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महामारी को मात

केंद्र के दिशानिर्देशों से बहुत पहले केरल ने अपनाया डब्ल्यूएचओ का ‘टेस्ट, आइसोलेट एंड ट्रेस’ प्रोटोकॉल
सबसे सफलः तिरुवनंतपुरम का एक सरकारी अस्पताल, कोविड से लड़ाई में सरकारी अस्पताल ही आगे

जनवरी की 27 तारीख को चीन के वुहान से एक मेडिकल छात्र केरल पहुंचा, वह केरल ही नहीं बल्कि पूरे भारत का पहला कोविड-19 संक्रमित था। करीब दो महीने बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च को जब पूरे देश में लॉकडाउन की घोषणा की, तब सबसे ज्यादा कोरोना संक्रमित केरल में ही थे। उस दिन पूरे देश के 564 मामलों में से केरल में 107 और दूसरे नंबर पर महाराष्ट्र में 101 थे। दो महीने के लॉकडाउन और पहला केस सामने आने के चार महीने बाद केरल में संक्रमित लोगों का आंकड़ा (25 मई तक) 896 तक ही पहुंचा, जबकि महाराष्ट्र में यह संख्या 52,667 हो गई। केरल में अब तक कोरोना संक्रमित पांच लोगों की मौत हुई है, जबकि यह महामारी महाराष्ट्र में 1,695 लोगों को शिकार बना चुकी है।

लॉकडाउन में ढील के बाद केरल में भी संक्रमण तेजी से फैलने की आशंका है, पर अभी तक की लड़ाई में तो भारत का तीसरा सबसे सघन आबादी (859 व्यक्ति/वर्ग किमी) वाला यह प्रदेश महामारी को मात देने में सफल रहा है। कोविड से लड़ने का इसका तरीका ‘केरल मॉडल’ बन गया, जिसकी चर्चा पूरी दुनिया में हो रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे ‘सक्सेस स्टोरी’ बताया है तो भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) में संक्रमण रोग विभाग के प्रमुख डॉ. रमन गंगाखेडकर ने भी इसे सबसे अच्छे मॉडल में एक माना है। केरल मॉडल की सफलता का काफी श्रेय केरल की स्वास्थ्य और समाज कल्याण मंत्री के.के. शैलजा को जाता है (आगे पढ़िए उनसे बातचीत)। श्रीलंका के पूर्व प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे ने उन्हें पत्र लिख कर कहा भी, “आपने कर दिखाया कि संसाधन सीमित होने के बावजूद बीमारी पर प्रभावी तरीके से नियंत्रण पाना संभव है।”

क्या उपाय किए

आखिर केरल ने ऐसा क्या किया कि वह इस वैश्विक महामारी के फैलाव को सीमित करने में सफल हुआ। आउटलुक से बातचीत में शैलजा ने बताया कि करीब दो साल पहले निपाह वायरस के अनुभव से शुरू में ही यह बात समझ में आ गई थी कि कोविड-19 पर काबू पाने के लिए संक्रमण की चेन को तोड़ना सबसे जरूरी है। इसलिए 27 जनवरी को पहला मामला सामने आने के बाद 4 फरवरी को प्रदेश सरकार ने इस महामारी को राज्य स्तरीय आपदा घोषित कर दिया। मार्च के शुरू में ही सभी स्कूल-कॉलेज बंद कर दिए और सार्वजनिक जगहों पर लोगों के जमा होने पर पाबंदी लगा दी। केंद्र सरकार के दिशानिर्देशों से पहले विदेश से आने वाले सभी यात्रियों की स्क्रीनिंग की जाने लगी। बाहर से आने वालों में जिन्हें बुखार था उन्हें अस्पतालों में आइसोलेट किया गया और बाकी लोग होम क्वारंटीन में रखे गए। एक समय 1.7 लाख लोग क्वारंटीन में थे।

कम्युनिटी किचनः एक समय केरल में रोजाना 2.8 लाख खाने के पैकेट वितरित किए गए

वायरस का प्रकोप बढ़ने लगा तो हर जिले को कोविड-19 के लिए दो अस्पताल निर्धारित करने को कहा गया। हर मेडिकल कॉलेज में 500 बेड इसके मरीजों के लिए सुरक्षित किए गए। धार्मिक स्थल बंद करने से लोगों में रोष न फैले, इसलिए मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने स्थानीय स्तर पर धार्मिक नेताओं से बात की। केंद्र सरकार के राहत पैकेज से पहले उन्होंने खुद 20 हजार करोड़ रुपये के पैकेज का ऐलान किया।

लॉकडाउन से बेरोजगार होने वालों के खाने के इंतजाम के लिए पूरे प्रदेश में कम्युनिटी किचन बनाए गए। शुरुआती दिनों में रोजाना 2.8 लाख खाने के पैकेट वितरित किए गए। कम्युनिटी किचन की प्रोग्राम अफसर एन.एस. निरंजन ने आउटलुक को बताया कि तब राज्य में 1,142 कम्युनिटी किचन चल रहे थे। अब भी कुदुंबश्री जनकीय होटलों के माध्यम से सिर्फ 20 रुपये में रोजाना लगभग 40 हजार खाने के पैकेट दिए जा रहे हैं। हालांकि बाहर से आए मजदूरों के लौटने के साथ यह संख्या कम होती जा रही है। एक समय केरल में पड़ोसी राज्यों के करीब डेढ़ लाख मजदूर थे। सरकार ने डेढ़ महीने तक उनके ठहरने और खाने का इंतजाम किया। अब उन्हें ट्रेन से घर भेजा जा रहा है। इस दौरान कई जगहों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सीपीएम के कार्यकर्ता एक साथ कम्युनिटी किचन में काम करते भी देखे गए।

केरल सफल क्यों

सवाल है कि केरल वह सब क्यों कर सका जिसमें दूसरे बड़े और संपन्न राज्य विफल हुए। दरअसल, केरल मॉडल की सफलता के पीछे दशकों का निवेश है। यहां सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली और शिक्षा पर शुरू से ध्यान दिया गया इसलिए आज वह आपात स्थिति से आसानी से निपट पा रहा है। दूसरे राज्यों ने पहले इन पर कम निवेश किया, जिसका खमियाजा उन्हें आज भुगतना पड़ रहा है। जैसा शैलजा ने बताया, केरल संभवतः देश का एकमात्र प्रदेश है जहां हर पंचायत में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं। ये केंद्र भी किसी अच्छे अस्पताल से कम नहीं हैं। तालुका स्तर पर सरकारी स्पेशलिटी अस्पताल और जिला स्तर पर सुपर स्पेशलिटी अस्पताल हैं। राज्य में आठ सरकारी मेडिकल कॉलेज हैं और दो निर्माणाधीन हैं।

सार्वजनिक स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर पर ध्यान देने के कारण केरल स्वास्थ्य मानकों में काफी बेहतर स्थिति में है। केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की जुलाई 2018 की रिपोर्ट के अनुसार 3.4 करोड़ आबादी वाले केरल में प्राथमिक से लेकर जिला स्तर तक 1,297 अस्पतालों (स्वास्थ्य केंद्र समेत) में 39,511 बेड थे। दूसरी ओर, सबसे अधिक 23 करोड़ आबादी वाले उत्तर प्रदेश के 4,122 अस्पतालों में 58,310 बेड थे। भारतीयों की औसत जीवन प्रत्याशा 68 साल है, जबकि केरलवासियों की 74.9 साल। नीति आयोग के अनुसार शिशु मृत्यु दर (प्रति 1,000) के मामले में देश का औसत 34 है, जबकि केरल का सिर्फ 10 है। इस मामले में सिर्फ गोवा (8) केरल से बेहतर है।

स्वास्थ्य के साथ-साथ सार्वजनिक शिक्षा पर जोर देने का फायदा यह हुआ कि केरल भारत का सबसे साक्षर प्रदेश बन गया। 2011 की जनगणना के अनुसार यहां साक्षरता दर 94 फीसदी थी। साक्षरता अधिक होने के कारण सरकार के लिए लोगों को यह समझाने में आसानी हुई कि घरों में रहना ही उनके लिए सुरक्षित है। महिलाओं में साक्षरता अधिक होने से भी इसमें मदद मिली।

लॉकडाउन से कोविड संक्रमण की गति धीमी करने में कामयाबी जरूर मिली, लेकिन शैलजा भी मानती हैं कि आगे चुनौती ज्यादा मुश्किल है। लॉकडाउन में ढील के साथ लोग घरों को लौट रहे हैं और उद्योग-धंधे दोबारा खुल रहे हैं। 2018 के केरल माइग्रेशन सर्वे के अनुसार राज्य की 10 फीसदी आबादी विदेशों में है। इनमें से बड़ी संख्या में लोग अपने घर लौटना चाहते हैं। जाहिर है कि इनके आने के साथ कोविड का खतरा भी बढ़ेगा। स्वास्थ्य विभाग के एक अधिकारी के अनुसार इससे निपटने के लिए होटल, हॉस्टल और कॉन्फ्रेंस सेंटर जैसी जगहों पर 1.65 लाख बेड तैयार किए गए हैं। एक दूसरे के संपर्क में आने वालों की पहचान (कांटेक्ट ट्रेसिंग) के लिए स्कूल शिक्षकों को भी प्रशिक्षण दिया जा रहा है।

सार्वजनिक मॉडल ही सही

केरल सरकार ने अपनी एक रिपोर्ट में नेशनल हेल्थ अकाउंट्स (2004) के हवाले से बताया था कि प्रति व्यक्ति सार्वजनिक खर्च (287 रुपये) और निजी खर्च (2,663 रुपये) दोनों में यह बाकी राज्यों से ऊपर है। प्रदेश में भले ही भारत की तीन फीसदी आबादी रहती हो, यहां के लोग 10 फीसदी दवा की खपत करते थे। हर साल यहां लोग छह से आठ हजार करोड़ रुपये दवा पर खर्च करते थे। इसलिए राज्य सरकार ने स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च को सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) की तुलना में हर साल एक फीसदी बढ़ाते हुए पांच फीसदी तक ले जाने का लक्ष्य तय किया। यह 2018 में सिर्फ 0.6 फीसदी था। शैलजा के अनुसार अभी यह तीन से चार फीसदी के बीच है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह जीडीपी के एक फीसदी से कुछ ऊपर है। इसीलिए वह कहती हैं कि इतने कम खर्च से सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत नहीं बनाया जा सकता। केरल मॉडल को अपनाना दूसरे राज्यों के लिए बहुत मुश्किल है क्योंकि उन्होंने स्वास्थ्य और शिक्षा पर पहले कभी उतना ध्यान ही नहीं दिया। लेकिन इस मॉडल से यह सीख जरूर मिलती है कि ऐसे किसी भी बड़े संकट से निपटने के लिए सामाजिक क्षेत्र में व्यापक निवेश जरूरी है। कोविड के बहाने ही सही, उम्मीद की जानी चाहिए कि दूसरे राज्य भी अपने यहां सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत बनाएंगे।

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हर पंचायत में स्वास्थ्य केंद्र हैं, तालुका में स्पेशलिटी और जिला स्तर पर सुपर स्पेशलिटी अस्पताल हैं

 

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