यकीनन कांग्रेस महामारी से देश में बिगड़ते हालात के वक्त लगातार सक्रिय है। पार्टी मई में 12 प्रमुख विपक्षी दलों के साथ केंद्र सरकार को तीन बार पत्र लिख चुकी है। दो बार किसान आंदोलन के समर्थन में। पार्टी फौरन विवादास्पद केंद्रीय कृषि कानूनों को वापस लेकर कोरोना की घातक दूसरी लहर के वक्त किसानों का मोर्चा खत्म करवाने का दबाव बना चुकी है। 26 मई को दिल्ली की सीमा पर डटे किसानों के मोर्चे के छह महीने पूरे होने पर देश भर में विरोध प्रदर्शनों का भी पार्टी ने स्वागत किया है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी देश में सबको मुफ्त वैक्सीन, ऑक्सीजन और दवा उपलब्ध कराने और लॉकडाउन के दौरान लोगों को राशन और वित्तीय मदद मुहैया कराने पर अप्रैल के बाद एकाधिक चिट्ठियां प्रधानमंत्री को लिख चुकी हैं। इसके पहले पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कोविड संक्रमण की रोकथाम और दवा, वैक्सीन और ऑक्सीजन की उपलब्धता से संबंधित कुछ सुझावों के लिए पत्र लिखा था। उस पत्र का स्वास्थ्य मंत्री की ओर से बड़ा तीखा जवाब दिया गया। इसी तरह युवा कांग्रेस के अध्यक्ष श्रीनिवास बी.वी. की टोली ऑक्सीजन, रेमडेसिविर इंजेक्शन और अस्पताल में बिस्तर उपलब्ध कराने में मदद कर रही थी। सोशल मीडिया पर उसकी वाहवाही होने लगी तो भाजपा कई तरह से सक्रिय हो उठी। यहां तक कि दिल्ली हाइकोर्ट में एक जनहित याचिका के मार्फत दिल्ली पुलिस की स्पेशल ब्रांच पूछताछ भी करने पहुंच गई।
लेकिन क्या इससे यह नतीजा निकलता है कि कांग्रेस आखिरकार अपनी हताशा और आलस्य तोड़कर मैदान में उतरने का मन बना चुकी है? क्या उसमें लोगों की दिलचस्पी लौटने लगी है? शायद यह कहना जल्दबाजी होगी। हाल के चार राज्यों असम, बंगाल, केरल, तमिलनाडु और केंद्रशाासित पुदुच्चेरी के विधानसभा चुनाव के नतीजे तो ऐसा संकेत नहीं देते। बाकी राज्यों में तो नहीं, मगर असम में माकूल स्थिति के बावजूद वह पिछड़ गई। वहां उसकी वोट हिस्सेदारी भाजपा से कतई कम नहीं है, बल्कि कई क्षेत्रों में उससे ज्यादा है, फिर भी भाजपा गठबंधन दो-तिहाई सीटें झटक ले गया। वहां भरोसेमंद नेता के अभाव से पार्टी को नुकसान पहुंचा। प्रियंका गांधी ने वहां कई रैलियां कीं और पार्टी ने पांच गारंटी भी गिनाई, मगर भाजपा को झटका देने लायक दिलचस्पी लोगों में नहीं पैदा हो पाई।
असम के नतीजों का एक दिलचस्प पहलू पार्टी के गठबंधन फार्मूले की भूल-चूक की ओर भी इशारा करता है। उसने पहली दफा इत्र व्यपारी मौलाना बदरुद्दीन अजमल की पार्टी और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट के हग्रामा मोहिलारी सहित आठ छोटी पार्टियों से गठजोड़ किया। लेकिन अखिल गोगोई के राइजर दल और असम जातीय परिषद को भाजपा विरोधी मोर्चे के गठबंधन में एकजुट करने में कामयाब नहीं हो पाई।
नया नेतृत्व कहांः पार्टी में बड़े विवाद सुलझाने में अब भी सोनिया की जरूरत पड़ती है
नतीजों के संकेत हैं कि कम से कम 14 सीटों, जिनमें ज्यादातर ऊपरी असम की हैं, पर दोनों गठबंधनों को मिले वोट भाजपा से काफी अधिक हैं। यानी अगर यह गठबंधन हो जाता तो ऊपरी असम की बाकी सीटों पर भी असर पड़ता, जहां भाजपा को बड़ी जीत मिली है। इसका नतीजा तो यही निकलता है कि कांग्रेस में न राज्य में, न केंद्र में ऐसे नेता रह गए हैं, जो गठबंधन और चुनावी बारीकियों को समझते हों। यह और भी मामलों में दिख सकता है।
कम से कम बंगाल और केरल में तो यह दिखता ही है। केरल में परंपरा के हिसाब से इस बार कांग्रेस के यूडीएफ की सत्ता में आने की बारी थी। वहां वायनाड से सांसद होने के नाते राहुल गांधी काफी सक्रिय भी रहे हैं, बल्कि कहिए कि वहीं और बगल के तमिलनाडु में ज्यादा दिखे। असम में कुछेक और बंगाल की एक-दो रैलियों के अलावा वे दक्षिणामुखी ही बने रहे। लेकिन वे न गठबंधन साध पाए, न पार्टी की राज्य इकाई में कलह दूर कर पाए। यहां तक कि तमिलनाडु में भी सीटों के आखिरी बंटवारे के वक्त द्रमुक नेता एम.के. स्टालिन से सोनिया गांधी को बात करनी पड़ी। केरल में वे आखिरी वक्त में पूर्व मुख्यमंत्री बुजुर्ग ओमान चांडी को सक्रिय करने में जरूर सफल हुए मगर चांडी और रमेश चेन्निथला के दबदबे के कारण पुराने नेता पी.सी. चाको को पार्टी को अलविदा कहना पड़ा। कई कांग्रेस कार्यकर्ता नाराज हुए और कुछ शांत हो गए। फिर वे अपने पुराने सहयोगी केरल कांग्रेस (मणि) को गठबंधन में वापस लाने में नाकाम रहे। वह एलडीएफ में विजयन के साथ चली गई और मध्य केरल के जिलों में वाम मोर्चे को बढ़त दिला गई, जहां से अमूमन कांग्रेस को अच्छी सीटें मिला करती थीं। सही गठबंधन की नब्ज पहचानने में यहां भी चूक हुई।
बंगाल में तो वाम मोर्चे के साथ गठजोड़ में उसे न धर्मनिरपेक्ष होने का लाभ मिला, न वह मुस्लिम वोटों पर कुछेक खास पॉकेट- मुर्शिदाबाद, माल्दा जिलों-में पकड़ कायम रख सकी। इतना बुरा हाल हुआ कि पार्टी के लोकसभा में नेता, प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी को कहना पड़ा, ‘‘समझिए कि मैं ही एक तरह से हार गया, क्योंकि मेरे लोकसभा क्षेत्र की हर विधानसभा में पार्टी हार गई।’’ वैसे, वहां तो कह सकते हैं कि भाजपा विरोधी रुझान इतना प्रबल था कि उसका एकतरफा लाभ तृणमूल कांग्रेस और ममता बनर्जी को मिल गया। लेकिन, जैसा कि वाम मोर्चा से अलग लड़ने वाले भाकपा-माले के नेता दीपांकर भट्टाचार्य कहते हैं, ‘‘वाम मोर्चा और कांग्रेस की भूल भाजपा और तृणमूल को एक खांचे में रखने की रणनीति थी। अगर वे भाजपा और केंद्र विरोधी रुझान को पकड़कर रणनीति बनाते तो उन्हें भी कुछ फायदा होता और भाजपा को इतनी सीटें भी नहीं मिलतीं।’’
तो, कांग्रेस नेतृत्व पर उन नेताओं के सवाल तो वाजिब हैं, जिन्हें जी-23 कहा जाता है। आखिर 2004 की बात याद करें। अचानक एक दिन सोनिया गांधी जनपथ पर बगल के बंगले में रामविलास पासवान के यहां पहुंच जाती हैं और उन्हें अपने पाले में ले आती हैं। इसी तरह वे ममता, शरद पवार सहित उन सभी ताकतों को एकजुट कर लाती हैं जो छिटकर एनडीए में जा मिले थे। लेकिन ऐसा कौशल 2019 के लोकसभा चुनावों में नहीं दिखा और अब भी उसके प्रति उत्साह नहीं दिखता है।
फैसले पर सवालः गठबंधन की बारीकियां समझने में राहुल ने कई जगह चूक की
फिर भी कांग्रेस ही वह ताकत है, जिससे मोदी-शाह की ताकतवर भाजपा आज भी सतर्क रहती है। ऊपर की घटनाओं से साफ है कि कांग्रेस की वास्तविक सक्रियता या सक्रिय दिखने की कोशिश से भाजपा की पेशानी पर बल पड़ जाता है। यही वजह है कि वह सबसे ज्यादा राहुल गांधी को लगातार घेरने की कोशिश करती रही है। भाजपा का आइटी सेल तो उन्हें ही सबसे ज्यादा अपने निशाने पर रखता है। शायद भाजपा में मौजूदा दबदबे वाली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की जोड़ी को अपने पुराने दिग्गज लालकृष्ण आडवाणी की वह बात याद है कि ‘‘कांग्रेस उस महानद की तरह है, जिसमें लाखों नदी-नाले गिरते हैं। कभी ये नदी-नाले सूखे दिखते हैं और महानद का पानी उतरा हुआ दिखता है, मगर कोई पता नहीं, कब बारिश हो जाए, नदी-नालों में धार बहने लगे और महानद में पानी उफान मारने लगे।’’ यह बात उन्होंने 2004 में एनडीए-1 की हार से चौंक कर पार्टी की समीक्षा बैठक में कही थी।
आज जब केंद्र की मोदी सरकार महामारी, अर्थव्यवस्था के मोर्चों पर बुरी तरह घिरी दिखती है, उसकी लापरवाहियां लोगों की जान पर बन आई हैं तो वह शायद ही चाहेगी कि कांग्रेस की ओर लोगों की उम्मीद भरी नजरें उठें। इसी वजह से वह देसी और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में आलोचनात्मक खबरों के लिए तथाकथित कांग्रेस-टूलकिट का आरोप लगा रही है। हालांकि कांग्रेस ने इसके फर्जी होने की एफआइआर लिखवाई। ट्विटर ने संबित पात्रा के ट्वीट पर ‘मैनिपुलेटेड मीडिया’ का टैग लगा दिया तो उसे हटाने के लिए ट्विटर पर दबाव बनाने की खातिर केंद्र सरकार सक्रिय हो गई। ट्विटर के दिल्ली कार्यलय में दिल्ली पुलिस भी पहुंच गई।
लेकिन कांग्रेस अगर भाजपा की आज की कमजोरी का लाभ भी नहीं उठा पाती है तो उसमें शायद ही जान लौट पाए। पार्टी का दुर्भाग्य है कि वह माकूल माहौल में भी अपना घर संभालने में ही ऐसी उलझी हुई है कि अस्थाई नेतृत्व और संगठन की मजबूती के लिए चुनाव की मांग करने वाले नेताओं से ही संवाद कायम नहीं कर पाती। बीमार सोनिया गांधी को भी जी-23 में से मनीष तिवारी और अन्य कुछ नेताओं की अलग-अलग समितियां बनाकर उनका पाला कमजोर करना ही बेहतर लगा। ये नेता शायद अध्यक्ष पद पर राहुल को चुनौती देना नहीं चाहते, बल्कि यह चाहते हैं कि पार्टी में उनकी भी सुनी जाए। उनकी यही शिकायत है कि पार्टी की कमान संभालने के बाद से ही राहुल उनसे कोई संवाद नहीं करते। इसलिए इन नेताओं का जोर पार्टी कार्यकारिणी का चुनाव कराने पर है, जो 1996 में आखिरी बार हुए थे। कार्यकारिणी के चुनाव के बाद समूह का जोर पार्टी के पुराने संसदीय बोर्ड और केंद्रीय चुनाव समिति के गठन पर है, ताकि उन्हें फैसलों में हकदार होने का मौका मिले।
मैं ही एक तरह से हार गया, क्योंकि मेरे लोकसभा क्षेत्र की हर विधानसभा में पार्टी हार गई
अधीर रंजन चौधरी, अध्यक्ष, प. बंगाल कांग्रेस
बहरहाल, इधर राहुल कुछ बदले हुए दिखे हैं। मसलन, पांच राज्यों के चुनावी नतीजों के एक दिन पहले 1 मई को वे बोले, ‘‘पार्टी जो जिम्मेदारी देगी, निभाऊंगा।’’ शायद उन्हें असम और केरल में अच्छे नतीजों की उम्मीद थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अगले साल उत्तर प्रदेश, पंजाब सहित कई राज्यों के चुनाव हैं। वैसे, 10 मई की पार्टी कार्यकारिणी की बैठक में अध्यक्ष के चुनाव कोविड दौर में टल गए हैं। अब पता नहीं अच्छे नतीजे कब आएंगे और कब दिन बहुरेंगे।
इंटरव्यू/कमलनाथ
‘ मैं मध्य प्रदेश नहीं छोड़ूंगा’
हाल में दमोह उपचुनाव की जीत ने मध्य प्रदेश कांग्रेस और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ को नई ऊर्जा दी है। राज्य में कोविड महामारी की दूसरी लहर में संक्रमण के प्रकोप से मुश्किल में भाजपा सरकार को कमलनाथ की सक्रियता शायद कुछ ज्यादा ही खलने लगी है। उन्होंने कोविड की दूसरी लहर के लिए केंद्र की लापरवाहियों को आड़े हाथों लिया और कहा कि विदेश में कोरोना के कथित ‘इंडियन वैरिएंट’ के लिए देश की बदनामी हो रही है तो उन पर एफआइआर दर्ज करा दी गई। वे उन वरिष्ठ नेताओं में हैं, जिनके नाम की चर्चा कांग्रेस की राष्ट्रीय जिम्मेदारी संभालने के लिए भी गाहे-बगाहे होती रही है। उन्होंने इन तमाम सवालों पर शमशेर सिंह से बेबाक बातचीत की। प्रमुख अंश:
मध्य प्रदेश कांग्रेस को लेकर आपकी योजना?
मजबूत संगठन हमारी आवश्यकता है। इसी के मद्देनजर गांव के स्तर पर संगठन को नए सिरे से खड़ा किया जा रहा है। हम पार्टी संगठन में विकेंद्रीकरण पर भी काम कर रहे हैं, जिससे स्थानीय लोग अपने क्षेत्र के बारे में खुद फैसला कर सकें। इसके माध्यम से ही कांग्रेस हर चुनाव क्षेत्र में मजबूत होगी।
आगे आपकी भूमिका में कोई बदलाव संभव है? राष्ट्रीय स्तर पर नई भूमिका की संभावना है?
मेरी नजर अभी राष्ट्रीय परिदृश्य पर नहीं है। मेरा पूरा ध्यान मध्य प्रदेश में है। अगर कोई परिस्थिति बनती है तो उस पर विचार किया जाएगा लेकिन मैं मध्य प्रदेश नहीं छोड़ूंगा।
देश भर में पार्टी का संगठन काफी कमजोर दिखाई दे रहा है। कांग्रेस का जनाधार मजबूत करने की क्या कोशिशें चल रही हैं?
उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी संगठन को ही मजबूत करने के काम में लगी हुई हैं। वहां पंचायत स्तर तक संगठन को खड़ा किया जा रहा है। इसके अलावा पंजाब, हरियाणा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, कर्नाटक में इसी तरह के काम हो रहे हैं। बिहार में भी प्रयास हो रहा है कि संगठन को मजबूत किया जाए। वहां गठबंधन के कारण संगठन कमजोर हुआ है। कांग्रेस ने जब भी किसी से गठबंधन किया तो हमारा संगठन कमजोर हुआ है। जम्मू-कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक इसके उदाहरण भरे पड़े हैं।
लेकन कांग्रेस में राज्य इकाइयों को मजबूत करने की कोशिश क्यों नहीं दिखाई देती है?
मैंने 42 साल पहले 1979 में पहला चुनाव लड़ा था, तो हमारे भाषण कुछ और ढंग के हुआ करते थे। हम अंतरराष्ट्रीय बातें भी किया करते थे। आज लोग चाहते हैं कि हमारे गांव की बात करें। आज लोग पूछते हैं कि ये बताइए हमें क्या दिया। आज चुनाव बहुत ही स्थानीय किस्म के हो गए हैं। इसलिए प्रदेशों को ज्यादा स्वतंत्रापूर्वक काम करना चाहिए। हर चीज केंद्र करे, यह सही नहीं है। प्रदेश संगठन को खुद ही हर जिले, हर चुनाव क्षेत्र में काम करना चाहिए।
कई वरिष्ठ नेता संगठन के पुनर्गठन और स्थाई नेतृत्व की मांग कर रहे हैं। ऐसा नहीं लगता है कि केंद्रीय नेतृत्व पर भरोसा कम हो रहा है?
जहां तक जी 23 की बात है, सबसे मेरी चर्चा होती रही है। ये नेता कांग्रेस के सुधार की बात कर रहे हैं। कोई तनाव नहीं है। कांग्रेस अध्यक्ष से बात करके मैंने ही सबकी बात कराई। आज प्रश्न कांग्रेस में सुधार की आश्यकता का है। समय के क्रम में राजनीति का रंग-ढंग बदला है। हमें देखना है कि कांग्रेस में किस तरह के परिवर्तनों की आवश्यकता है।
लेकिन क्या यह पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को सीधे कठघरे में खड़ा करना नहीं है?
मैं ऐसा नहीं मानता हूं। ऐसा कोई माहौल नहीं है। सोनिया गांधी ने कभी नहीं कहा था कि वे अध्यक्ष बनना चाहती हैं। कांग्रेसजनों ने ही कहा। इसी तरह राहुल गांधी भी नहीं चाहते थे। डेलीगेशन पर डेलीगेशन गए, आज के जी 23 के सभी लोग उसमें शामिल थे।
क्या गांधी परिवार से बाहर के किसी नेता को कमान देने की कोई संभावना है?
संभावनाएं हमेशा रहती हैं। अभी पार्टी का चुनाव होना है। कांग्रेस अध्यक्ष अपने स्वास्थ्य के कारण सक्षम नहीं हंै, ऐसा उन्होंने खुद कहा है। आगे देखते हैं कि पार्टी में कौन नेतृत्व के लिए इच्छुक है, उसी के मुताबिक एआइसीसी अध्यक्ष का चुनाव करेगी। इसमें कोई भी आ सकता है।
कांग्रेस केंद्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन का समर्थन कर रही है। इससे कांग्रेस को कोई मदद मिलती दिख रही है?
मदद जैसी कोई बात नहीं। भाजपा ने सत्ता में आते ही किसान विरोधी फैसले किए। कांग्रेस हमेशा अन्नदाताओं के साथ रही है। यही वजह है कि देश भर में भाजपा के किसान विरोधी फैसलों का विरोध हो रहा है। किसानों में मोदी सरकार को लेकर भारी असंतोष है।
मध्य प्रदेश में पिछले साल विधानसभा उपचुनावों में कांग्रेस की हार की क्या वजह रही?
मुझे ईवीएम पर शंका है। मैंने इसका गहराई में अध्ययन किया है। अगर भाजपा जीतती है तो मतपत्र से जीते। ये जिद क्या है कि हम ईवीएम से ही चुनाव कराएंगे। इसकी शुरुआत कांग्रेस ने ही की थी, उस समय टेक्नोलॉजी नई थी। आज अमेरिका, यूरोप, जापान कोई भी ईवीएम प्रयोग नहीं करता है। भाजपा जनता का वोट लूट रही है। मैं आरोप नहीं लगा रहा हूं, अगर शक है तो समाधान कीजिए।
भाजपा से मुकाबले की तैयारी नहीं दिखती। कांग्रेस को भाजपा की शक्ति का अनुमान है?
कांग्रेस पार्टी को पूरी तरह अंदाजा है कि हमारा मुकाबला किससे है और उसी के अनुसार हम अपनी रणनीति पर काम भी कर रहे हैं। हमारा मुकाबले भाजपा से नहीं, उसके संगठन से है। हमें उसी तरह का संगठन बनाना है जो उसके संगठन से मुकाबला कर पाए। मजबूत संगठन के बिना किसी भी राजनीतिक दल को सफलता नहीं मिल सकती है।
क्या कांग्रेस नेतृत्व में लंबे समय से अनिश्चितता के कारण लोगों का भरोसा नहीं जम रहा है?
ऐसी बात नहीं है। राष्ट्रीय नेतृत्व या संगठन में इस तरह की कोई समस्या, कोई अनिश्चितता नहीं है। आप जैसा कह रहे हैं, आम लोग ऐसा नहीं सोचते।