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24 जून 2024 · JUN 24 , 2024

जनादेश ’24 /कांग्रेस: मुद्दों की झंडाबरदारी

कांग्रेस और खासकर राहुल गांधी ने जमीनी मुद्दों के आक्रामक अभियान के जरिये चुनाव को बदला, पार्टी के कायाकल्प की कितनी संभावनाएं?
राहुल गांधी

अठारहवीं लोकसभा चुनाव में देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की मौजूदा राजनीति की शायद गुजरात के बनासकांठा से जीतने वाली गनीबेन ठाकोर की कहानी सबसे मुफीद है। हर सभा और लोगों से मेलजोल में वे कहती रहीं, न मेरे पास, न पार्टी के पास पैसे हैं। लोगों से मिले छोटे-छोटे चंदे के आधार पर चुनाव लड़ कर उन्होंने ऐसे वक्त में मिसाल कायम की है जब प्रचुर धनबल और बाहुबल के अलावा चुनाव लड़ पाना असंभव-सा हो गया है। गनीबेन को एक मायने में कांग्रेस के जमीनी मुद्दों की ओर लौटने का प्रतीक इसलिए भी मान सकते हैं कि उन्होंने न सिर्फ भाजपा की महाकाय चुनावी मशीनरी का बेहद जमीनी मुकाबला किया, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कथित लोकप्रियता को, वह भी उनके गृह प्रदेश में, फीका कर दिया। दरअसल जमीनी मुद्दों की ओर रुख करने और संतुलित रवैया अपनाने का संकेत कांग्रेस ने चुनाव नतीजों के बाद भी दिखाया। चार जून की शाम और अगले दिन कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने अपने ‘इंडिया’ सहयोगियों के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह तो कहा कि यह भाजपा और नरेंद्र मोदी की राजनैतिक और नैतिक हार है, लेकिन सरकार बनाने की कोई हड़बड़ी नहीं दिखाई। यकीनन इस बदलाव के नायक राहुल गांधी ही हैं।

इसमें दो राय नहीं कि 2024 के चुनाव को धार देने में राहुल का योगदान बेजोड़ है। उनकी देश भर में दो यात्राओं ने न सिर्फ उनकी पार्टी का कायाकल्प कर दिया, बल्कि चुनाव के मुद्दे तय कर दिए। उनकी कन्याकुमारी से कश्मीर की पैदल यात्रा से मुहब्बत की दुकान का पैगाम अगर अल्पसंख्यकों और दलित-आदिवासियों को गोलबंद करने में मददगार सिद्घ हुआ, तो उनकी मणिपुर से मुंबई तक की दूसरी न्याय यात्रा ने बेरोजगारी, महंगाई, बढ़ती गैर-बराबरी, अग्निवीर, किसान की बदहाली के मुद्दों को ऐसे केंद्रीय मंच पर ला खड़ा किया कि सत्तारूढ़ पार्टी की विकसित भारत का सपना और मोदी की गारंटी को बेदम बना दिया। उनकी इस मुहिम से पिछले दो चुनावों 2014 और 2019 में बुरी हार से पस्त हुई पार्टी में नई जान आ गई। इसका लाभ विपक्ष को एकजुट करने और तमाम जोड़तोड़ के बावजूद इंडिया गठबंधन में लड़ाई का जज्बा भरने के काम आया। खासकर अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों, नाराज नौजवानों का रुख तकरीबन एकमुश्त विपक्ष की ओर मोड़ने में राहुल की मुहिम बड़े पैमाने पर असरकारी सिद्ध हुई।

राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस पहली बार खुलकर जाति जनगणना, याराना पूंजीवाद के विरोध के साथ-साथ उदारीकरण की उन नीतियों के खिलाफ खड़ी दिखती है, जो कांग्रेस के ही प्रधानमंत्रियों पी.वी. नरसिंह राव और मनमोहन सिंह के राज में परवान चढ़ी थीं। राहुल कई बार कह चुके हैं कि जो आर्थिक नीतियां नब्बे के दशक से 2008-09 तक कारगर साबित हुई थीं, वही उलटा नतीजा देने लगीं। यह अलग बात है कि कांग्रेस नव-उदारवादी नीतियों पर अब भी अस्पष्ट दिखती है। राहुल खुद भी कह चुके हैं कि वे निजी क्षेत्र के विरोधी नहीं हैं लेकिन सबके पास प्रतिस्पर्धा के समान अवसर होने चाहिए। कांग्रेस के इस रुख से इस चुनाव में पार्टी की वोट हिस्सेदारी में फायदा हुआ। इस बार पिछले दो चुनावों में मिला करीब 19 प्रतिशत वोट बढ़कर 21.5 प्रतिशत हो गया। उसकी सीटें 2014 के 44 और 2019 के 52 से बढ़कर 99 हो गई हैं। अगर इसमें बिहार के पूर्णिया से पप्पू यादव और महाराष्ट्र की सांगली सीट पर दिग्गज नेता दिवंगत वसंत दादा पाटील के पौत्र विशाल की जीत को जोड़ लें, तो यह आंकड़ा 101 हो जाता है। ये दोनों स्थानीय क्षत्रपों के सीट न छोड़ने से निर्दलीय की तरह लड़े और जीते। इसके अलावा भी दो-तीन निर्दलीय कांग्रेस के खेमे के बताए जाते हैं।  

 प्रियंका गांधी

प्रियंका गांधी

खैर, राहुल की इस पहल का लाभ पार्टी को संगठन खड़ा करने में भी मिला है। मसलन, अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने अलग-अलग वर्गों और तबकों के लोगों के साथ बातचीत करके उन्हें पार्टी के साथ जोड़ा। यह लोकसभा उम्मीदवारों को तय करने में भी कई राज्यों में दिखा। इस बार कांग्रेस ने अपने 135 उम्मीदवार बदल दिए थे और उनमें पिछड़ा, दलित, आदिवासी, नौजवान और महिला चेहरों को तरजीह दी गई। कांग्रेस अपने नई आधार-भूमि से फिलहाल डिगती नहीं दिख रही है, इसका अंदाजा नतीजों के बाद उसके रुख में भी दिखा।

सूत्रों की मानें तो इंडिया गठबंधन के कई घटकों का दबाव था कि नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू से फौरन बातचीत करके सरकार बनाने की दिशा में बढ़ा जाए, मगर कांग्रेस इस मूड में नहीं थी। वैसे, उसने बात करने का जिम्मा बाकी दलों पर छोड़ दिया और यह भी संकेत दे दिया कि अगर बाकी दलों का तीसरा मोर्चा जैसा बन जाता है, तो कांग्रेस सरकार को बाहर से समर्थन देने पर भी विचार कर सकती है। जाहिर है, कांग्रेस या राहुल गांधी ऐसी कोई जल्दबाजी दिखाने के मूड में नहीं दिखते, जिससे सत्ता के लिए किसी तरह की समझौते वाली छवि बने, हालांकि आशंकाएं बदस्तूर कायम हैं कि मोदी सरकार अपने पुराने रुख पर लौट सकती है और कांग्रेस तथा तमाम विपक्षी दलों को फोड़ने या उनके खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों के इस्तेमाल से मनोबल तोड़ने की कोशिशें जारी रख सकती है। कांग्रेस के भीतर यह एहसास है कि नीतीश तथा नायडू की बैसाखी पर ‌टिकी कमजोर मोदी सरकार अपना इकबाल खो चुकी है और अब वह पुराना रवैया अपनाने में दो बार सोचेगी। विपक्ष में वैसे यह भी एहसास है कि अफसरशाही या दूसरी संवैधानिक संस्थाएं शायद अब पहले की तरह सरकार की हामी भरती न दिखे। एक आशंका यह भी है कि भाजपा का निशाना करीब छह महीने बाद महाराष्ट्र और हरियाणा चुनाव हो सकता है। हरियाणा में पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र हुड्डा निशाने पर हो सकते हैं। महाराष्ट्र में भी ऑपरेशन कमल चल सकता है।

कांग्रेस अपनी गोटियां आराम से चलती दिख रही है। उसे यह भी एहसास है कि वह सत्ता से अपने को फिलहाल जितना दूर रखेगी, उतना उसका आधार फैलेगा। खतरा यह भी है कि उसने जिस आक्रामक ढंग से विभिन्न मुद्दों और कल्याणकारी योजनाओं पर अपने वादों को आगे बढ़ाया है, उसके पूरा न होने पर निराशा भी बढ़ सकती है। दरअसल 2019 के चुनावों में उसका घोषणा-पत्र ऐसी ही कई योजनएं लेकर आया था, लेकिन अपनी कमजोर हालत से लोगों में शायद विश्वास पैदा नहीं कर पाया था। यह दीगर बात है कि 2019 में पुलवामा और सर्जिकल स्ट्राइक के घटनाक्रम से पूरा माहौल बदल गया था। वरना उसके पहले कांग्रेस ने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और गुजरात में काफी अच्छा प्रदर्शन किया था। इसलिए कांग्रेस नेताओं के मुताबिक सामान्य चुनाव होते तो नतीजे कुछ और हो सकते थे।

नई परि‌स्थितियों में कांग्रेस का मनोबल बढ़ा हुआ दिखता है। आगे आने वाले घटनाक्रम ही तय करेंगे कि आगे वह अपना जनाधार कितना व्यापक कर पाती है। वजह यह है कि कांग्रेस अगर अपने राज्यों में प्रदर्शन नहीं सुधार पाती है, तो उसे मुश्किल से निकलने में काफी समय लग सकता है। मसलन, उम्मीद के मुताबिक अगर कांग्रेस हरियाणा, हिमाचल, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में प्रदर्शन सुधार पाती, तो आज लोकसभा चुनाव के नतीजे कुछ अलग होते।

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