युवाओं में उर्दू शायरी और मुशायरों की लोकप्रियता के सिर चढ़ कर बोलने पर बात करने से पहले इक़बाल के संस्मरण का यह अंश देख लें। वे कहते हैं, “उर्दू शायरी को इन मुशायरों ने खोया। मुशायरों में भले-बुरे सब शरीक होते हैं और दाद (प्रशंसा) को शेर की अच्छाई और बुराई की कसौटी समझा जाता है। इसका नतीजा यह है कि उर्दू शायरी में अवाम (जन-साधारण) की रुचि को अपना रहनुमा (पथ-प्रदर्शक) बना लिया...,” चिराग़ हसन हसरत, जिन्होंने यह संस्मरण लिखा है, जिज्ञासा प्रकट करते हुए कहा, “इन मुशायरों ने तो उर्दू ज़बान को बहुत फ़ायदा पहुंचाया है।” इसके उत्तर में इक़बाल ने कहा, “ज़बान को फ़ायदा पहुंचाया और शायरी को ग़ारत कर डाला।” अल्लामा इक़बाल की दोनों ही बातों से इंकार संभव नहीं है। विभाजन के बाद उर्दू का जो हाल हुआ वह सबको मालूम है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि अनेक मुशायरे मनोरंजन मात्र या परिचित भावनाओं को जनसाधारण की अपेक्षित भाषा में अदा करने ही को शायरी मान लिया जाता है। प्रयोग और परंपरा पर जनसाधारण की पसंद हावी है। इस बात को भुला दिया जाता है कि अखबार की कतरन और इल्म की उतरन शायरी नहीं होती।
उर्दू शायरी मुशायरों से निकल कर आम लोगों के बीच आ गई या युवाओं में लोकप्रिय हो गई, इस पर बात करने के लिए थोड़ा तफ़्सील में जाना होगा। रेख्ता (शाब्दिक अर्थ उर्दू का पुराना नाम, जो एक काव्य-विधा भी रही है।) जब रेख्ता उर्दू बन कर तख़्तनशीन हुई तो उसका अवाम से नाता टूट गया। चौंकिए मत, उर्दू शुरू से ही शहर और शहर में भी संभ्रांत लोगों की भाषा रही है। उर्दू के सब से बड़े शायर 'मीर' दिल्ली से फ़ैज़ाबाद तक के सफर में अपने सहयात्री से इसलिए वार्तालाप नहीं करते कि ऐसा करने से उनकी ज़बान ख़राब हो जाएगी। लेकिन दूसरी तरफ़ उनका कहना है कि,
“शेर मेरे हैं सब ख़वास (अभिजात्य) पसंद
पर मुझे गुफ़्तगू अवाम से है”
यह संप्रेषण के संकट से अधिक परंपरा और स्वभाव का विरोधाभास है।
मीर के बरसों बाद दाग़ का दावा है कि,
“गैरों का इख़्तिराओ*-तसरुफ़* ग़लत है
'दाग़' उर्दू ही वो नहीं जो हमारी ज़बां नहीं।”
प्रारंभ में मुशायरे शायरों की अपनी गोष्ठी थी, फिर इस में विद्वजन भी शामिल हुए, फिर इसका संबंध बादशाह के दरबार या शहर के रईसों के घर से हो गया, जहां उनकी पसंद और नज़दीक के लोग भी शामिल होने लगे। यहीं से श्रोताओं की पसंद दाद की शक्ल में पाना, शायरों का उद्देश्य हो गया। फब्तियां और फ़िक्रे कसे जाने लगे। मुशायरों की तारीख़ देखें तो मालूम होगा कि वे 'अखाड़े' हो गए। ख़ैर, तो शेर की परख का पैमाना सुनते ही दिल में उतर जाना और ख़ुद मुंह से वाह निकलना ठहरा। अर्थात शायरी का उद्देश्य अपने अनुभव से जानना नहीं बल्कि, अन्य माध्यमों से जाने हुए को बताना ही उसका मकसद ठहरा।
इस तरह तीन वर्ग हो गए- पहला खास, अभिजात, दूसरा आम जो लिखने-पढ़ने वाले हैं और तीसरे अवाम (जन साधारण)। उर्दू में एक प्रसिद्ध उक्ति है, “ग़लतुलआम (आम में गलती), फ़सीहुल कलाम है” यानी भाषा की आम लोगों द्वारा की हुई ग़लती तो शायरी का लालित्य है। जैसे, कुफ़्ली से कुल्फ़ी हो जाना लेकिन ये ग़लतुलआम है, अवाम नहीं। आम अर्थात पढ़े-लिखे लोगों की गलती। इसमें शक नहीं कि शायरी या मुशायरे संभ्रांत लोगों की सभा से निकल कर आम से ज्यादा अवाम में आ गए हैं, लेकिन इसमें मनोरंजन, भावनाओं को भड़काने और बाज़ारवाद भी शामिल हो गए हैं।
विभाजन के बाद एक समुदाय के लिए तो उर्दू अछूत ठहरी। वहीं दूसरे समुदाय ने भी लंबे समय तक, किसी न किसी कारणवश उससे कतराने में ही अपनी भलाई समझी। लेकिन पंजाब (पाकिस्तान) से आने वाले शरणार्थी तो उर्दू ही जानते थे। उनके कारण भी उर्दू जानने वालों ने उर्दू साहित्य का देवनागरी में लिप्यांतरण और प्रकाशन का काम प्रारंभ कर दिया जिसे नागरी के पाठक वर्ग ने न सिर्फ़ स्वीकार कर लिया बल्कि उसकी प्रशंसा भी की। व्यावसायिक रूप से भी यह प्रयोग सफल रहा। इसलिए भी कि अब तक वे जिस शायरी को अन्य माध्यमों से वे सुनते आए थे अब वह आसानी से बाज़ार में उपलब्ध थी। नागरी के माध्यम से पैदा हुए उर्दू प्रेम और उर्दू को अछूत समझने वाले भी उर्दू को नागरी लिपि में अपनाने का मशविरा देने लगे। यह सलाह उचित थी कि अनुचित, इसका निर्णय तो समय ने कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि विभाजन के बाद पैदा और परवान चढ़ने वाली पीढ़ी को इस लिप्यांतरण से अपनी साझी सांस्कृतिक धरोहर और अतीत को नज़दीक से जानने-समझने का अवसर प्राप्त हुआ। दूसरा फ़ायदा यह हुआ कि उर्दू भी एक बड़े पाठक-समूह की प्रिय भाषा हो गई। अनेक उर्दू लेखक-शायर हिंदी पाठक के प्रिय लेखक हो गए और अब तो एक ही संग्रह के अनेक संस्करण सामने आने लगे हैं। लिप्यांतरण इतना लोकप्रिय हो गया है अब तो कि फ़ारसी के क्लासिक से लेकर ग़ालिब और इक़बाल की फ़ारसी शायरी तक देवनागरी में उपलब्ध है। अपने व्यक्तिगत अनुभव से मैं यह कह सकता हूं कि देवनागरी में उर्दू की ऐसी किताबें उपलब्ध हैं, जो उर्दू में आसानी से नहीं मिलती। मेरे विचार से यह बहुत बड़ा हुआ फ़ायदा है।
उर्दू शायरी तो हर दौर के युवा वर्ग में आकर्षण का केंद्र रही है। अस्वीकृति और स्वीकृति, परिवर्तन और प्रेम युवा वर्ग की पहचान भी है और परंपरा भी। ये ऐसे सपने हैं जिनका जिज्ञासा से गहरा लगाव है। शायरी एक ही समय में सपने को सच और सच को सपना बनाने के हुनर का नाम तो है लेकिन इसका शाब्दिक अर्थ है, प्राप्त किया हुआ ज्ञान। ऐसा ज्ञान जिसकी पहचान और परख अन्य माध्यमों से मुमकिन ही नहीं है। किसी सृजन में अपनी संवेदना का साम्य और किसी अभिव्यक्ति में अपनी अनुभूति का अक्स पा कर प्रसन्न होना सामान्य बात है। बहुत मुमकिन है कि उर्दू शायरी में आज के युवाओं को अपनी इच्छाओं की अभिव्यक्ति मिलती हो।
तकनीक ने भी इसे थोड़ा तो बढ़ाया ही है लेकिन गूगल से मिली जानकारी की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता संदेहास्पद है। युवाओं को ही क्यों हम सभी को ग़ज़ल के शेर की कोटेबिलिटी आकर्षित करती है। संसद से सड़क तक शेर सुनाई देते हैं। लेकिन मुझे यह कहना है कि तालीम के साथ तर्बियत (शिक्षा के साथ प्रशिक्षण) आवश्यक है। मिसाल के लिए उर्दू में मेरा और तेरा को मिरा और तिरा भी लिखा-पढ़ा जाता है। नागरी में अक्सर ऐसी बातों का ध्यान नहीं रखा जाता। जिससे शेर की रवानी में फर्क आ जाता है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि शायरी-ग़ज़ल-अभिव्यक्ति के स्तर पर कहने से ज्यादा न कहने का, बताने से ज़्यादा छुपाने का हुनर है। जानिसार 'अख्तर' के इस शेर की तरह-
लहजे का करिश्मा है कि आवाज़ का जादू
वो बात भी कह जाए मिरा दिल भी दुखे ना
और उसका प्रभाव फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के अनुसार-
वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था
वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है
तीसरी बात यह है कि उर्दू शायरी न सिर्फ ग़ज़ल है न सिर्फ़ साक़ी और शराब, न सिर्फ मुहब्बत और इंकलाब। इसके लिए देवनागरी में उन शायरों का प्रकाशन ज़रूरी है जिनसे उर्दू कविता की पहचान है। आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो उर्दू शायरी को ग़ज़ल और ग़ज़ल को साक़ी-शराब तक सीमित समझते हैं। उर्दू में नज्म़ भी है। उस पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जाता। अस्ल में हमारे मिजाज को आप्त वाक्य (कोटेबल) ही पसंद आते हैं। हमें कैफ़ीयत रास कम आती है क्योंकि उसके लिए पाठकीय तैयारी जरूरी है। अन्य भारतीय भाषाओं में छंद का स्थान लय ने ले लिया है। उर्दू शायरी में ग़ज़ल के कारण आज भी छंद का महत्व है। नज़्म में लय होती है, जिसे बरतने में छंद से अधिक मेहनत और प्रतिभा चाहिए। रही पुराने शायरों को ढूंढ कर पढ़ने की बात, तो युवाओं को यह जानना होगा कि पुराने शायरों के यहां शराब रूपक है, साक़ी, गुल और बुलबुल की आड़ में उन्होंने अपने समय का बयान किया है। ग़ज़ल का स्वभाव यही है।
* इख़्तराअ- अविष्कार
* तसर्रुफ़- परिवर्तन
(ख्यात कवि, आलोचक और साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता)
(आकांक्षा पारे काशिव से बातचीत पर आधारित)