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कांग्रेस : वर्षा सत्र की हरियाली या?

कांग्रेस और खासकर राहुल गांधी ने विपक्ष को एकजुट करने में सक्रियता बढ़ाई मगर अभी कई सवालों के जवाब बाकी
एकजुटः राहुल गांधी के आमंत्रण पर बैठक के बाद विपक्षी दलों के नेता

आशंका सूखे की हो और इंद्र देव मेहरबान हो जाएं तो क्या कहने! लेकिन शक-शुबहा तब भी झूलता रहता है कि क्या यह हरियाली फसल से भंडार भर देगी? वाकई कांग्रेस और उसके पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए संसद का वर्षाकालीन सत्र और उसके साथ सवालों के घुमड़ते बादलों ने झमाझम कर दिया है। 3 अगस्त को 15 से अधिक पार्टियों और तकरीबन सौ सांसदों के साथ नाश्ते की मिठास और फिर संसद तक साइकिल यात्रा ने वह संदेश दिया, जिसकी अरसे से देश की सबसे पुरानी पार्टी और राहुल गांधी को तलाश थी। राहुल बोले भी, “विपक्ष और 60 प्रतिशत जनता का प्रतिनिधित्व एकजुट है।” अलबत्ता, यह सवाल बना हुआ है कि पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की गैर-मौजूदगी में राहुल की विपक्षी नेताओं के बीच ऐसी खुशनुमा बैठकी के नतीजे उनके हक में कितने सकारात्मक होते हैं। इसी सकारात्मक स्वीकार्यता से वैसी धुरी बनने के करीब आ सकते हैं, जो अब तक उनके लिए छलावा बनी रही और उन पर सियासत में अगंभीर तथा एकला चलो की फितरत की तोहमत चस्पां कर दी जाती रही है। इस छवि का खामियाजा कुछ हद तक 2019 के लोकसभा चुनावों में भी उठाना पड़ा था। तो, क्या मौजूदा घटनाक्रमों को राहुल के रवैए और खासकर उनकी बढ़ती स्वीकार्यता के साथ कांग्रेस के नई जान के साथ जी उठने का संकेत माना जाए? जवाब आसान और जल्दबाजी वाला तो नहीं ही हो सकता।

हालांकि हफ्ते भर पहले भी राहुल ने संसद में पेगासस जासूसी के साथ महंगाई और किसानों के मुद्दे पर विपक्षी एकजुटता के लिए तकरीबन 14 विपक्षी पार्टियों की बैठक की अगुआई की थी। वे ट्रैक्टर लेकर संसद भी पहुंचे थे। लेकिन फर्क यह था कि तब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी दिल्ली पहुंची हुई थीं और विभिन्न नेताओं के अलावा सोनिया गांधी से भी मिलीं, जिसमें राहुल भी मौजूद थे। इसलिए उस बैठक को ममता की सक्रियता की वजह से कांग्रेस की हरकत तेज करना माना गया था। उस बैठक में तृणमूल कांग्रेस के सांसद नहीं पहुंचे थे और शायद वजह बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष तथा लोकसभा में पार्टी के नेता अधीररंजन चौधरी से बेरुखी थी। लेकिन 3 जुलाई की बैठक में तृणमूल ही नहीं, शिवसेना, समाजवादी पार्टी, रांकांपा वगैरह ने भी शिरकत की, जबकि आयोजन चौधरी और राज्यसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ही कर रहे थे।

राहुल के प्रति दूसरी विपक्षी पार्टियों के नेताओं के रुझान में बदलाव की वजह बेशक अपने सियासी वजूद को बचाने की कोशिश भी हो सकती है। शायद तमाम विपक्षी खेमे में अब यह एहसास शिद्दत से होने लगा है कि केंद्र की सत्ता में काबिज भाजपा और खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा गृह मंत्री अमित शाह की जोड़ी के हमले उनके वजूद पर भारी पड़ रहे हैं। यह एहसास एनडीए के घटक दल जदयू और उसके नेता बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के रवैए में भी दिखने लगा है। नीतीश ने हाल में न सिर्फ पेगासस की जांच की विपक्ष की मांग का समर्थन किया और जातिवार जनगणना का मामला उठाया, जो भाजपा को पसंद नहीं है, बल्कि इनेलो के नेता ओमप्रकाश चौटाला से भी मिलने पहुंचे।

 

शायद विपक्षी खेमे में अब यह एहसास होने लगा है कि केंद्र में काबिज भाजपा के हमले उनके वजूद पर भारी पड़ रहे हैं

 

राहुल के रवैए में बदलाव अपनी पार्टी के मामले में भी दिखने लगे हैं। वे अपनी पसंद के युवा नवजोत सिंह सिद्धू को पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष बनवाने के लिए अंततः मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह को मनवा लिया। इसमें सोनिया की पहल भी अहम थी। राजस्‍थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को मंत्रिमंडल विस्तार करके सचिन पायलट खेमे को जगह दिलवाने की पहल कमोवेश सिरे चढ़ चुकी है। इसके अलावा हाल में कई राज्यों में ऐसे अध्यक्ष बनाए गए हैं, जो दूसरी पार्टियों से टूटकर आए हैं। वे युवा हैं तथा उत्साह भरने का दमखम रखते हैं। यह राहुल के पहले के रवैए से इस मायने में अलग है कि वे अपनी युवा टोली पर ही दो-टूक भरोसा करते थे और बुजुर्ग नेताओं से किनारा किए रखते थे। इतने साल में उन्होंने मान लिया है कि पार्टी की एकता, स्थिरता और कई बार वित्तीय सेहत की खातिर उन्हें पुराने नेताओं को साथ रखना होगा। 2019 में लोकसभा चुनाव में पार्टी की हार के बाद कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देते वक्त उन्होंने बड़े नेताओं के प्रति अपनी चिढ़ खुलकर जाहिर की थी। उन्होंने पी. चिदंबरम, अशोक गहलोत, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह का नाम लेकर कहा था कि वे बेटों को आगे बढ़ाने में लगे रहे और कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ लड़ाई में वे अकेले हैं।

हाल में न सिर्फ कमलनाथ सक्रिय दिख रहे हैं, बल्कि चिदंबरम, आनंद शर्मा, मनीष तिवारी वगैरह भी नए सिरे से सक्रिय हैं। ममता से कमलनाथ मिले और 3 जुलाई को चिदंबरम भी मौजूद रहे। राहुल पार्टी की एकजुटता और मजबूती के लिए बाहर से नेताओं को आयात करने को तैयार हैं। इस साल जनवरी में उन्होंने नाना पटोले को पार्टी में भाजपा से आने के तीन साल के भीतर ही महाराष्ट्र कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया। तेलंगाना में एबीवीपी के पूर्व सदस्य अनुमुला रेवंत रेड्डी को जुलाई में पार्टी की कमान सौंप दी। कांग्रेस में वे अक्टूबर 2017 में आए और टीआरएस (तेलंगाना राष्ट्र समिति) और टीडीपी (तेलुगु देशम पार्टी) में भी हो आए हैं। उत्तराखंड में गणेश गोदियाल को अध्यक्ष बनाया गया, जो हैं तो पारंपरिक कांग्रेसी, पर राज्य के बाहर उन्हें ज्यादा नहीं जाना जाता। गोदियाल सीधे मोदी को ललकार चुके हैं और राज्य के बड़े नेताओं के आलोचक रहे हैं। असम में, जहां पार्टी मई में विधानसभा चुनाव हारी, रिपुन बोरा की जगह भूपेन बोरा को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया। देबब्रत सैकिया, प्रद्युत बोरदोलोइ और गौरव गोगोई सरीखे दूसरे बड़े नेताओं के नाम की अटकलें थीं, लेकिन जिम्मेदारी भूपेन को दी गई जो राहुल के विश्वासपात्र माने जाते हैं। इसी तरह खबर है कि गुजरात में कुछ साल पहले कांग्रेस में शामिल हुए पाटीदार आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल को पार्टी की कमान सौंपी जा सकती है।

लेकिन ऐसी तमाम नियुक्तियों में यह ख्याल रखा गया है कि असंतोष न उभरे। जिन नए नेताओं को कमान दी गई है, उन्हें बार-बार यह याद दिलाया जाता है कि वे विवादास्पद बयानों से बचें। मसलन, नाना पटोले ने महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार और कुछ मंत्रियों के खिलाफ आवाजें उठाईं तो उन्हें सावधान रहने को चेताया गया। बेशक, इसमें सोनिया गांधी के पुराने नेताओं के रसूख और प्रियंका गांधी की भी भूमिकाएं अहम हैं। पार्टी के अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक गांधी परिवार हर फैसला मिलकर कर रहा है और मोटे तौर पर एकजुटता बनाए रखने का ख्याल रखा जाता है। लेकिन यह भी संदेश दे दिया जाता है कि अंतिम फैसला आलाकमान का ही है।

यकीनन कांग्रेस आलाकमान को नई समझ के साथ अपनी ताकत बढ़ाने का मौका मौजूदा परिस्थितियों ने दिया है। नरेंद्र मोदी की सरकार कोविड की दूसरी लहर के दौरान भारी नाकामी और खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के लिए चहुंतरफा आलोचना की शिकार है। ममता बनर्जी और महाराष्ट्र के दिग्गज शरद पवार विपक्षी नेताओं से मेलजोल बढ़ा रहे हैं और साझा मोर्चा बनाने की कोशिश कर रहे हैं। खबर यह भी है कि इसका एक मकसद अगले साल होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में साझा उम्मीदवार खड़ा करने की संभावना का पता लगाना भी है।

हालांकि राहुल के लिए अपनी पार्टी को संभालने में अभी कील-कांटे कम नहीं हैं और कथित तौर पर असंतोष का फायदा उठाने के लिए भाजपा का लोटस अभियान भी जारी है। इसके मुजाहिरे झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में हाल में दिखे हैं। छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और स्वास्थ्य मंत्री टी.एस. सिंहदेव के बीच कलह खुलकर सामने आ गई। उत्तरी छत्तीसगढ़ से आने वाले कांग्रेस के विधायक बृहस्पति सिंह ने आरोप लगाया कि सिंहदेव उनकी हत्या करवाना चाहते हैं। उन्होंने 24 जुलाई को अंबिकापुर थाने जाकर शिकायत दर्ज कराई कि उनके काफिले में चलने वाली सुरक्षा गाड़ी पर हमला हुआ है। भाजपा ने इस मामले को हाथो-हाथ लिया और 26 जुलाई को विधानसभा में हंगामा खड़ा हो गया। राज्य सरकार की ओर से अपेक्षित उत्तर न पाकर सिंहदेव नाराज होकर विधानसभा छोड़कर चले गए।

राहुल ने जैसी पहल विपक्षी एकजुटता और मोदी सरकार को घेरने में की है, अपने घर को संभाल कर रखने में भी उतना ही चौकस रहना होगा

सिंहदेव ने पार्टी के छत्तीसगढ़ प्रभारी पी.एल.पुनिया से हस्तक्षेप की मांग की। पुनिया ने विधायक बृहस्पति सिंह को कारण बताओ नोटिस जारी किया, जिसमें पूछा गया कि उन्होंने किस आधार पर यह आरोप लगाया है। उसके बाद सदन में विधायक और गृह मंत्री दोनों ने अपने बयानों में स्पष्ट किया कि सिंहदेव की कोई भूमिका नहीं है। इसके बाद मामला शांत हुआ।

इसका एक दूसरा रूप झारखंड में दिखा, जहां हेमंत सोरेन की गठबंधन सरकार को कथित तौर पर गिराने की साजिश में कांग्रेस विधायकों की खरीद-फरोख्त की कोशिश का मामला है (देखें बॉक्स)। जाहिर है, राहुल को अपना घर संभालने पर भी उतनी ही शिद्दत से पहल करनी होगी, जैसी पहल विपक्षी एकजुटता और मोदी सरकार को घेरने के लिए कर रहे हैं। हर मामले में उन्हें और कांग्रेस को लगातार अग्निपरीक्षा देनी होगी। पहली परीक्षा तो अगले साल उत्तर प्रदेश चुनावों में ही हो सकती है, जहां प्रदेश के कांग्रेसी नेताओं की सपा पर हमले के संबंध में अखिलेश यादव ने ट्वीट किया कि तय करें कि दुश्मन कौन। तो, ऐसे अनेक सवालों से अभी कांग्रेस और राहुल को जूझना है।

साथ में भोपाल से शमशेर सिंह

 

नई चुनौतीः रामेश्वर उरांव और अन्य नेता

 

झारखंड में साजिश

पहली बार बेरमो विधानसभा उपचुनाव जीतकर विधायक बने जयमंगल सिंह उर्फ अनूप सिंह की एक चिट्ठी से हड़कंप मच गया। वे कांग्रेस के वरिष्‍ठ नेता, श्रमिक संगठनों पर मजबूत पकड़ रखने वाले दिवंगत राजेंद्र सिंह के पुत्र हैं। 22 जुलाई को उन्‍होंने रांची कोतवाली पुलिस को लिखा कि कुछ बहुत ही रसूखदार लोग छद्म नाम से होटलों में ठहरे हुए हैं और सत्‍तारूढ़ दल के विधायकों की खरीद-फरोख्‍त और लेन-देन की बातचीत चल रही है। पुलिस तत्‍काल हरकत में आई। पुलिस की तेजी देख लगता नहीं कि सिर्फ अनूप सिंह की चिट्ठी इसकी वजह थी। प्राथमिकी दर्ज करने के साथ देर रात तक होटलों में छापे पड़े। पुलिस ने दिल्‍ली एयरपोर्ट और होटल से सीसीटीवी फुटेज जुटाया और कांग्रेस के प्रदेश कार्यकारी अध्‍यक्ष डॉ. इरफान अंसारी, विधायक उमाशंकर अकेला और निर्दलीय अमित यादव उसमें दिखे।

पुलिस ने रांची के होटल में रेड के बाद अभिषेक दुबे, अमित सिंह और निवारण प्रसाद को गिरफ्तार किया। उनके बयान से जाहिर हुआ कि महाराष्‍ट्र के जयकुमार बेलखड़े, बड़े व्‍यवसायी मोहित भारतीय, अनिल कुमार और अभिषेक ठक्‍कर रेड के 15-20 मिनट पहले होटल से निकल गए थे। 15 जुलाई को रांची से यहां के तीन विधायकों को दिल्‍ली ले जाने, विवांता होटल में ठहराने और बड़े भाजपा नेता से मिलवाने में बेलखड़े की ही भूमिका थी। यह भाजपा नेता पूर्व उत्पाद शुल्‍क राज्‍यमंत्री चंद्रशेख बावनकुले का भांजा बताया जाता है।

शुरू में दो दिन पुलिस कुछ भी बोलने को तैयार नहीं थी। मीडिया में खबरें आने के बाद झामुमो के महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य ने खुलकर आरोप मढ़ा। यह भी कहा कि यह कांग्रेस का अंदरूनी मामला है। बेरमो और दुमका उपचुनावों के वक्त ही भाजपा के बड़े नेता हेमंत सरकार के जाने की मियाद बताने लगे थे। 

विवाद बढ़ा तो कांग्रेस के संगठन मंत्री के.सी. वेणुगोपाल ने प्रदेश अध्‍यक्ष रामेश्‍वर उरांव और विधायक दल के नेता आलमगीर आलम से रिपोर्ट तलब की। राज्‍य प्रभारी आरपीएन सिंह ने भी यहां के नेताओं से बात की। सरकार गिराने की साजिश का विवाद शुरू होने के बाद एक आरोपी की तस्‍वीर कांग्रेस विधायक नमन विक्‍स कोंगाड़ी के साथ वायरल हुई तो उन्‍होंने सफाई दी कि उनसे भी कुछ लोगों ने कुछ माह पूर्व संपर्क किया था और मंत्री बनाने के साथ इतनी बड़ी राशि का प्रलोभन दिया था, जो जीवन भर नहीं कमा सकते।

 हॉर्स ट्रेडिंग मामले में हजारीबाग के एक सर्किट हाउस में ऐसी बातचीत भी टैप की गई कि आठ विधायकों का इंतजाम हो गया है, चार और का इंतजाम करना है। ऐसे में असंतुष्ट विधायकों को शक की नजर से देखा जा रहा है। पार्टी के भीतरी सूत्रों के अनुसार पूरे प्रकरण में कांग्रेस की हो रही फजीहत के बाद पार्टी ने अपने विधायकों के पक्ष में खड़े होने का निर्णय किया। यानी हर घटना पर चौकस निगाह रखने की कोशिश दिखती है, ताकि कांग्रेस में टूट की कोशिशों पर लगाम लगे।

रांची से नवीन कुमार मिश्र

 

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