तुम रूठी रहो मैं मनाता रहूं.... वैसे तो यह एक फिल्मी गाना है, लेकिन कांग्रेस पार्टी में आजकल कुछ ऐसा ही चल रहा है। एक अदद अध्यक्ष चुनने के लिए रूठने-मनाने की कवायद डेढ़ साल से चल रही है। ताजा वाकया 31 जनवरी का है। दिल्ली कांग्रेस प्रदेश कमेटी ने एक प्रस्ताव पारित कर राहुल गांधी को तत्काल पार्टी की कमान सौंपने की गुजारिश कर दी। प्रदेश कमेटी ने यह कदम 22 जनवरी को कांग्रेस कार्यकारिणी के उस फैसले के बाद उठाया है, जिसमें कहा गया कि कई राज्यों में विधानसभा चुनावों को देखते हुए पार्टी अब जून में नया अध्यक्ष चुनेगी। पश्चिम बंगाल, केरल, असम, तमिलनाडु और पुदुच्चेरि में मार्च-अप्रैल में विधानसभा चुनावों होने वाले हैं। पार्टी का तर्क है चुनावों पर ज्यादा फोकस रहे, इसलिए यह फैसला किया गया है। लेकिन पार्टी में असंतुष्ट तबका इसी पर सवाल उठा रहा है। पिछले साल कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखने वाले 23 वरिष्ठ नेताओं में शामिल गुलाम नबी आजाद ने कार्यकारिणी की बैठक में फिर अपनी मांग दोहराया कि संगठन चुनाव की प्रक्रिया तत्काल शुरू की जाए।
लगता है, पार्टी आलाकमान ऐसा मानता है कि बिना किसी नेता के भी चुनावों में उसकी नैया पार हो जाएगी। हालांकि हकीकत यह भी है कि जिन बड़े राज्यों में चुनाव होने वाले हैं, उनमें केरल और असम को छोड़कर कहीं भी वह सीधे मुकाबले में नहीं है। उसे पश्चिम बंगाल में वाम दलों और तमिलनाडु में द्रमुक का सहारा लेना पड़ रहा है।
इससे पहले करीब चार महीने के विचार-विमर्श के बाद, मधुसूदन मिस्त्री की अध्यक्षता में कांग्रेस की केंद्रीय चुनाव समिति ने पार्टी कार्यकारिणी के पास सिफारिश भेजी थी। इसमें कहा गया था कि अध्यक्ष पद के लिए मई में चुनाव करा लिए जाएं। उस वक्त भी कार्यकारिणी के सदस्य गुलाम नबी आजाद, पी. चिदंबरम, आनंद शर्मा और मुकुल वासनिक ने जल्द चुनाव कराने पर जोर दिया था। अब पार्टी ने जून तक चुनाव कराने का फैसला किया है। कांग्रेस महासचिव के.सी. वेणुगोपाल ने कहा, “जून 2021 में हर हाल में एक निर्वाचित कांग्रेस अध्यक्ष होगा।”
हकीकत यह भी है कि पिछले डेढ़ साल में राहुल गांधी ने कभी भी खुल कर दोबारा पार्टी अध्यक्ष बनने की मंशा नहीं जताई। हालांकि पिछले कुछ दिनों से संगठन स्तर पर हुए बदलावों से जरूर लगता है कि उनके लिए रास्ता तैयार हो रहा है। 2019 में उन्होंने खुला पत्र लिखकर पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ने का ऐलान किया था। तब उन्होंने लिखा था, “पार्टी को कठिन फैसले लेकर बड़े बदलाव करने की जरूरत है।” उस समय यह बात भी सामने आई थी कि पार्टी को किसी गैर-गांधी को अध्यक्ष चुनना चाहिए। उन्होंने उसके बाद यह भी कहा कि वे या उनकी बहन प्रियंका अध्यक्ष पद नहीं संभालेंगी।
फिर भी, अब राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने के पक्ष में प्रस्ताव पारित करने पर दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष अनिल चौधरी का कहना है, “राहुल अकेले नेता हैं जो कांग्रेस कार्यकर्ताओं में जोश भर सकते हैं। उनके सभी आकलन सच साबित हुए हैं। चाहे किसानों का मुद्दा हो या फिर जीएसटी का, राहुल जी की बातें हमेशा सही निकली हैं। इसीलिए हमने उन्हें दोबारा अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव पारित किया।”
पार्टी अध्यक्ष के चुनाव में बार-बार देरी का ही परिणाम है कि सोनिया गांधी, जो पिछले 18 महीने से पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष हैं, को पिछले साल अगस्त में 23 वरिष्ठ नेताओं ने चिट्ठी लिखी थी कि पार्टी में जान डालने के लिए फौरन "स्थाई, सक्रिय और सर्वसुलभ अध्यक्ष" और संगठन में सभी पदों के चुनाव की प्रक्रिया शुरू की जाए। यह चिट्ठी लिखने वाले नेताओं में गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, मुकुल वासनिक, कपिल सिब्बल जैसे प्रमुख नाम शामिल थे। उनका कहना था कि अध्यक्ष का चुनाव नहीं होने से न केवल कार्यकर्ताओं में निराशा फैल रही है, बल्कि सहयोगी दलों में भी नकारात्मक संदेश जा रहा है। इससे भाजपा को भी मौका मिल रहा है।
अहम बात यह है कि इस डेढ़ साल में अध्यक्ष नहीं होने के बावजूद राहुल गांधी ही पार्टी का चेहरा बने हुए हैं। चाहे केंद्र सरकार पर हमले की बात हो या पार्टी में अंतर्कलह को खत्म करना हो, वही आगे रहे हैं। सूत्रों के अनुसार, नाराज वरिष्ठ नेताओं के खिलाफ जब अशोक गहलोत और अंबिका सोनी ने मोर्चा खोला तो राहुल ने ही मध्यस्थता की थी।
सूत्र इस बात की पुष्टि करते हैं कि राहुल ने अभी तक अध्यक्ष बनने के संकेत नहीं दिए हैं। हालांकि पार्टी ने जिस तरह से आगामी विधानसभा चुनावों में उनकी भूमिका तय की है, उससे तस्वीर काफी हद तक साफ हो जाती है कि जून में क्या होने वाला है। एक सूत्र के अनुसार, “पांचों राज्यों में राहुल की रैलियों और प्रचार की योजना तैयार की जा चुकी है। इन चुनावों में वे काफी आक्रामक तरीके से प्रचार करेंगे। कार्यकारिणी के फैसले के एक दिन बाद राहुल के तमिलनाडु के तीन दिवसीय दौरे पर निकल जाने को इसी कड़ी में जोड़ कर देखा जाना चाहिए।” एक अन्य नेता ने कहा, “यह ठीक वैसे ही है, जैसे जनवरी 2017 में अध्यक्ष बनने से पहले दिसंबर 2016 में गुजरात विधानसभा चुनाव में राहुल ने भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ आक्रामक प्रचार किया था।”
इस रणनीति से पार्टी के अन्य प्रमुख नेता इत्तेफाक नहीं रखते हैं। कपिल सिब्बल कई बार कह चुके हैं कि पार्टी उनके उठाए गए मुद्दे पर कुछ नहीं कर रही है। पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले दूसरे कई नेताओं का मानना है कि अब फिर से पांच महीने इंतजार करना होगा। उनका यह भी कहना है कि पार्टी के कुछ लोग शायद इंतजार कर सकते हैं, लेकिन मतदाता में इतना धैर्य शायद ही दिखाए।
पार्टी के एक नेता का यह भी कहना है कि अगर राहुल गांधी का रास्ता आसान करने के लिए विधानसभा चुनावों का इंतजार किया जा रहा है, तो यह एक बड़ा दांव है। अगर चुनाव परिणाम पार्टी के अनुकूल नहीं आए तो उस समय उनकी ताजपोशी सवालों के घेरे में भी आ सकती है।
पार्टी नेताओं का यह भी मानना है अगर कांग्रेस चुनावी राज्यों में गठबंधन या अपने बूते सत्ता तक पहुंच जाती है तो उसे नया जीवन मिल सकता है। उसे सबसे ज्यादा उम्मीद केरल और असम से है। केरल में वाम मोर्चे से टक्कर लेने के लिए एकजुटता दिखाने पर भी जोर है। आलाकमान के हस्तक्षेप के बाद आपसी कलह और झगड़ों पर भी विराम लगाने की कोशिश की गई है। हालांकि जिस तरह से स्थानीय निकाय चुनाव में वाम मोर्चे को बड़ी जीत मिली है, उससे कांग्रेस की चिंताएं भी बढ़ गई हैं। इसीलिए पार्टी ने अपने वरिष्ठ नेता को प्रदेश का प्रभार सौंपा है। केरल में राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पार्टी की चुनाव रणनीति की अगुआई कर रहे हैं।
केरल के बाद असम ऐसा राज्य है जहां पार्टी को उम्मीद है कि वह अपने दम पर सत्ता में आ सकती है। राज्य में उसका सीधे भाजपा से मुकाबला है। पार्टी को वहां एनआरसी और नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ बने माहौल का फायदा मिलने की उम्मीद है। पार्टी वहां युवा नेताओं पर दांव लगा रही है। उनमें गौरव गोगोई का चेहरा सबसे प्रमुख है। हालांकि बोडोलैंड पर्वतीय परिषद चुनाव में भाजपा ने जिस तरह स्थानीय दलों के साथ गठबंधन किया, उससे यह साफ है कि भाजपा अपने खिलाफ बढ़ते आक्रोश को रोकने के लिए गठबंधन पर भरोसा कर रही है। अब देखना यह है कि कांग्रेस जमीन पर दिख रहे सत्ता-विरोधी रुझान को कैसे अपने पक्ष में कर पाती है। पार्टी ने छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को असम का प्रभार सौंपा है।
इन दो राज्यों के अलावा पार्टी को तमिलनाडु में द्रमुक के सहारे सत्ता तक पहुंचने की उम्मीद है। जबसे रजनीकांत ने अपनी सियासी इच्छाओं को तिलांजलि दी है, उसके बाद पुराने इतिहास देखते हुए लगता है कि द्रमुक गठबंधन सत्ता में पहुंच जाएगा। हालांकि वहां कांग्रेस मुख्य भूमिका में नहीं रहेगी। ऐसा ही हाल पश्चिम बंगाल में है, जहां वह वामदलों के साथ गठबंधन कर ममता बनर्जी और भाजपा को टक्कर देने की कोशिश में है। लेकिन कांग्रेस गठबंधन ममता को सीधे टक्कर देने की स्थिति में हो, ऐसा जमीन पर नहीं दिखता है।
साफ है कि कांग्रेस के लिए आने वाले छह महीने काफी अहम हैं। उसके लिए विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन कर न केवल मतदाताओं का भरोसा जीतने की चुनौती है, बल्कि उसे सहयोगी दलों को भी यह भरोसा दिलाना पड़ेगा कि वह भाजपा का विकल्प बन सकती है। लेकिन इसके लिए उसे मजबूत नेतृत्व को सामने लाना होगा। वरना, एक असंतुष्ट नेता कहते हैं, मतदाता एक हद तक ही धैर्य दिखा सकता है।