, “24 मार्च को लगाए गए लॉकडाउन से महामारी का प्रकोप रुका नहीं, बल्कि लगता है कि उससे हालात बदतर हो गए। उसके दो हफ्ते बाद ही संक्रमण में उछाल दिखने लगा और तब से यह लगातार चिंताजनक ऊंचाई छूता जा रहा है। इससे दोहरा संकट खड़ा हो गया। भारतीय अर्थव्यवस्था गोता लगाती जा रही है और संक्रमण उछाल लेता जा रहा है।”
कह सकते हैं कि महज चार घंटे की मोहलत पर दुनिया में सबसे सख्त लॉकडाउन के ऐलान के वक्त प्रधानमंत्री का वह वादा काम नहीं आया कि “महाभारत 18 दिन चला तो यह लड़ाई 21 दिन में जीती जाएगी।” दुनिया के कई महामारी रोग
विशेषज्ञों की आशंकाएं सच होती जान पड़ रही हैं कि देश में आधी से ज्यादा आबादी इसकी चपेट में आ सकती है।
संभव है, इन्हीं वजहों से आइसीएमआर के महानिदेशक डॉ. बलराम भार्गव ने देश के 12 अहम चिकित्सा संस्थानों को आइसीएमआर और हैदराबाद के भारत बॉयोटेक के कोविड टीके (वैज्ञानिक भाषा में वैक्सीन कंडिडेट) के परीक्षण को जल्दी पूरा करने को लिखा। उन्होंने यह भी लिखा कि “सभी क्लीनिकल परीक्षण के पूरा होने के बाद इसे 15 अगस्त 2020 तक सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए इस्तेमाल करने के खातिर लॉन्च किया जाना है।”
यह संदेश ‘लीक’ हुआ तो बवाल खड़ा हो गया। भारतीय विज्ञान अकादेमी (आइएएससी) से जुड़े तकरीबन 1,100 वैज्ञनिकों ने 15 अगस्त की समय-सीमा को निहायत “अव्यावहारिक” और “असंभव-सा” बताया। इन वैज्ञानिकों ने अपने बयान में कहा, “आइएएससी कंडिडेट वैक्सीन के विकास का स्वागत करती है और जल्दी से जल्दी इसे लोगों को उपलब्ध कराए जाने की कामना करती है। हालांकि कई दूसरे वैक्सीन के विकास से जुड़े रहे वैज्ञानिकों वाली यह संस्था मानती है कि घोषित समय-सीमा असंभव-सी है। इस समय-सीमा से हमारे देश के लोगों में भ्रम और अव्यावहारिक उम्मीदें पैदा होंगी।” आइएएससी ने यह भी चेताया कि “लोगों के लिए टीका के ईजाद में विस्तृत वैज्ञानिक प्रक्रिया के साथ चरणबद्घ तरीके से क्लीनिकल ट्रायल अनिवार्य होता है।” मोटे तौर पर तीन चरण गिनाए जाते हैं। पहले चरण में सुरक्षा का पता लगाया जाता है। दूसरे चरण में उसके असर और दुष्प्रभावों (साइड एफेक्ट) का आकलन किया जाता है और सबसे व्यापक तीसरे चरण में उसके असर और दुष्प्रभावों की पुष्टि के लिए हजारों स्वस्थ लोगों पर उसका प्रयोग किया जाता है। उसके बाद ही कोई टीका सार्वजनिक तौर पर इस्तेमाल के लिए प्रमाणित किया जाता है। वैज्ञानिकों के मुताबिक, इन चरणों की अवधि तय करना भी मुश्किल है और इसमें न्यूनतम 10 से 18 महीने तक लग सकते हैं। कई बार कई-कई साल लग जाते हैं। जैसे एचआइवी का टीका लगभग एक दशक बाद भी नहीं आ पाया है।
इन आलोचनाओं के बाद 4 जुलाई को आइसीएमआर का स्पष्टीकरण आया कि उसकी 2 जुलाई की चिट्ठी का मकसद मंजूरी वगैरह में लेट-लतीफी को रोकना भर था। लेकिन सवाल उठने बंद नहीं हुए। भार्गव के पहले आइसीएमआर की महानिदेशक रह चुकीं, विश्व स्वास्थ्य संगठन की मुख्य वैज्ञानिक सौम्या स्वामीनाथन ने भी कहा कि ऐसी समय-सीमा कम से कम वैज्ञानिक क्षेत्र में तो नहीं तय की जा सकती, इसलिए वजहें क्या हैं यह तो आइसीएमआर को ही बताना चाहिए। कुछ दूसरे वैज्ञानिकों ने इसे हास्यास्पद तक कहा। एम्स के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया भी कहते हैं कि टीका 2021 के पहले आने की उम्मीद कम है। तो, ऐसे में क्या आइसीएमआर की छवि अंतरराष्ट्रीय जगत में प्रभावित हो सकती है? आइसीएमआर से 30 जून को रिटायर हुए डॉ. रमन गंगाखेडकर कहते हैं कि आइसीएमआर काफी गहरे और प्रामाणिक शोध के लिए जानी जाती है, इसलिए एकाध गैर-वैज्ञानिक बातों से उसकी छवि पर खास असर नहीं पड़ना चाहिए।
बहरहाल, यह विवाद ऐसे वक्त में निश्चित ही चिंताजनक है, जब देश कई मोर्चों पर एक साथ जूझ रहा है। उम्मीद यही की जानी चाहिए कि लोगों की सेहत से जुड़े मामले में कोई जल्दबाजी नहीं की जानी चाहिए। गौरतलब यह भी है कि हाल में पतंजलि का कोरोना की आयुर्वेदिक दवा ईजाद करने का दावा भी जैसे बाद में वापस लेना पड़ा और उसे कोरोना प्रबंध कहना पड़ा, उससे भी सबक लेना चाहिए। उससे पतंजलि को किसी मद में भले लाभ मिल जाए, पर लोगों को कोई राहत शायद ही मिले। लोगों की सेहत के मामले में जल्दबाजी नहीं, बेहद सख्त प्रक्रिया की जरूरत है।