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3 फरवरी 2025 · FEB 03 , 2025

हरियाणाः कांग्रेस का संगठन-संकट

हुड्डा विहीन रणनीति और पुनर्निर्माण की चुनौती के साथ स्थानीय निकाय चुनावों की परीक्षा सामने
टकराव घटा नहींः (बाएं से) भूपेंद्र सिंह हुड्डा, कुमारी सैलजा और चौधर बीरेंद्र सिंह

हरियाणा में कांग्रेस पार्टी नेतृत्व और संगठन के संकट से जूझ रही है। विधानसभा चुनाव नतीजों के तीन महीने बाद भी पार्टी आलाकमान नेता प्रतिपक्ष तय नहीं कर पाए। 90 सदस्यीय विधानसभा में 37 विधायकों वाली कांग्रेस मजबूत विपक्ष की भूमिका में होने के बावजूद फरवरी  में विधानसभा के तीसरे सत्र में भी बगैर नेता प्रतिपक्ष के ही शायद रहे। मई 2024 में हुए लोकसभा चुनाव में प्रदेश की 10 में से 5 सीटों पर जीत के साथ उभरी कांग्रेस चार महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में अति-आत्मविश्वास और गुटबाजी के चलते सत्ता से दूर रह गई। अब पार्टी की निगाहें फरवरी में होने वाले स्थानीय निकाय चुनावों पर हैं। इन चुनावों को पार्टी के लिए खुद को पुनः संगठित और स्थापित करने का एक मौका माना जा रहा है, लेकिन प्रदेश की राजनीति में लंबे समय तक प्रभावी रहे भूपेंद्र सिंह हुड्डा और उनके बेटे दीपेंद्र हुड्डा को दरकिनार करने की आलाकमान की रणनीति ने हरियाणा कांग्रेस को असमंजस की स्थिति में डाल दिया है।

स्थानीय निकाय चुनावों में हुड्डा पिता-पुत्र को मुख्य रणनीतिकार न बनाकर कांग्रेस आलाकमान नई टीम और नए नेतृत्व को आगे लाना चाहता है। नेता प्रतिपक्ष का पद हुड्डा को या उनके किसी करीबी नेता को न देना इस संकेत को और पुख्ता करता है कि भविष्य में भाजपा की तोड़ में कांग्रेस हरियाणा में गैर-जाट राजनीति की रणनीति बना रही है।

माना जा रहा है कि कांग्रेस आलाकमान कुमारी सैलजा, रणदीप सुरजेवाला और चौधरी बीरेंद्र सिंह गुट को आगे बढ़ा सकता है, हालांकि आउटलुक से बातचीत में कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर ने कहा, “कांग्रेस को हरियाणा में अपनी खोई हुई जमीन वापस पाने के लिए गुटों से उठकर यह समझना होगा कि कथित स्थानीय नेतृत्व से पहले प्रदेश में संगठन को कैसे मजबूत किया जाए?”

गैर-जाट के तौर पर दलित नेता कुमारी सैलजा पहला विकल्प हैं जिन्हें वर्तमान अध्यक्ष उदयभान के बदले अध्यक्ष बनाए जाने के संकेत हैं, हालांकि उदयभान से पहले सैलजा प्रदेश अध्यक्ष रही हैं और उनसे पहले अध्यक्ष रहे दलित नेता अशोक तंवर भी कांग्रेस को नहीं उबार सके।

हुड्डा के बदले जाट नेता के तौर पर रणदीप सुरजेवाला को विकल्प के रूप में देखा जा रहा है लेकिन सुरजेवाला विधानसभा चुनाव में अपने बेटे आदित्य के निर्वाचन क्षेत्र कैथल से बाहर प्रचार के लिए नहीं निकले। दूसरे विकल्प के तौर पर जाट नेता चौधरी बीरेंद्र सिंह हैं जो 2024 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले अपने सांसद बेटे बृजेंद्र सिंह के साथ भाजपा छोड़ कांग्रेस में शामिल हुए। भाजपा से पहले चार दशक तक कांग्रेस में रहे बीरेंद्र सिंह का व्यापक अनुभव और उनकी मजबूत पकड़ जमीनी स्तर के कांग्रेसी कार्यकर्ताओं में नई ऊर्जा फूंक सकती है।

दो दशक तक प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता रहे रण सिंह मान की मानें तो, “हुड्डा, सैलजा, सुरजेवाला और बीरेंद्र सिंह जैसे बड़े नेताओं के गुटों की आपसी खींचतान पार्टी की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा रही है।” राजनैतिक विश्लेषक डॉ. अनिल मलिक का मानना है, “हुड्डा गुट को दरकिनार करना अल्पकालिक रणनीति हो सकती है, लेकिन इसके दीर्घकालिक प्रभाव भी गंभीर हो सकते हैं। आलाकमान सही संतुलन साधे तो कांग्रेस को हरियाणा में पटरी पर लाया जा सकता है।” 

हरियाणा की राजनीति में जाट और गैर-जाट समीकरण बेहद अहम भूमिका निभाते हैं। रानिया से कांग्रेस के प्रत्याशी रहे सर्वमित्र कंबोज का कहना है, “लोकसभा में पांच सीटों पर जीत से यह साबित हुआ है कि हरियाणा में कांग्रेस का संगठन कमजोर नहीं है। विधानसभा चुनाव में छल-बल के दम पर तीसरी बार सत्ता में काबिज हुई भाजपा का वोट शेयर (39.85%) कांग्रेस (39%) से मात्र 0.85 फीसदी अधिक रहा।”

कुमारी सैलजा का कहना है, “हरियाणा में कांग्रेस की जड़ें गहरी हैं। विधानसभा चुनाव में कई सीटों पर कमजोर उम्मीदवार उतारने से पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। कई सीटों पर बागियों को भी नहीं मना पाए।” बीरेंद्र सिंह का कहना है, ‘‘सभी समुदायों को साथ लेकर चलने से ही पार्टी मजबूत होगी।’’

एक के बाद दूसरी हार के चलते बदले हालात में आगामी स्थानीय निकाय चुनाव कांग्रेस के लिए अपने भविष्य को परखने का अवसर है। यह देखना दिलचस्प होगा कि हुड्डा-विहीन कांग्रेस क्या वाकई अपनी खिसकी जमीन बचा पाएगी।

 

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