कोविड-19 महामारी जैसे-जैसे नए इलाकों में फैल रही है, लोगों की आमदनी, खाद्य सुरक्षा और स्वास्थ्य को लेकर चिंताएं बढ़ रही हैं। यह महामारी समूची दुनिया और भारत के लिए भी अब तक की सबसे मुश्किल चुनौती है। इसके प्रकोप से बचाव के लिए लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग जैसे उपायों से विशाल आबादी और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों पर अर्थव्यवस्था की निर्भरता से मुश्किलें आ रही हैं। केंद्र और राज्य सरकारें इस समस्या पर काम कर रही हैं। शुरू में कुछ भ्रम की स्थिति थी लेकिन फीडबैक के आधार पर उपाय किए जा रहे हैं। लॉकडाउन समस्या की शुरुआत भर है। इसका असर समाज के हर पहलू पर दिखेगा। भारत को योजनाएं बनाने में काफी सावधानी की जरूरत है। सीमित संसाधन होने के कारण लोगों के लिए खाद्य सुरक्षा और अर्थव्यवस्था की रिकवरी एक चुनौती भरा काम है।
खाद्य सुरक्षा के लिए खाद्य पदार्थों का उत्पादन केंद्रों से उपभोग केंद्रों तक पहुंचना जरूरी है। इसके लिए आवश्यक है कि खाद्य आपूर्ति की श्रृंखला ठीक ढंग से काम करे। लॉकडाउन के चलते कृषि और सप्लाई चेन के बहुत से काम बाधित हो रहे हैं। प्रवासी और कुशल मजदूरों की अनुपलब्धता के चलते फसल की कटाई, ढुलाई जैसे काम नहीं हो पा रहे हैं। एक तरफ किसान फसल की कटाई और ढुलाई नहीं कर पा रहे हैं तो दूसरी तरफ उपभोक्ताओं को खाने-पीने की चीजों की कमी का सामना करना पड़ रहा है या उन्हें ये वस्तुएं अधिक कीमत पर खरीदनी पड़ रही हैं। किसानों के लिए तो मांस, अंडा, दूध, गेहूं, सब्जियां और अन्य फसलों की कीमत घट गई है, फिर भी उपभोक्ता इन्हें महंगे दाम पर पा रहे हैं। लॉकडाउन के चलते होटल, रेस्तरां, मिठाई की दुकानें और चाय की दुकानें बंद होने के चलते दूध, चिकन, अंडे, खाद्य तेल आदि की बिक्री घट गई है।
लॉकडाउन के अलावा सोशल मीडिया पर चलने वाली नकारात्मक खबरों से भी किसानों को नुकसान हो रहा है। सोशल मीडिया पर यह गलत खबर फैल गई कि चिकन खाने से कोविड-19 बीमारी हो सकती है। इस अफवाह ने दो करोड़ लोगों की आजीविका को न सिर्फ प्रभावित किया, बल्कि 1.25 लाख करोड़ रुपये के पोल्ट्री सेक्टर को बर्बाद कर दिया। इसका असर मक्का, मोटे अनाज और तिलहन पर भी पड़ेगा। खाद्य सुरक्षा की सफलता लोगों को खाद्य पदार्थों की उपलब्धता पर निर्भर करती है। अगर घर में खाना नहीं होगा तो लोग उसकी तलाश में सड़कों पर निकलेंगे। इस तरह भीड़ बढ़ने से कोविड-19 को फैलने से रोकने की कोशिशें बेकार चली जाएंगी।
कृषि उपज और पशुधन सप्लाई चेन की दिक्कतें
भारत में कृषि और खाद्य पदार्थों की आपूर्ति में बड़ी संख्या में श्रमिक काम करते हैं। लाखों छोटे किसानों को बुवाई, कटाई, छंटाई, ढुलाई, पैकेजिंग और वेयरहाउसिंग जैसे कामों के लिए श्रमिकों की जरूरत पड़ती है। श्रमिकों के अभाव में ये सारे काम रुक गए हैं। हम राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा की बात तो करते हैं लेकिन पशुधन को अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा नहीं मानते। उनके लिए चारे का इंतजाम कैसे होगा, इसकी कोई योजना नहीं होती। इससे लगभग हर किसान परिवार प्रभावित होगा क्योंकि मिश्रित खेती ग्रामीण जीवन का आधार है। फसलों से किसानों को एक बार आय होती है जबकि पशुधन से हर परिस्थिति में उन्हें आय होती रहती है। लॉकडाउन से पोल्ट्री, दुग्ध, फल एवं सब्जियां जैसे जल्दी नष्ट होने वाले सेक्टर ज्यादा प्रभावित हुए हैं। एक तरफ किसान उपज रोक नहीं सकते, तो दूसरी तरफ परिवहन व्यवस्था ठप होने और होटल-रेस्तरां आदि न खुलने के चलते इन्हें बेच नहीं सकते। इन उपजों को संरक्षित करने के लिए हमारे पास पर्याप्त इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है। सौभाग्यवश, हमारे भंडारों में अनाज भरे हैं, सरकार लोगों के खाने के लिए उन्हें जारी कर सकती है। लेकिन पशुधन का क्या होगा? पोल्ट्री, डेयरी और फिशरीज जैसे सेक्टर के लिए हमारे पास कोई चारा नीति नहीं है।
किसानों की उचित आमदनी सुनिश्चित करने के लिए कृषि उत्पादों की मार्केटिंग महत्वपूर्ण है। एपीएमसी मंडियां संक्रमण फैलने की जगह बन गई हैं। इस बात का कोई मतलब नहीं कि शहर के दो करोड़ लोग उन दो या तीन कृषि मंडियों पर निर्भर करें जो काफी पुराने कानूनों के तहत चल रही हैं। जब भारत में खाद्य पदार्थों की कमी थी और शहर छोटे थे तब मंडियां ठीक थीं। लेकिन अब इन मंडियों में काफी भीड़ होने लगी है। इन मंडियों की वजह से कीमतों का कर्टेलाइजेशन होता है, किसानों को उचित कीमत नहीं मिलती और मांग तथा आपूर्ति के बीच असंतुलन पैदा होता है। यही समय है कि किसानों के लिए उचित मार्केटिंग व्यवस्था बने और बाजार तक उनकी पहुंच हो। लॉकडाउन के समय चिंता की एक और बात यह रही कि खाद्य पदार्थों की मांग और आपूर्ति को लेकर तरह-तरह की गलत सूचनाएं फैलाई गईं, इससे अनेक जगहों पर कालाबाजारी हुई।
डेयरी सेक्टर पर असर
देश में रोजाना लगभग 50 करोड़ लीटर दूध पैदा होता है। इसका करीब 50 फीसदी हिस्सा कोऑपरेटिव और निजी डेयरियां खरीदती हैं। बाकी 50 फीसदी दूध रेस्तरां, मिठाई की दुकानों, हाइवे के किनारे के ढाबे ढाबों और चाय की दुकानों पर इस्तेमाल होता है। लॉकडाउन के चलते सभी दुकानें बंद हैं। इससे दूध की खपत 40 फीसदी घट गई है। किसानों के सामने इसे लंबे समय तक स्टोर करने की भी गुंजाइश नहीं है। कोऑपरेटिव और निजी डेयरी ने दूध की खरीद बढ़ाई है लेकिन दुर्भाग्यवश इनकी स्थापित क्षमता इतनी नहीं है कि पूरे सरप्लस दूध का इस्तेमाल किया जा सके। बहुत से इलाकों में खरीद केंद्र न होने से वहां दूध की खरीद ही नहीं हो पा रही है। दुग्ध पाउडर बनाने वाली बहुत सी कंपनियां दूध खरीदना चाहती हैं लेकिन उनके पास इतनी कार्यशील पूंजी नहीं कि अतिरिक्त दूध खरीद सकें। इससे दूध के दाम पांच से दस रुपये प्रति लीटर घट गए हैं, यानी रोजाना 150 से 300 करोड़ रुपये का नुकसान है। पशुधन के लिए लॉकडाउन एक और तरीके से नुकसानदायक है। किसानों के पास नकद पैसे नहीं हैं, इसलिए वे मवेशियों को चारा नहीं खिला पा रहे हैं। चारे की उपलब्धता की भी समस्या है। ट्रकों का आवागमन बाधित होने और मजदूर न मिलने से देश के अनेक हिस्सों में चारे की कमी है। इससे चारा महंगा और दूध के दाम कम हो गए हैं। इस सेक्टर को तत्काल मदद की जरूरत है। यह मदद कार्यशील पूंजी और नुकसान की भरपाई दोनों रूप में होनी चाहिए।
लॉकडाउन का पोल्ट्री सेक्टर पर असर
भारत की 70 फीसदी आबादी मांसाहारी है और करीब दो करोड़ लोग पशु प्रोटीन सेगमेंट में कार्यरत हैं। मांसाहारियों के लिए पशु प्रोटीन इम्युनिटी बढ़ाने का एक जरिया भी है। लॉकडाउन के चलते पोल्ट्री सेक्टर को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है। पोल्ट्री किसान हर महीने दो किलो वजन वाले 50 करोड़ चिकन तैयार करते हैं। लॉकडाउन से पहले चिकन से कोरोनावायरस का संक्रमण फैलने की अफवाह के चलते इसकी बिक्री लगभग बंद हो गई। किसानों के लिए उत्पादन लागत लगभग 80 रुपये प्रति किलो है, जबकि चिकन के दाम 10 रुपये किलो तक गिर गए। नतीजा यह हुआ कि बहुत से पोल्ट्री फार्म दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गए हैं। लॉकडाउन के चलते एक तरफ किसान चिकन बेच नहीं पा रहे हैं, दूसरी तरफ उनके पास मुर्गियों को खिलाने के लिए चारा खरीदने के पैसे नहीं हैं। कुछ हताश किसान मुफ्त में मुर्गियां बांटने लगे, तो कुछ ने उन्हें जिंदा दफन कर देने जैसा कदम भी उठा लिया। लॉकडाउन की अवधि में पोल्ट्री किसानों को 8,000 करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान होने का अंदेशा है। अपने पैरों पर दोबारा खड़े होने के लिए किसानों को आर्थिक मदद की जरूरत पड़ेगी। हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि पोल्ट्री सेक्टर 70 फीसदी मक्का किसानों और 60 फीसदी तिलहन किसानों को बाजार उपलब्ध कराता है। पोल्ट्री सेक्टर में गिरावट से मक्का और सोयाबीन की कीमतें 10,000 रुपये प्रति टन घट गईं। इसका मतलब है कि पोल्ट्री संकट के चलते अनाज और तिलहन सेक्टर की वैल्यू 35 हजार करोड़ रुपये घट गई। जब तक पोल्ट्री सेक्टर खड़ा नहीं होता तब तक इन फसलों के दाम मैं भी तेजी की उम्मीद नहीं है। दोबारा काम शुरू करने के लिए पोल्ट्री किसानों को कार्यशील पूंजी की जरूरत है। उन्हें जो नुकसान हुआ है उसके चलते वे कर्ज लौटाने की स्थिति में भी नहीं हैं, उनके लिए कर्ज में राहत की कोई स्कीम लानी पड़ेगी।
भारत का पोल्ट्री उद्योग 1.25 लाख करोड़ रुपये का है। इसके बावजूद आज तक कोई पोल्ट्री पॉलिसी नहीं बनी है। हमें तत्काल पोल्ट्री विकास की नीति लानी चाहिए। फल और सब्जियों की तरह सरकार को पोल्ट्री प्रोसेसिंग चेन विकसित करने पर ध्यान देना चाहिए। इसके लिए पांच वर्षों में करीब 20,000 करोड़ रुपये निवेश की जरूरत पड़ेगी। पोल्ट्री प्रोडक्ट का आधुनिक सप्लाई चेन विकसित करने के लिए सरकार को मौजूदा पंचवर्षीय योजना में 5,000 करोड़ रुपये का प्रावधान करना चाहिए। इससे पोल्ट्री किसानों और उपभोक्ताओं के साथ निर्यात में भी फायदा मिलेगा। सरकार यह रकम शून्य ब्याज वाले ग्रांट के रूप में दे सकती है, बाकी पैसा निजी निवेशक लगाएं। भारत में निर्यात हब बनने की क्षमता है। हमें इस संकट का सदुपयोग पोल्ट्री सेक्टर के आधुनिकीकरण, किसानों के कल्याण और उपभोक्ताओं को सुरक्षित खाद्य पहुंचाने में करना चाहिए। पोल्ट्री सेक्टर को फिर से खड़ा करना सिर्फ अनाज और तिलहन सेक्टर के लिए जरूरी नहीं, बल्कि ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में रोजगार के लिए भी जरूरी है, क्योंकि इस पूरी वैल्यू चेन से करीब दो करोड़ लोग जुड़े हैं।
लॉकडाउन काफी जल्दबाजी में लागू किया गया, जिससे इसे लागू करने वाली एजेंसियों में भ्रम की स्थिति पैदा हुई। अत्यधिक बल प्रयोग से सप्लाई चेन जितनी प्रभावित हुई, उतनी तो कोरोनावायरस से भी नहीं हुई। ट्रांसपोर्टरों और ड्राइवरों में अफरा-तफरी सी मच गई। सरकार को एक केंद्रीकृत पोर्टल और मोबाइल ऐप लाना चाहिए, जिसे सभी सरकारी अधिकारी अपने मोबाइल में डाउनलोड करें और जरूरत पड़ने पर तथ्यों की सत्यता जांच कर सकें। फील्ड अफसरों को अपनी तरफ से नियमों की व्याख्या बंद करनी चाहिए क्योंकि इससे भ्रम और फैलता है। क्या करना है और क्या नहीं, यह लिखित में होना चाहिए।
कृषि और खाद्य सुरक्षा किस हद तक प्रवासी मजदूरों पर निर्भर है, यह बात भी अब जाहिर हो चुकी है। यही उचित समय है कि कृषि मजदूरों के लिए राष्ट्रीय नीति बनाई जाए। इसमें उनके अधिकारों और कर्तव्यों को भी परिभाषित किया जाए। उनके स्वास्थ्य का ख्याल रखने के साथ-साथ वृद्धावस्था पेंशन और उनके रजिस्ट्रेशन की भी व्यवस्था हो। इस तरह प्रवासी मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने से खाद्य सुरक्षा भी सुनिश्चित होगी। कृषि विपणन व्यवस्था पर भी गंभीरता से पुनर्विचार करने की जरूरत है। मौजूदा एपीएमसी बाजार पुराने पड़ चुके हैं। शहरों की बढ़ती आबादी को देखते हुए इनका कोई मतलब नहीं रह गया है। बिचौलियों को कानूनी समर्थन देना और उसे आवश्यक बनाना एक तरह से भ्रष्टाचार को कानूनी रूप देने के समान है, जिससे किसानों का शोषण होता है। लॉकडाउन ने हमारी नीतिगत कमजोरियों को भी उजागर किया है। कृषि विपणन कानून में वैकल्पिक बाजारों की व्यवस्था होनी चाहिए। सुधारों के विरोधी एपीएमसी व्यापारी बाजार बंद करने की धमकी देकर नीति-निर्माताओं को ब्लैकमेल करते हैं।
कोविड-19 सभी विकल्पों को खंगालने और कृषि विपणन को सक्षम बनाने का मौका है। किसानों द्वारा सीधे उपभोक्ताओं को बिक्री की अनुमति दी जानी चाहिए। किसानों और उपभोक्ताओं के बीच लेन-देन की लागत को कम करने की कोशिश होनी चाहिए। पोल्ट्री, मछलियां, अंडे, फल और सब्जी जैसे जल्दी नष्ट होने वाले खाद्य पदार्थों के लिए वेयरहाउसिंग और प्रोसेसिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित करने पर गंभीरता से विचार होना चाहिए। इनमें निजी क्षेत्र के सहयोग को बढ़ावा दिया जा सकता है। सरकार ने हाल ही पशुपालन मंत्रालय बनाया है। किसानों के फायदे और रोजगार सृजन के लिए सरकार को पशुधन विकास नीति बनानी चाहिए। इसमें मार्केटिंग, प्रोसेसिंग, वेयरहाउसिंग और ट्रांसपोर्टेशन के साथ उपभोक्ताओं को शिक्षित करने पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।
कृषि और पशुधन सेक्टर सबको खाद्य सामग्री मुहैया कराने के साथ 60 फीसदी आबादी को रोजगार भी देता है। 138 करोड़ आबादी वाले देश को खाद्य सुरक्षा के साथ रोजगार की भी जरूरत है। यह कृषि, पशुधन और इनसे जुड़ी गतिविधियों पर ध्यान देकर ही संभव है। कोविड-19 के चलते हुए लॉकडाउन ने भारत के लिए कृषि के महत्व को पुनः रेखांकित किया है, क्योंकि कोई भी वैश्विक बाजार भारत को खिला नहीं सकता है। भारत की सार्वभौमिकता की रक्षा में कृषि क्षेत्र अहम भूमिका निभाएगा। सरकार को कृषि, किसान और खाद्य पदार्थों की सप्लाई चेन सुधारने पर तत्काल ध्यान देना चाहिए ताकि इनमें तेज रिकवरी हो सके।
(लेखक एग्रीबिजनेस और उपभोक्ता वस्तु उद्योग के लिए टेक्नो लीगल और रिस्क मैनेजमेंट विशेषज्ञ हैं)
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50 करोड़ लीटर दूध का उत्पादन होता है देश में रोजाना
40 फीसदी घट गई है खपत होटल-दुकानें बंद होने से
150-300 करोड़ रुपये का नुकसान डेयरी सेक्टर को रोजाना
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80 रुपये प्रति किलो किसानों की उत्पादन लागत, लॉकडाउन में चिकन के दाम 10 रुपये तक गिर गए
8,000 करोड़ रुपये का नुकसान होने का अंदेशा पोल्ट्री सेक्टर को लॉकडाउन से
1.25 लाख करोड़ रुपये का है भारत का पोल्ट्री उद्योग