मेरे पिता हरिहर प्रसाद चौधरी ‘नूतन’ गीति परंपरा के कवि थे। गीत-नवगीत के क्षेत्र में उनका अपना जलवा था। उनके गीतों में भावुकता नहीं, जीवन की सच्चाइयां थीं। कवि सम्मेलनों के लिए उनका झोला-झंडा हमेशा तैयार रहता था।
मेरे लिए वे पिता के साथ कवि-शिक्षक-दोस्त-रसोइया... सब थे। उन्हीं के गीतों को सुनते हुए मैं बड़ा हुआ और मेरे भीतर एक कवि का जन्म हुआ। मैंने अपने नाम के आगे उन्हीं का कवि नाम ‘नूतन’ लगा लिया और कविताएं लिखने लगा।
किसानी जीवन के बारे में जो गीत लिखा उन्होंने, उसकी अनुगूंज मेरे भीतर आज भी बजती हैः
बैल बिना घर जिसका टूटा
मैं तो उस किसान का बेटा
मैं बीमार पड़ा था घर में
बैल गिरा बाहर बथान में
उधर महाजन तौल रहा था
नाज खड़ा होकर दलान में
उनका जीवन जितना सहज था, उतनी ही असहज रही उनकी मृत्यु। कैंसर से हुई मृत्यु के कारण उनका अंतिम संस्कार परंपरागत तरीके से नहीं हो सका। जिस समाज के लिए उन्होंने कविताएं लिखीं, वही उनके लिए निर्मम बन गया। उन्हें जल-समाधि दी गई। यह स्थिति मेरे लिए बेहद त्रासद थी। मुझे हमेशा यह एहसास होता था कि उनका अंतिम संस्कार अधूरा रह गया है। श्मशान का वह दृश्य बार-बार सपने में आता और मन को एक मायूस इलाके में धकेल कर अहले सुबह लौट जाता किसी बियावान में। इसी इलाके में विचरते हुए पिता की स्मृति को संजोने का या यूं कहिए कि फिर से उनके श्राद्धकर्म आयोजित करने का भावुक खयाल आ गया एक दिन।
उनके नाम पर पुरस्कार बांटने की योजना चलाऊं, जयंती-पुण्यतिथि पर विराट कवि सम्मेलन करवाऊं या मूर्ति बिठाकर गांव में हर साल मुखिया जी से माल्यार्पण करवाऊं...? ऐसे ही सपने को साकार करने में सालों लगा रहा। कुछ किया, बहुत कुछ छूट गया।
पिताओं की खोज में अंतरात्मा ने फिर पुकारा एक दिन, मूर्ख! बाप-बाप कर रहे हो, तुम्हारे बाप जैसे अनेक बाप थे और हैं इस दुनिया में। घर की चौखट लांघ बाहर निकल। देख उन पिताओं की बोलती-बतियाती छवियां। कान लगाकर सुन उन सब की आवाजें।
इसी ललकार पर पिताओं की खोज में पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण की प्रदक्षिणा में निकल पड़े मेरे पांव। पिताओं के हजारों रूप-अरूप को देखते, नित नए-नए अनुभवों से लैस होकर पिता की स्मृति में विभिन्न भाषाओं में पिता पर लिखी गई कविताओं का अनुवाद का एक किताब बनाना सुखद लगा।
अधिकतर हिंदी कवियों के साथ मेरे अनुभव वैसे भी सुखद नहीं रहे हैं। अपने मठ, मेले में मस्त ऐसे कवियों के कोप-प्रकोप से बचते हुए सीधे ओडिशा पहुंचा। बचपन के भोर की मीठी नींद में समा जाता था जिनके घरघराते गले का प्रार्थना-स्वर, उसी पिता के पुत्र सीताकांत महापात्र के पास। ठीक दीवाली की रात वे अपने पिता की स्मृति से कानाफूसी करते मिल गएः
आज फिर दीवाली आयी है
और तुम नहीं हो बरामदे में
तुम पूर्वज हो और अब से तुम्हें
अंधेरे में ‘आओ’
उजाले में ‘जाओ’ कहना होगा
उत्सव और त्योहार के समय अपने पिता की स्मृति से इस तरह का मार्मिक संवाद एक संवेदनशील कवि ही कर सकता है। ठीक ऐसी ही संवेदनशीलता मलयालम कवि के. सच्चिदानंदन की स्मृति को टटोलती हुए मिली। वे हमें उस जगह पर ले गए जहां उनके पिता की आरामकुर्सी लगती थी कभी। अब न उनके पिता हैं और न ही उनकी वह आरामकुर्सी। बावजूद एक गंध बची हुई थी वहांः
मेरे पिता जहां बैठते थे
पुरातन आरामकुर्सी पर
वहां बची रह गई है
एक निशानी और एक मायूसी
जिनसे गंध आती है
चंदन और पसीने की
चंदन और पसीने की गंध से अपने पिता की पूरी तस्वीर के. सच्चिदानंदन ही बना सकते हैं।
प्रायः सभी कवि पिता को लेकर कृतज्ञता का भाव रखते हैं। अपने जीवन में उनकी भूमिका को शिद्दत से स्वीकार करते हैं, परंतु इस अर्थःयुग में अहिंदी भाषाओं में कविता लिखने का जो आवेग है, वह हिंदी भाषा में अपेक्षाकृत कम है। इस आवेग का सुंदर उदाहरण बंगाली टोले में विचरते हुए मिला मान्य कवि सुबोध सरकार के पिता की छवि निहारते वक्तः
मेरे पिता सबसे सुंदर थे शरणार्थी शिविर में
एक बादल की तरह उन्होंने सीमा को पार किया
हर बादल मेरे लिए सुंदर है।
उर्दू के दिग्गज शायर निदा फाजली की नाभि से निकलते अल्फ़ाज की मार्मिकता देखिए। दूर देश के कब्रिस्तान की ओर पिता का जनाजा जा रहा है और औलाद वीजा पासपोर्ट न मिलने के चक्कर में उनकी मैय्यत में शामिल होने से महरूम तड़प रही है यहांः
तुम्हारी कब्र पर मैं
फातेहा पढ़ने नहीं आया
मुझे मालूम था, तुम मर नहीं सकते
तुम्हारी मौत की सच्ची खबर
जिसने उड़ायी थी, वह झूठा था, वो तुम कब थे?
कोई सूखा हुआ पत्ता, हवा में गिर के टूटा था...
पिता के बिना हम अपने जीवन की कल्पना नहीं कर सकते। उन्हीं के कारण हम इस दुनिया में आते हैं और उनकी परंपरा का विस्तार करते हैं। आज हम सब पिता की जायदाद को ब-हिस्सा बराबर करने में जुटे हुए हैं, मगर उनकी सदाशयता, विवशता की तमाम तस्वीरें जिन्होंने रचना-रूपी एलबम में संजो के रखी हैं वाकई वे ही धनाढ्य हैं, उन्हीं के नाम किए जाने चाहिए सुपुत्र और सुपुत्री जैसे तमगे।
स्त्री चेतना में पिता
पितृसत्ता की गलत नीतियों के खिलाफ जब लड़कियां अपने मन की सुनने लगीं, सचबयानी पर उतर आईं तो समाज में अजीब-सी हलचल मच गई। कुलच्छनी कुल्टा...जैसे शब्द शोर की शक्ल में जोर लगाने लगे चतुर्दिक। इस तरह के शोर के खिलाफ कुछ बोलने के बजाय पिता नामक प्राणी खुद को कैद करने लगा घरों के अंदर और पालते हुए तमाम तरह की व्याधियां, छोड़ने लगा दुनिया। जिस क्षण उसने दुनिया छोड़ी, उसी क्षण बपखउकी (बाप को मारने वाली) जैसे शब्द भी छप गए समाज के शब्दकोश में।
दबी जुबान से दूर-दूर तक कही जाने लगी बेटियों के चरित्र हनन करने वाली कहानियां आज भी कही जा रही हैं। चुप्पी का कंबल ओढे़ आज भी मर रहे हैं पिता। बेमतलब परेशान होते ऐसे पिताओं के खिलाफ मुंबई में रहने वाली हिंदी कवयित्री चित्रा देसाई का यह स्वर अलहदा हैः
दरअसल
पिता का कोई भी दिवस नहीं मनाती
मनाने का कोई, कारण भी नहीं है
इस देश में
बेटी के लिए सोहर नहीं गाए जाते।
हालांकि स्त्री चेतना की ज्यादातर कविताओं में पिता की भावुक स्मृतियां हैं। मुजफ्फरपुर की युवा कवयित्री पूनम सिंह अपने पिता की विवशता और असहजता का पथराया चेहरा लेकर आती हैं। बांग्ला कविताओं की हिंदी अनुवादक और कवयित्री सुलोचना उस रूपक को रचती हैं जिसमें पिता अपनी बेटी के लिए प्रेम की याचना करता हुआ दिखाई देता है।
एक दिन
कहानियों से रूपकथा उतर आई जीवन में
और जहां समाज में कन्याओं का दान किया जाता रहा
पिता ने की मेरे प्रेमी से रो-रोकर, मेरे लिए प्रेम की याचना
बंगाल के युवा कवि निशांत आज की बेटियों के साथ मजबूती से खड़ा होकर कह रहे हैंः
जब इस उम्र में मैं ही प्रेम कर रहा हूं,
तो अपनी बच्ची को कैसे रोकूं?
पितृ-ऋण से मुक्ति कहां?
पिता की बड़ी दुनिया में विचरते हुए यह महसूस हुआ कि कोई भी पुत्र कभी भी पितृ-ऋण से मुक्त नहीं हो सकता। चाहे उनके श्राद्ध में बरगामा और चौरासी का भोज कर दे या उनके नाम पर दान कर दे लाखों की दौलत। प्यार-दुलार और त्याग जैसे ऋण से मुक्त होना कदापि संभव नहीं है।
(सतीश नूतन विभिन्न भारतीय भाषाओं में पिता पर लिखी गई कविताओं के संचयन अंधेरे में पिता की आवाज के संपादक हैं )