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10 जून 2024 · JUN 10 , 2024

जनादेश ’24 पश्चिम बंगाल: ममता दीदी की दुखती रग

इस चुनाव में अपनी पार्टी के नेताओं का भ्रष्टाचार ही ममता की सबसे बड़ी चुनौती
निम्नवर्गीय महिलाओं के बीच मुख्यमंत्री ममता बनर्जी

पिछले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी जब पश्चिम बंगाल के लिए अपनी दावेदारी ठोकने की तैयारी में थी, तब पार्टी के एक वरिष्ठ विचारक ने कहा था कि सूबे की राजनीति में ममता बनर्जी के उदय ने सामाजिक-सांस्कृतिक दायरे में भद्रलोक के वर्चस्व को तोड़ कर भाजपा की राह आसान कर दी है। उनका कहना था, ‘‘अपने सेकुलर-लिबरल विचारों पर गर्व करने वाला भद्रलोक ही बंगाल में हमारी व्यापक स्वीकार्यता की राह में रोड़ा रहा है, लेकिन बनर्जी के उदय के  बाद निम्न वर्ग का सिक्का मजबूत हो चला है।’’ भद्रलोक, बंगाल में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षित अधिकांशत: उच्चवर्गीय और मध्‍यवर्गीय हिंदू सवर्णों के लिए प्रयुक्त किया जाता है, जिनका आजादी के पहले के दौर से ही यहां सामाजिक प्रभुत्व‍ रहा है। भद्रलोक के लिए संस्कृति बहुत महत्वपूर्ण आयाम रही है। इन परिवारों के बच्चों को अकसर चित्रकला, कविता, गायन, वादन, नृत्य और तमाम कलाओं में प्रशिक्षित किया जाता है। इसके उलट ममता बनर्जी निम्न मध्‍यवर्गीय परिवार से आती हैं और कलाओं के बगैर बड़ी हुई हैं। बंगाल में भद्रलोक और छोटोलोक के विभाजन में ममता दूसरे पाले से आती हैं।

अपने स्वभाव में नाटकीय और वाचाल रहीं ममता को इसलिए जात्रा का एक आदर्श किरदार माना गया था। जात्रा बांग्ला लोककला का एक रूप है जिसे भद्रलोक अच्छी नजर से नहीं देखता क्योंकि वह अभिजात्य नहीं है। इसके बावजूद बंगाल के ग्रामीण क्षेत्रों में जात्रा बहुत लोकप्रिय है। नब्बे के दशक में जब ममता को अग्निकन्या के नाम से प्रसिद्धि मिलने लगी, उस वक्त उनके विरोधी उन्हें अनौपचारिक संवादों में बोस्तिर माये (झुग्गी वाली औरत) या काजेर माशी या झी (नौकरानी) कहकर संबोधित करते थे। उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस को 1998 में उसके जन्म से ही ‘‘भद्रलोक-रहित कांग्रेस’’ माना जाता रहा।

अंतरराष्ट्रीय कोलकाता फिल्म महोत्सव में बॉलीवुड सितारों का जमघट

अंतरराष्ट्रीय कोलकाता फिल्म महोत्स‍व में बॉलीवुड सितारों का जमघट

राजनीति विज्ञानी रनबीर समद्दार के अनुसार नब्बे के दशक के दौरान और बाद में भी ममता को राजनीतिक वर्ग की उलाहनाओं और तानों से गुजरना पड़ा था क्योंकि वे उनकी नजर में ‘भद्र’ नहीं थीं। वे एक आम औरत थीं और उनमें ऐसा कुछ नहीं था, जो जन्मना श्रेष्ठता या धन-दौलत के संकेत देता हो। इसलिए बहुत से लोगों को एकदम से झटका लगा जब बांग्ला फिल्म‍स्टार देव ने 21 जुलाई, 2011 को शहीद दिवस के अवसर पर ममता की पार्टी के अहम आयोजन में अपनी एक प्रसिद्ध फिल्म का पलगु डांस किया। यह ममता के सत्ता में आने के बाद पहले कार्यकाल की बात है। आज देव तीसरी दफा लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं। इसी तरह एक अन्य बांग्ला अभिनेत्री शताब्दी‍ रॉय चौथी बार चुनावी मैदान में हैं।

ममता बनर्जी के शासन में अंतरराष्ट्रीय कोलकाता फिल्म महोत्स‍व बॉलीवुड सितारों के जमघट में तब्दील हो गया और आर्ट सिनेमा से जुड़ी अंतरराष्ट्रीय हस्तियों की चमक फीकी पड़ गई। यह महोत्सव अपनी शुरुआत से ही ऐसे समानांतर सिनेमा के प्रचार-प्रसार के लिए था, जो अकसर सिनेमाघरों में नहीं दिखाया जाता, लेकिन ममता बनर्जी की जनता तो अमिताभ बच्चन, रजनीकांत, मिठुन चक्रवर्ती, प्रसेनजित और देव की दीवानी थी। इसलिए उन्होंने इस महोत्सव को एक बॉलीवुड आयोजन में बदल डाला। अभिजात्य-विरोध उनकी राजनीति का अनिवार्य अंग रहा है। वे सार्वजनिक समारोहों में टीवी सीरियल का जिक्र करती हैं। उनकी सरकार टीवी सितारों को सम्मान देती है।  

कोलकाता के राजनीति विज्ञानी जाद महमूद और बेंगलूरू के शोधकर्ता सोहम भट्टाचार्य के एक अप्रकाशित शोध परचे के मुताबिक ममता के राज में निम्न और मध्यवर्ती जातियों के हिंदुओं की नुमाइंदगी राजनीतिक नेतृत्व में अलग-अलग स्तरों पर बढ़ी है। उनकी पार्टी ने सामान्य सीटों पर भी अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों को उतारा है। सामान्य सीटों पर सबसे ज्यादा उन्होंने मध्यवर्ती जातियों से आने वाले प्रत्याशियों को खड़ा किया है।

जाहिर है, भद्रलोक के घटते वर्चस्व और प्रभाव पर भाजपा के विचारक की उम्मीद बेजा नहीं थी, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव का परिणाम इसके उलट नतीजे लेकर आया। कोलकाता और दक्षिण बंगाल में उसके आसपास के जिले, जहां ज्यादातर सवर्ण हिंदुओं की आबादी रहती है, वहां ममता की पार्टी की स्थिति बहुत मजबूत रही। इसके उलट, राज्य के उत्तरी और दक्षिण-पश्चिमी हिस्सों पर पार्टी की पकड़ छूट गई जहां ज्यादातर पिछड़ी जातियां निवास करती हैं। इन इलाकों में भगवा पार्टी उभर कर आई। यानी, ममता को सबसे पहली चोट गरीबों की लगी, अभिजात्योंं की नहीं।

नाम न छापने की शर्त पर तृणमूल की एक राज्यसभा सांसद इसे समझाती हैं, ‘‘भद्रलोक स्थिरता चाहता है। ममता ने बंगाल को राजनीतिक स्थिरता दी है।’’

यही बात 2021 के विधानसभा चुनाव में भी देखने को मिली जब दक्षिण बंगाल के गांगीय क्षेत्र ने भाजपा को तकरीबन खाली हाथ लौटा दिया जबकि वहां भद्रलोक का वास है। अपवाद वे इलाके रहे जहां पूर्वी बंगाल से आए निम्न जाति के हिंदुओं का प्रभुत्व है। सेंटर फॉर स्टडीज इन सोशल साइंसेज, कोलकाता के राजनीति विज्ञानी मइदुल इस्लाम के मुताबिक 1980 और 1990 के दशक में लिबरल भद्रलोक ज्यादातर वाम के साथ खड़ा रहा जबकि रूढि़वादी भद्रलोक कांग्रेस के साथ रहा। बनर्जी और उनकी पार्टी का शुरुआती जनाधार शहरी और ग्रामीण ‘लंपट सर्वहारा’ वर्ग था।

वाम नेतृत्व में हमेशा मध्यवर्गीय संस्कृति-संपन्न अभिजात्यों का प्रभुत्व रहा। ये लोग पितृसत्तात्मक थे और औरतों के साथ वैसा ही बर्ताव करते थे। ममता बनर्जी इस मामले में ठीक उलट थीं।

इस्लाम कहते हैं, ‘‘उसके बाद से हालांकि उनकी पार्टी एक मास पार्टी बन चुकी है, खासकर ऐसा सिंगुर और नंदीग्राम में विस्थापन विरोधी आंदोलनों (2006-2008) के चलते हुआ। अब भद्रलोक को उनके शासन में भरोसा हो चुका है।’’ वे कहते हैं कि तृणमूल का जनाधार भले ही भद्रलोक से बाहर रहा, लेकिन बुनियादी रूप से वह शहरी और कस्बाई पार्टी रही है। ‘‘फिलहाल, भद्रलोक पर तृणमूल की पकड़ वास्‍तविक है।’’

जैसे-जैसे ‘दीदी’ का राज सामाजिक रूप से प्रभावशाली तबकों, खासकर बौद्धिकों और नागरिक समाज में मजबूत होता गया उसी क्रम में भाजपा ग्रामीण इलाकों में बढ़ती रही। लोकनीति-सीएसडीएस द्वारा 2019 और 2021 के चुनाव के बाद किए गए सर्वेक्षणों में भाजपा के उभार के पीछे हिंदुत्व के बजाय भ्रष्टाचार-विरोध का कारण गिनाया गया है। यानी संभव है कि तृणमूल के कुशासन और भ्रष्टाचार ने हिंदुत्व की राजनीति करने वाली भाजपा के लिए जगह बनाई हो।

सत्ता में आने के बाद से बनर्जी ने गरीबों के बीच अपना सामाजिक आधार कायम करने के लिए कल्याणकारी योजनाएं चलाईं जिनका लक्ष्य औरतें और किसान रहे। प्रत्यक्ष लाभ वाली योजनाएं, स्वयं सहायता समूह, मातृत्व लाभ, बीमा, वृद्धावस्था पेंशन और छात्रवृत्ति इनमें सबसे ज्याादा लोकप्रिय हैं। उन्होंने जान-बूझ कर अपनी छवि इस तरह बनाई है कि वे कॉरपोरेट हितैषी न दिखें। उनकी पार्टी भले ही भारत की सबसे पैसे वाली पार्टियों में शामिल है, लेकिन वे अब भी चमक-दमक वाले आयोजनों से दूर सादगी के साथ रहती हैं। 2021 में उन्होंने पूर्वी मिदनापुर में अपनी पार्टी के एक नेता के भव्य मकान में घुसने से इनकार कर दिया था।

उनसे उलट, तृणमूल के ज्यादातर नेता अपनी संपन्नता का प्रदर्शन करने के आदी रहे हैं- भव्य‍ और आलीशान मकानों से लेकर महंगी कारें हों या घड़ी। इसलिए उनकी सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के वांछित लाभार्थी इन नेताओं के रोजमर्रा के भ्रष्टाचार से निराश चल रहे हैं।        

उत्तरी 24 परगना के हावड़ा टाउन में एक राशन की दुकान चलाने वाले पिंटू मालो पूछते हैं, ‘‘दीदी तो बहुत नहीं बदली हैं, लेकिन उनका अपनी पार्टी के नेताओं पर कोई नियंत्रण नहीं है क्या? उन्हें नहीं पता है क्या कि हमें कैसे-कैसे नवाबों और जमींदारों से रोज निपटना पड़ता है?” यहां के विधायक ज्योतिप्रिय मल्लिक तृणमूल सरकार में मंत्री थे और असरदार नेता भी थे। उन्हेंं सार्वजनिक वितरण प्रणाली में कथित घोटाले के आरोप में सीबीआइ ने गिरफ्तार कर लिया। ममता बनर्जी की इस सरकार में पार्थ चटर्जी के बाद मल्लिक दूसरे रसूखदार नेता हैं, जो जेल में हैं।

जिस तरह का व्यापक और जमीनी भ्रष्टाचार यहां दिखता है, संभव है उसकी जड़ें पार्टी की पैदाइश में ही हों। वाम दलों को सत्ता से हटाने की चाहत रखने वाला हर शख्स ममता के साथ आ गया था। जरूरी नहीं कि उसकी वजह वैचारिक ही रही हो, सबके अपने-अपने हित थे। उनके सबसे बड़े अंधभक्त ही सबसे करीबी सहयोगी बन बैठे। 2006 से 2008 के बीच चले विस्थापन विरोधी आंदोलन से उनकी छवि गरीब समर्थक और अमीर विरोधी की बन गई। फिर उन्होंने जो भू-नीति बनाई, उससे यह तय हो गया कि पार्टी को कॉरपोरेट का बहुत समर्थन मिलने वाला नहीं है। लिहाजा, पार्टी को खर्चों के लिए अनौपचारिक तंत्र पर ही टिके रहना पड़ा।

महमूद और भट्टाचार्य के शोध में ममता बनर्जी के उदय के बाद राजनीतिक प्रतिनिधियों की आर्थिक पृष्ठभूमि में आए बदलाव भी दर्ज किए गए हैं। वाम दलों के राज में वेतनशुदा लोग, डॉक्टर, वकील, सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता

जैसे स्वरोजगार रत लोग राजनीतिक प्रतिनिधि हुआ करते थे। तृणमूल के राज में इनकी जगह व्यापारियों ने ले ली।

लेखकद्वय इस ‘व्यापारी तबके’ को ‘गैर-कॉरपोरेट बनिया वर्ग’ मानते हैं, जो होटल, चावल मिल, ट्रांसपोर्ट, निर्माण और रियल एस्टेट जैसे छोटे-मोटे धंधे करता है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञानी द्वैपायन भट्टाचार्य कहते हैं कि टीएमसी के नेताओं ने ‘गैर-कॉरपोरेट किस्म के क्रोनी पूंजीवाद’ को पैदा किया है। यह गैर-कॉरपोरेट पूंजी ज्यादातर छोटे स्तर के उत्पादन और सेवा उद्योगों में लगी हुई है, तो इसका मुनाफा कॉरपोरेट के मुकाबले कहीं ज्यादा संख्या में लोगों के बीच बंट जाता है।

अब 2024 का आम चुनाव समाप्ति की तरफ है, तो तृणमूल को अपने नेताओं के भ्रष्टाचार का मुद्दा परेशान किए हुए हैं। भट्टाचार्य कहते हैं, ‘‘तृणमूल का वित्तीय ढांचा राजनीति और मुनाफे के घालमेल से बना है। कॉरपोरेट किस्म का न होते हुए इसमें मुनाफे को ज्यादा से ज्यादा लोगों के बीच बांटने की जरूरत शर्तिया होती है।’’ वे कहते हैं कि कॉरपोरेट याराने वाले राज में राजनीतिक सहयोग सीधे राज्य के शीर्ष नेतृत्व से लिया जाता है, लेकिन गैर-कॉरपोरेट ढांचे में यह राजनीतिक सुरक्षा भारी संख्या में मौजूद लाभार्थियों की ओर से मिलनी होती है। इसलिए हो सकता है कि स्थानीय व्यापार के तंत्र तृणमूल के राजनीतिक प्रभुत्व को जमीन पर कायम रखने में काम आ जाएं, लेकिन ऐसा ढांचा अबाध भ्रष्टा‍चार का स्रोत भी हो सकता है।   

इसका ज्वलंत उदाहरण संदेशखाली है, जहां स्थानीय नेताओं के व्यापारिक हितों के चलते बड़े पैमाने पर जमीन हड़पी गई है। बंगाल के पिछड़े इलाकों में लोग बहुत जागरूक और सशक्त नहीं हैं, तो स्थानीय नेता अकसर अपने भ्रष्टाचार को वैध मानकर चलते हैं। यही परिस्थिति आज ममता बनर्जी के सामने चुनौती बनकर खड़ी हो गई है। जिस नेता को सत्य का प्रतीक माना जाता था, आज वह सरकारी भर्तियों और कल्याणकारी योजनाओं में हुए सिलसिलेवार भ्रष्टाचार के आरोपों पर अपनी ही पार्टी के लोगों और प्रशासन का बचाव करने में जुटी हुई हैं। चाहे शहरी हो या ग्रामीण क्षेत्र, स्थानीय स्वशासन या राज्य प्रशासन, हर स्तर पर लोगों को भ्रष्टाचार की शिकायत है। हालत यह हो गई है कि विरोधी उन्हें ‘चोरों की रानी’ कह कर बुला रहे हैं। ममता बनर्जी के कठोर आलोचक और बंगाल कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी सख्ती से जोर देकर पूछते हैं, ‘‘तृणमूल के नेता हर प्रशासनिक कदम को ममता बनर्जी से प्रेरित बतलाते हैं। फिर सोच कर देखिए, ऐसा कैसे हो सकता है कि उन्होंने भ्रष्टाचार को प्रेरित न किया हो?”

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