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3 मार्च 2025 · MAR 03 , 2025

विधानसभा चुनाव ’25 आवरण कथाः दिल्ली से निकलती सियासत

आम आदमी पार्टी के दिल्ली में चुनावी पराभव से क्या राष्ट्रीय राजनीति निकलेगी, आज सबसे मौजूं सवाल यही होना चाहिए
नई रणनीति क्याः दिल्ली में इंडिया ब्लॉक की बैठक के दौरान तमाम नेता, 5 जून 2024

दस साल की सत्ता कहिए, या चाहें तो उसमें 49 दिन और जोड़ लीजिए। इतने दिन बाद आम आदमी पार्टी (आप) सरकार की विदाई खास हो-हल्‍ले और ‘ऐतिहासिक’ जैसे उपमाओं की बानगी नहीं होनी चाहिए थी। न ही दिल्‍ली जैसी छोटी और बमुश्किल आधी-अधूरी सरकार के लिए इतना हंगामा बरपा होना चाहिए था। फिर, ऐसे दौर में जब लोकतंत्र, जनादेश, चुनाव प्रक्रिया पर तरह-तरह के सवाल, आरोप-प्रत्‍यारोप उठ रहे हों, मनमाफिक निर्मित जनादेश जैसे पद गंभीर चर्चा में हों, चुनावी राजनीति के वादों में कोई फर्क न दिखता हो, महज दो प्रतिशत वोटों का फासला जनता के मूड का स्‍पष्‍ट नहीं, बल्कि उलझन-भरा संदेश ही देता है। यह तो, दिल्‍ली की अहमियत या कहें प्रतीकात्‍मक अहमियत है, जो उसे राजनीति में कुछ ऊंचे पायदान पर ला खड़ा करती है। या कहें दिल्‍ली में केंद्रीय सत्ता की मौजूदगी के चलते यहां से निकली राजनैतिक धाराओं की गूंज देश भर में सुनाई पड़ने लगती है।

मौजूदा संदर्भ में ही देखें तो 2014 के बाद बदली सियासी फिजा की पृष्‍ठभूमि दिल्‍ली में 2011 के अन्‍ना आंदोलन ने तैयार की और आम आदमी पार्टी एक नई सियासी धारा के वादे के साथ उभरी, जिससे वह अपनी तमाम खामियों-कमजोरियों के बावजूद देश की सियासत में एक अहम पायदान पर खड़ी हो गई। तो, अब उसके इस चुनावी पराभव से क्‍या राजनीति निकलेगी, आज सबसे मौजूं सवाल यही होना चाहिए।

शुद्ध चुनावी राजनीति के पैमाने पर आंकें तो आप इतनी भी कमजोर नहीं हुई है। दिल्‍ली में उसका मत प्रतिशत 2020 के राज्‍य चुनाव के मुकाबले तकरीबन 10 प्रतिशत गिरकर भी 43 फीसदी पर कायम है और पंजाब में भारी बहुमत की उसकी सरकार है। सत्ताइस साल बाद दिल्‍ली की सत्ता में लौटी भाजपा की सीटें भले दोगुनी से ज्‍यादा लगें, मगर वोट प्रतिशत आप से सिर्फ दो फीसदी ज्‍यादा, करीब 45 ही है। ये सब कहानियां अगले पन्‍नों पर विस्‍तार से बताई गई हैं।

लेकिन सोचिए, अगर चुनाव आयोग केंद्रीय बजट के पहले वोट करवा देता या अपने वादे के मुताबिक बजट में दिल्‍ली के वोटरों को लुभाने के किसी कदम पर रोक लगा देता (खासकर दिल्‍ली में लगभग 60 प्रतिशत से ज्‍यादा आबादी के मद्देनजर मध्‍य वर्ग को दी गई कर रियायत); अगर उपराज्‍यपाल ने महिलाओं को नकद भत्ता देने के आप सरकार के फैसले पर अमल से रोक नहीं लगाई होती जैसा मध्‍य प्रदेश, महाराष्‍ट्र और झारखंड वगैरह में किया गया; मतदाता सूचियों में नाम काटने और जोड़े जाने के आरोपों की पड़ताल होती; आप और कांग्रेस में सीटों का तालमेल हो जाता; तो आप के लिए 2-3 फीसदी वोटों का फासला तय कर पाना मुश्किल न होता। ऐसे में, जनादेश कुछ और ही दिखता। वैसे भी, वोट प्रतिशत और सीएसडीएस-लोकनीति के मतदान बाद सर्वे का अंदाजा है कि निचले तबके खासकर दलित, मुस्लिम, निम्‍न मध्‍यवर्ग और महिला वोटों में आप का समर्थन कायम है या उसमें बिखराव कम हुआ है।

तो, सामान्‍य परिस्थितियों में ये नतीजे दस वर्ष की सत्ता की थकान की स्‍वाभाविक परिणति माने जा सकते थे, लेकिन इसमें ‘ऐतिहासिक’ क्‍या है, जिसका जिक्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्‍ली की जीत के बाद भाजपा मुख्‍यालय में पार्टीजनों से किया? यहीं से उस सियासत का दरवाजा खुलता है, जो अगले दिनों में देश में दिख सकती है। दरअसल दिल्‍ली से भले 2014 से लेकर 2019, 2024 तीनों लोकसभा चुनावों में सभी सात सीटें भाजपा जीतती रही हो, मगर आप या उसके नेता अरविंद केजरीवाल भाजपा-विरोधी धुरी का अहम हिस्‍सा रहे हैं। उनकी ताकत घटने या आप के पराभव का सीधा फायदा भाजपा या उसके शीर्ष नेतृत्‍व को मिल सकता है। शायद एक हद तक वोट बैंक के मामले में भी क्‍योंकि केजरीवाल खासकर बाद के वर्षों में उसी धार्मिक आधार को अपनी राजनीति में आगे रखते आए हैं जिस पर भाजपा अपने हिंदुत्‍व का दावा करती है। दूसरे, भ्रष्‍टाचार के मुद्दे और डिलिवरी पॉलिटिक्‍स में भी केजरीवाल भाजपा के शीर्ष नेतृत्‍व को चुनौती देते हैं, जिस पर भाजपा के शीर्ष नेतृत्‍व की छवि गढ़ी गई है और देश में एक कथित लाभार्थी वर्ग तैयार करने का नैरेटिव चलाया जाता है।

इससे बढ़कर, भाजपा को चुनौती देने वाले इंडिया ब्‍लॉक पर गौर करें जिसने 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को 240 सीटों तक सीमित कर दिया था। अगर इंडिया ब्‍लॉक के एक अहम सूत्रधार बिहार के मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार ऐन चुनाव के पहले पाला नहीं बदलते तो नतीजों का अंदाजा लगाया जा सकता है। शायद इसी मायने में केजरीवाल की हार को भाजपा नेता ‘ऐतिहासिक’ बता रहे हैं। यानी इंडिया ब्‍लॉक में जितना बिखराव होगा, भाजपा को उतनी शह मिलेगी। मोदी ने अपने उसी भाषण में इसका संकेत भी दिया, ‘‘क्षेत्रीय दलों खासकर समाजवादी पार्टी (उत्तर प्रदेश), राजद (बिहार) और दूसरे दलों को सावधान हो जाना चाहिए क्‍योंकि कांग्रेस उनके एजेंडे चुराकर अपना खोया जनाधार वापस पाने की फिराक में है।’’

भाजपा या मोदी जानते हैं कि विपक्षी नेताओं की ताकत घटाए या उसमें टूट-फूट हुए बगैर समूचे देश में दबदबा कायम करना आसान नहीं है। इसका बड़ा उदाहरण लोकसभा चुनाव ही है जिसमें अयोध्‍या में राम मंदिर का बहुप्रचारित और तड़क-भड़क वाला उद्घाटन भी ज्‍यादा काम नहीं आया। सो, लोकसभा चुनाव में जिन-जिन राज्‍यों से उन्‍हें चुनौती मिली, वहां-वहां विधानसभा चुनावों में येन-केन प्रकारेण विपक्षी ताकतों की मजबूती घटाने से ही उनका वर्चस्‍व बना रह सकता था। हरियाणा, महाराष्‍ट्र और अब दिल्‍ली के चुनाव इसकी मिसाल हैं। हरियाणा और महाराष्‍ट्र में लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव के नतीजों के फर्क को तो सामान्‍य राजनैतिक पैमाने से आज भी समझा नहीं जा सका है। अब दिल्‍ली में केजरीवाल संकट में आ गए हैं तो पंजाब की आप सरकार को लेकर भी कयास जारी हैं। अगली स्‍टोरी में उसका वृत्तांत देखें।

इसी तरह लोकसभा चुनावों और आज देश के सियासी नक्‍शे पर जरा गौर कीजिए। तब उसमें महाराष्‍ट्र, राजस्‍थान, हरियाणा, पंजाब, जम्‍मू-कश्‍मीर, उत्तर प्रदेश, बंगाल और दक्षिण के राज्‍यों में अलग रंग दिखेंगे। अब इन राज्‍य चुनावों के बाद सियासी नक्‍शे में उत्तर में जम्‍मू-कश्‍मीर, पंजाब वगैरह को छोड़कर पूरब में बंगाल और दक्षिण के तेलंगाना, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु ही दूसरे रंग के दिखेंगे। बाकी समूचा विस्‍तार भाजपा या एनडीए सरकारों के रंग में रंगा दिखता है।

यह दबदबा इंडिया ब्‍लॉक के लिए गंभीर चुनौती है, जिसके लिए लोकसभा चुनावों में जहां-जहां दरवाजे खुले थे वे विधानसभा चुनावों में बंद होते जा रहे हैं। शायद यही वजह है कि दिल्‍ली में कांग्रेस और आप में तालमेल न बनने या खटास उभर आने की हालत में सपा के अखिलेश यादव, तृणमूल कांग्रेस के शत्रुघ्‍न सिन्‍हा आप के बुलावे पर प्रचार में आए। अखिलेश यादव अयोध्‍या-फैजाबाद संसदीय क्षेत्र की मिल्‍कीपुर उपचुनाव में हार से समझ गए होंगे कि आगे की राह आसान नहीं है। कांग्रेस की दिल्‍ली में वोट हिस्‍सेदारी मामूली दो प्रतिशत ही बढ़ी, मगर राहुल गांधी को भी यह एहसास शिद्दत से होगा कि आगे की लड़ाई आसान नहीं है।

इसी साल बिहार में चुनाव हैं। अगर इंडिया ब्‍लॉक  को भाजपा के वर्चस्‍व को चुनौती देनी है, तो उसे नए सिरे से रणनीति बनानी पड़ सकती है। फिलहाल तो यही लगता है कि भाजपा अपनी रणनीतियों और नैरेटिव में फिर कारगर होती जा रही है। इसीलिए दिल्‍ली के चुनावी नतीजों से निकलती सियासत देश में नए रंग की इबारत लिखती लग रही है।

 

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