प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 12 मई को जब पटना में रोड शो किया, तो नीतीश कुमार कमल का निशान थामे उनके साथ खड़े थे। बिहार के मुख्यमंत्री पर विरोधियों ने मोदी का पिछलग्गू होने का आरोप लगाया तो उनके समर्थकों को भी वे बुझे-बुझे से नजर आए। किसी समय देश भर में प्रधानमंत्री पद के मजबूत उम्मीदवार के रूप में नीतीश देखे जाते थे, लेकिन बिहार की इस चुनावी लड़ाई के केंद्र में वे नहीं हैं। जहां एनडीए की लड़ाई की कमान स्वयं मोदी के हाथों में है, विपक्ष ने तेजस्वी यादव की अगुआई में अपनी ताकत झोंक दी है। राजनैतिक हलकों में नीतीश को ऐसे नेता के तौर पर देखा जा रहा है जिनका बेहतरीन दौर पीछे छूट चुका है। इसका कारण सियासी से अधिक उनका गिरता हुआ स्वास्थ्य बताया जा रहा है। तो क्या नीतीश इस चुनाव में अप्रासंगिक हो गए हैं?
उनके विरोधियों की मानें तो नीतीश अब वे नीतीश नहीं हैं जिन्होंने भाजपा की कमान मोदी के हाथों में जाने की आशंका को देखते हुए 2013 में एनडीए से अपना 17 वर्ष पुराना नाता तोड़ लिया था। न ही जनता के बीच नीतीश की वह लोकप्रियता रही जिसके लिए वे जाने जाते थे। पिछले आठ-नौ वर्षों में कभी भाजपा, कभी राष्ट्रीय जनता दल के साथ गलबहियां करने के कारण उनकी विश्वसनीयता घटी है। इसके बावजूद नीतीश को चुका हुआ समझना जल्दबाजी होगी। पिछले एक दशक में उनके राजनैतिक करियर के तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद बिहार में मतदाताओं का एक बड़ा तबका अब भी दिखता है जो न भाजपा के कसीदे पढ़ता है, न ही राजद का हिमायती है। यही वह मतदाता वर्ग है जिसने नीतीश को बिहार की सत्ता के शीर्ष पर दो दशक से अधिक तक बने रहने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसमें न सिर्फ अतिपिछड़ा और कुर्मी-कोइरी जैसी ओबीसी जातियों के मतदाता हैं, बल्कि तमाम जातियों के बंधन को तोड़कर आगे निकल कर आई महिलाओं का मतदाता वर्ग भी है जो उनके पीछे खड़ा है। यहां तक कि पसमांदा सहित प्रबुद्ध मुसलमानों का भी एक वर्ग उनके द्वारा अल्पसंख्यकों के हित के लिए किए गए विकास कार्यों के लिए उनके पक्ष में वोट देता रहा है, भले ही उनका गठबंधन भाजपा के साथ रहा हो।
यही कारण है भाजपा हमेशा उन्हें अपने साथ लाने की जुगत में रही है। नीतीश जिस गठबंधन के साथ रहे, उसी की जीत हुई है। 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश ने जब लालू यादव और कांग्रेस के साथ हाथ मिलाया तो उनके महागठबंधन को प्रचंड बहुमत मिला। वही नीतीश जब भाजपा के साथ 2019 के लोकसभा चुनाव लड़े तो एनडीए ने प्रदेश ने 40 में से 39 सीटें अपने कब्जे में कर लीं। हर चुनाव में उनकी पार्टी जदयू को 15 से 20 प्रतिशत वोट मिलते रहे हैं, चाहे वे किसी गठबंधन के साथ हों। यही कारण है कि भाजपा ने नीतीश के साथ तमाम तल्खी को भुलाकर इस बार फिर गठबंधन किया और लालू प्रसाद, तेजस्वी या राजद का कोई अन्य बड़ा नेता उन पर सीधे प्रहार करने से बचता है।
इसमें शक नहीं कि नीतीश ने चुनावी मैदान में अपने ऊपर भाजपा और राजद दोनों की निर्भरता का फायदा अपनी सियासी जमीन को मजबूत करके उठाया है। भाजपा के साथ उनकी चुनावी जोड़ी क्या इस चुनाव में भी महागठबंधन को पटकनी देगी और ‘नीतीश फैक्टर’ एनडीए के लिए फिर से तुरूप का इक्का साबित होगा, यह जानने के लिए 4 जून का इंतजार करना पड़ेगा।