पिछले ढाई दशकों में सबसे अधिक चुनौती से जूझ रही देश की अर्थव्यवस्था के माहौल में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2020-21 का जो बजट पेश किया है, उसमें इतिहास, भूगोल और पौराणिकता से लेकर मौजूदा राजनीति और लंबे बजट भाषण समेत बहुत कुछ ऐसा है जो पहली बार किसी बजट में देखने को मिला है। बस कमी है तो मुश्किल में फंसी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने वाले कदमों की। देश की आम जनता, अर्थविद और राजनीतिक पंडित, सब कयास लगा रहे थे कि ऐतिहासिक बहुमत हासिल करने के बाद सरकार पहला पूर्ण बजट पूरी तैयारी के साथ पेश कर रही है, तो कुछ तो बड़ा होगा। जुलाई में पेश निर्मला सीतारमण का पहला बजट एक तरह से अंतरिम बजट का एक्सटेंशन ही था। लेकिन इस बार उनसे उम्मीद थी कि वे अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन देंगी, रोजगार के अवसर पैदा करने के लिए माहौल तैयार करेंगी और संकट में फंसी ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए अधिक संसाधन मुहैया करा कर उसे पटरी पर लाने की कोशिश करेंगी, क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था मांग की कमी से जूझ रही है और वह तभी बढ़ेगी जब लोगों के हाथ में ज्यादा पैसा आएगा। लेकिन वैसा कुछ इस बजट में वे नहीं कर पाईं। अभी तक के सबसे लंबे बजट भाषण में वे बहुत कुछ पुराना या राज्यों के जरिए किए जाने वाले फैसलों से जुड़े मसलों को ही सामने रखती दिखीं। केंद्र सरकार क्या बड़ा करेगी, उस पर उन्होंने कुछ ज्यादा नहीं कहा।
असल में, जब देश 26 तिमाही में सबसे कमजोर 4.5 फीसदी की विकास दर के साथ 7.5 फीसदी की नॉमिनल जीडीपी पर फंस गया हो, भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा पॉलिसी ब्याज दरों में 135 बेसिस प्वाइंट की कटौती भी निवेश को प्रोत्साहित नहीं कर पा रही हो, तो ऐसे में बजट से स्टिमुलस की उम्मीद रखना जायज बनता था। बजट के एक दिन पहले आई आर्थिक समीक्षा में संकेत भी दिया गया था कि यह समय सुधार के साहसिक कदम उठाने का है, लेकिन बजट में वह दिखा नहीं। निवेश को प्रोत्साहन देने का कोई बड़ा कदम इस बजट में नहीं है। हो सकता है, वित्त मंत्री ने सोचा हो कि व्यक्तिगत आय कर दरों में कटौती का कदम मध्य वर्ग को खर्च के लिए प्रोत्साहित करेगा। लेकिन उनको शायद यह जानकारी जरूर होगी कि देश में करीब छह करोड़ लोग ही आय कर रिटर्न भरते हैं, और उनमें भी करीब दो करोड़ ही कर देते हैं। अब दो फीसदी से भी कम आबादी के लिए उठाए गए कदमों से कितना बड़ा बदलाव आएगा, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। ऊपर से यहां भी वित्त मंत्री ने कर छूट प्रावधानों से मुक्त नई कर स्लैब व्यवस्था लागू कर दी। आप कोई छूट नहीं लेते हैं तो आपके लिए नई दरें हैं, छूट लेते हैं तो पुरानी दरें ही लागू होंगी। कर स्लैब की कम संख्या को सरल कर व्यवस्था माना जाता है, लेकिन वित्त मंत्री ने सात स्लैब बनाकर इसे और उलझा दिया है। हर करदाता को नई और पुरानी कर व्यवस्था में से किसी एक को चुनने का अलग काम दे दिया है। देश में पहले ही बचत और निवेश की दरें दशकों के न्यूनतम स्तर पर चल रही हैं। ऐसे में, मध्य वर्ग को बचत करने से हतोत्साहित करने का जो विकल्प उन्होंने दिया है, उससे निवेश के लिए संसाधनों में कमी हो सकती है। उन्होंने देश की करीब 70 फीसदी ग्रामीण आबादी की क्रयशक्ति बढ़ाने का मौका भी गंवा दिया। कृषि और ग्रामीण क्षेत्र के लिए 2.83 लाख करोड़ रुपये का बजट आवंटन चालू साल के बजट अनुमानों के लगभग करीब ही है।
वैसे, पिछले साल के उनके सभी बजट अनुमान हवा हो गए थे। नॉमिनल जीडीपी ग्रोथ से लेकर, राजस्व संग्रह, गैर-राजस्व संग्रह- जिसमें विनिवेश एक बड़ा हिस्सा था- कोई लक्ष्य पूरा नहीं हो सका। उन्होंने मौजूदा वित्त वर्ष के 7.5 फीसदी नॉमिनल ग्रोथ की तुलना में अगले साल के लिए 10 फीसदी का लक्ष्य रखा है। साथ ही, चालू साल के जो संशोधित अनुमान पेश किए हैं, वे भी वास्तविकता से परे दिख रहे हैं। मसलन, चालू वर्ष के लिए उन्हें अब भी उम्मीद है कि टेलीकॉम कंपनियों से एडजस्टेड ग्रॉस रेवेन्यू (एजीआर) का पैसा आएगा। विनिवेश के 1.03 लाख करोड़ रुपये के बजट अनुमान को संशोधित अनुमान में 65,000 करोड़ रुपये किया गया है, जबकि अभी तक केवल 18,000 करोड़ रुपये ही आए हैं। बाकी 47,000 करोड़ रुपये कैसे आएंगे, अभी यह कहना मुश्किल है। दिलचस्प बात यह है कि लगभग हर साल विनिवेश के मोर्चे पर नाकाम रहने के बावजूद उन्होंने नए साल में दो लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का लक्ष्य रखा है। उन्हें उम्मीद है कि ‘विवाद से विश्वास योजना’ से काफी पैसा आ जाएगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो उन्होंने चालू साल के लिए 3.8 फीसदी राजकोषीय घाटे का जो संशोधित अनुमान रखा है, वह बढ़ सकता है। इसी तरह गैर-बजट उधारी के चलते घाटे को कम दिखाने की कोशिश नए बजट में भी जारी है।
जहां तक उद्योग के लिए राहत की बात है, तो लाभांश वितरण कर को कंपनियों से हटाकर लाभांश प्राप्त करने वाले से कर वसूलने की व्यवस्था से कोई बड़ी राहत मिलती नहीं दिख रही है। मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने का कोई बड़ा उपाय भी बजट में नहीं दिखता है। केवल सीमा शुल्क में बढ़ोतरी कर संरक्षणवाद को बढ़ावा देने से मैन्युफैक्चरिंग को बड़ा फायदा होगा, इसकी गुंजाइश कम है। अधिकांश लोगों का मानना है कि सीमा शुल्क में बढ़ोतरी कर 'मेक इन इंडिया' के तहत घरेलू विकल्प तैयार करना कोई बेहतर सोच नहीं है। नीति आयोग के पहले उपाध्यक्ष और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों के पुराने समर्थक अरविंद पानगड़िया ने भी सरकार के इस कदम को पीछे ले जाने वाला बताया है।
दो घंटे 40 मिनट के वित्त मंत्री के बजट भाषण में बिना किसी स्पष्ट दिशा के हर मामले में कुछ न कुछ मामूली बदलाव की कोशिश ज्यादा दिखती है, जो किसी का भला करती नहीं दिखती। इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने का मौका भी उन्होंने खो दिया है। यह बात भी काफी हद तक साफ होती है कि उनकी बजट टीम के बीच बेहतर तालमेल नहीं था। अर्थव्यवस्था की सुस्त पड़ती रफ्तार में यह बजट ईंधन डालने में कामयाब होता नहीं दिखता है। हां, इसकी उलझनों को समझने में और थोड़ा वक्त लगेगा। एक बात की चर्चा जरूर है कि वित्त मंत्री ने हड़प्पा की उस लिपि को समझने में जरूर कामयाबी पा ली है, जिसको लेकर विशेषज्ञ अभी तक नाकाम रहे हैं क्योंकि उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था के दुनिया में दबदबे का रिश्ता वहां ढूंढ़ लिया है। तभी तो जहां तमाम अर्थविद रोजगार, निवेश, महंगाई, निर्यात, ग्रामीण अर्थव्यवस्था जैसे मोर्चों पर कमजोरी से उबारने के लिए कदमों की जरूरत बता रहे हैं, वहीं वित्त मंत्री कहती हैं कि अर्थव्यवस्था के मूलभूत स्तंभ मजबूत हैं। मतलब यह कि जब मर्ज की मौजूदगी ही नहीं स्वीकारते हैं तो फिर इलाज पर क्यों सोचें!
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वित्त मंत्री ने हड़प्पा लिपि पढ़ने में जरूर कामयाबी पा ली है, जिसमें विशेषज्ञ नाकाम हैं। उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था का दुनिया में दबदबे का रिश्ता उसमें ढूंढ़ लिया है