गणतंत्र सत्तर साल का हो गया लेकिन आज भी वैधानिक अधिकारों को ही प्राप्त करना बड़ा सवाल बन गया है। मूल अधिकार नागरिकता से निर्धारित होते हैं। जो नागरिक नहीं, उसके पास मूलभूत चीजों का भी अधिकार नहीं है। देश में नागरिकता को लेकर बड़ी बहस चल रही है और बड़े पैमाने पर आंदोलन भी चल रहे हैं। सरकार ने संविधान में संशोधन करके धर्म विशेष के लोगों को बाहर किया है। हमारे संविधान में यह स्पष्ट है कि कोई भी निर्णय जाति, धर्म, वर्ग और लिंग के आधार पर नहीं लिया जा सकता। केंद्र सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून लाकर 'रूल ऑफ लॉ' में ही ऐसी असमानता पैदा की है, जो संविधान के धर्मनिरपेक्ष और समस्त समुदायों और धर्मों के बीच समानता के मूलभूत ढांचे को ध्वस्त करता है।
आज देश में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) का विरोध हो रहा है। देशव्यापी विरोध कई मुद्दों पर और कई आंदोलनों में हुआ है, लेकिन संविधान और उसके मूल्य कभी देशव्यापी आंदोलन का हिस्सा नहीं बने। शायद बाबा साहेब आंबेडकर ने भी ऐसी कल्पना नहीं की होगी कि एक दिन ऐसा आएगा जब संविधान बाइबिल, कुरान या गीता की तरह लोगों के हाथ में दिखने लगेगा। महात्मा गांधी ने जिस आजाद और पंथनिरपेक्ष भारत के लिए आंदोलन किया और जिसके लिए उन्होंने अपनी जान तक गंवा दी, शायद आज के भारत में मुसलमानों की असुरक्षा को देखकर उनको अत्यंत दुख होता। लेकिन युवाओं, महिलाओं, मुस्लिम और अन्य अल्पसंख्यक समुदाय तथा नागरिकों के सत्याग्रह को देखकर गांधी जी को भी अवश्य गर्व महसूस होता। यह जन आंदोलन शांतिपूर्ण है, प्रशासन और पुलिस के द्वारा धारा 144 लगाए जाने का साहस के साथ सामना कर रहा है। यह गांधी जी के असहयोग आंदोलन का नया रूप प्रतीत होता है।
देश में असमानता कई तरीकों से है। 1990 के बाद उदारीकरण का जो मॉडल अपनाया गया, उससे जीडीपी में बढ़ोतरी जरूर हुई, लेकिन उसका सबसे बड़ा हिस्सा देश के सबसे अमीर और पूंजीपति वर्ग के पास पहुंचा है। भारत आर्थिक असमानता का प्रतीक बनता जा रहा है, जहां अमीर और गरीब के बीच का फासला लगातार बढ़ रहा है। डॉ. आंबेडकर ने भारतीय समाज और आर्थिक असमानता की तरफ हमेशा ध्यान आकर्षित किया था। संविधान सभा में 26 नवंबर 1949 को उन्होंने संविधान की खूबियां बताईं तो भारत के लोकतंत्र बने रहने पर कुछ खतरे और शंकाएं भी जताईं। इन खतरों की जड़ में सामाजिक और आर्थिक असमानता थी। उन्होंने कहा, “26 जनवरी 1950 को हम विरोधाभासों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हमारे पास समानता होगी लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता होगी। राजनीति में हम एक व्यक्ति, एक वोट और एक वोट, एक मूल्य के सिद्धांत को अपनाएंगे। हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में, हम अपनी सामाजिक और आर्थिक संरचना के कारण, एक व्यक्ति, एक मूल्य के सिद्धांत को अस्वीकार करना जारी रखेंगे। कब तक हम विरोधाभासों के इस जीवन को जीना जारी रखेंगे? कब तक हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे? अगर हम इसे लंबे समय तक नकारते रहे, तो हम अपने राजनैतिक लोकतंत्र को संकट में डालकर ही ऐसा करेंगे। हमें इस विरोधाभास को दूर करना चाहिए वरना जो असमानता से पीड़ित हैं वे राजनैतिक लोकतंत्र की संरचना को खत्म कर डालेंगे, जिसे इस संविधान सभा ने मजबूती से बनाया है।” डॉ. आंबेडकर तो कानून के जरिए इन असमानताओं को दूर करने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन सीएए आने से अब हमारे कानून को ही भेदभाव करने का जरिया बना दिया गया है।
बाबा साहेब की शंकाएं कई आंदोलनों की मूल चिंताएं बनीं। संविधान और खास तौर पर उसमें नीति-निर्देशक तत्वों को केंद्र में रखते हुए 2005 से 2015 तक कई जन संगठनों ने कुछ राजनैतिक दलों के साथ मिलकर हक आधारित कानूनों का अभियान छेड़ा। लंबे संघर्ष के बाद सूचना के अधिकार के आंदोलन को जीत मिली। इस आंदोलन ने केंद्रीय स्तर पर एक कारगर कानून पारित कराने में सफलता प्राप्त की। इससे पहले आंदोलन ने लगभग 10 राज्यों में सूचना के अधिकार कानूनों को पारित करवाया था। भारतीय सूचना के अधिकार के आंदोलन ने दिखाया कि सूचना का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 19 के अलावा अनुच्छेद 21 (जीने का अधिकार) एवं अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) के साथ भी जुड़ा हुआ है। सूचना का अधिकार कानून पर सरकारों ने लगातार प्रहार किए हैं लेकिन इन प्रहारों को लोगों ने सफल नहीं होने दिया और 14 साल तक कानून को बचाए रखा। 2019 में भाजपा सरकार कई कानूनों में संशोधन लेकर आई और कुछ नए कानून पारित किए। इसमें सूचना का अधिकार का संशोधन भी शामिल है। इस संशोधन में सूचना आयोग को कमजोर किया गया। आज केंद्र सरकार कोशिश कर रही है कि सूचना आयुक्तों की नियुक्ति न करे ताकि किसी भी हालत में वह नीचे के स्तर पर सूचना देने से मना कर सके, और जब मामला अपील में जाए तो इतने अपील लंबित हों कि लोग दुखी होकर चुप बैठ जाएं। यदि आपको जानकारी नहीं मिलेगी तो आपको पता ही नहीं चलेगा कि आपका राशन कहां गया, अस्पताल में दवाई है या नहीं, इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि सूचना के अधिकार के बिना पता नहीं चलेगा कि आपकी नागरिकता बच सकती है या नहीं। इस संशोधन के बाद लोग चुप नहीं बैठे हैं। उन्होंने सूचना के अधिकार के आवेदनों को डालना बंद नहीं किया। अब आंदोलन चला है आरटीआइ लगाओ जवाबदेही पाओ।
काम के अधिकार को लेकर देशव्यापी आंदोलन छेड़ा गया और जब यूपीए सरकार आई तो उसके साझा कार्यक्रम में एक देशव्यापी रोजगार गारंटी कानून पारित करने का आश्वासन था। यह कानून बनते ही भारत दुनिया में पहला देश बना जहां 100 दिन के रोजगार की गारंटी लोगों को मिली। इस गारंटी के तहत आज 10 करोड़ परिवार काम प्राप्त कर रहे हैं और बेरोजगारी के इस दौर में यह कानून लोगों के लिए एक आशा की किरण है, लेकिन सरकार अपने बजट प्रावधानों में पर्याप्त धन का आवंटन नहीं करके इस कानून को भी असफल बनाना चाहती है।
2005 और 2015 के बीच हक आधारित कई कानून पारित हुए। इनमें सूचना के अधिकार और रोजगार गारंटी के अलावा शिक्षा का अधिकार, वन अधिकार, पथ विक्रेताओं के अधिकार, दलित और आदिवासियों के हकों के अधिकार, विकलांगों के अधिकार एवं असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के अधिकारों पर बनाए कानून शामिल हैं। इन सारे कानूनों की प्रेरणा संविधान के नीति निर्देशक तत्वों से ही मिली। इन सब कानूनों में न केवल आर्थिक असमानता को कम करने का जरिया ढूंढ़ा जा रहा था बल्कि सामाजिक असमानता को भी दूर करने का प्रयास किया गया। एनडीए सरकार आते ही हक आधारित कानूनों के ढांचे को कमजोर करने लगी। इसकी वजह से वह प्रयास भी आज की तारीख में कमजोर पड़ा है।
इस समय देश की अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजर रही है। बेरोजगारी चरम पर है, इस दौर में रोजगार गारंटी जैसा कानून सहारा बन सकता है। बेरोजगारी से ग्रसित लोग कम से कम 100 दिन का रोजगार प्राप्त कर सकते हैं। कैसी विडंबना है कि सरकार 1.4 लाख करोड़ रुपये सबसे अमीर लोगों को टैक्स छूट के नाम पर दे सकती है, लेकिन वह अपने सबसे गरीब और सताए हुए वर्ग को अपनी कमाई हुई मजदूरी देने के लिए पैसे नहीं जुटा पा रही है। मनरेगा के मजदूरों को तीन महीने से मजदूरी का भुगतान नहीं किया गया है। आज हमें केवल सीएए, एनआरसी और एनपीआर को लेकर आंदोलन नजर आ रहा है लेकिन जब लोग बेरोजगारी, शिक्षा एवं स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए खड़े होंगे तब भी संविधान ही उनकी प्रेरणा, सुरक्षा और उनकी लड़ाई का आधार बनेगा।
71वें गणतंत्र दिवस के अवसर पर संविधान ही सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज है, वह हमारे देश के लिए मात्र नियम नहीं, उसकी आत्मा भी है। 26 जनवरी 2020 को गणतंत्र दिवस मनाया जाएगा, 30 जनवरी को शहीद दिवस मनाया जाएगा और एक फरवरी को देश का बजट पेश होगा। तीनों दिन महत्वपूर्ण हैं। एक फरवरी 2020 को बजट पढ़ते हुए शायद सबसे ज्यादा ध्यान अखबारों में बजट के भाषण पर ही जाएगा। बहस होगी कि आर्थिक मंदी के इस दौर में किस वर्ग को बजट में कितना फायदा पहुंचाया गया। इस सवाल को भी समझना पड़ेगा कि भारत का बजट संविधान और उसके मूल्यों से जुड़ा हुआ है। आज जो सबसे ज्यादा गरीब वर्ग है वह भी इसी संविधान के सहारे अपनी उम्मीद पालता है।
26 जनवरी को दिल्ली में राजपथ पर परेड होती है, देश भर में झंडारोहण होता है लेकिन हम संविधान के मूल्यों पर सोचते नहीं हैं। इस साल शायद देश भर में सड़कों पर उतरे हुए लोग हमें मजबूर करेंगे कि हम सोचें और संविधान के मूल्यों पर ध्यान लगाएं। शायद हम 26 जनवरी को इस रूप में मना सकते हैं कि संविधान और देश को ताकतवर बनाएं। भाजपा ने इतने बड़े वर्ग को इतनी असुरक्षा महसूस करवाई है, तो वह नागरिकता संशोधन कानून को वापस लेने के लिए सोच-विचार कर सकती है। 30 जनवरी हर साल हम शहीद दिवस के रूप में मनाते हैं लेकिन इस साल हमें याद रखना पड़ेगा कि गांधी जी ने अपनी जान इसलिए गंवाई क्योंकि वे तैयार नहीं थे कि आजाद भारत में एक ही धर्म के मानने वाले रहें। आज हमें यह ध्यान रखना पड़ेगा कि कहीं धर्मनिरपेक्षता ही शहीद न हो जाए। 26 जनवरी 2020 को हमें सोचना पड़ेगा कि हम क्या इस संविधान के साथ ऐसा खिलवाड़ कर सकते हैं?
(अरुणा रॉय मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित, सूचना का अधिकार लागू करने में अहम भूमिका)
(मुकेश गोस्वामी जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
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शायद हम 26 जनवरी को इस रूप में मना सकते हैं कि संविधान और देश को ताकतवर बनाएं, ताकि हमारे हक-हुकूक सुरक्षित रहें
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बड़े आंदोलन के बाद सूचना का अधिकार कानून लागू हुआ था, लेकिन अब भाजपा सरकार इसे बेमानी बनाने की कोशिश कर रही है